Saturday, November 10, 2012

धनतेरस


धनतेरस
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यह त्योहार दीपावली आने की पूर्व सूचना देता है। हमारे देश में सर्वाधिक धूमधाम से मनाए जाने वाले त्योहार दीपावली का प्रारंभ धनतेरस से हो जाता है। इसी दिन से घरों की लिपाई-पुताई प्रारम्भ कर देते हैं। दीपावली के लिए विविध वस्तुओं की ख़रीद आज की जाती है। इस दिन से कोई किसी को अपनी वस्तु उधार नहीं देता। इसके उपलक्ष्य में बाज़ारों से नए बर्तन, वस्त्र, दीपावली पूजन हेतु लक्ष्मी-गणेश, खिल
ौने, खील-बताशे तथा सोने-चांदी के जेवर आदि भी ख़रीदे जाते हैं।

धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी इस दिन का विशेष महत्त्व है। आज ही के दिन आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के जन्मदाता धन्वन्तरि वैद्य समुद्र से अमृत कलश लेकर प्रगट हुए थे, इसलिए धनतेरस को 'धन्वन्तरि जयन्ती' भी कहते हैं। इसीलिए वैद्य-हकीम और ब्राह्मण समाज आज धन्वन्तरि भगवान का पूजन कर 'धन्वन्तरि जयन्ती' मनाता है। इस दिन वैदिक देवता यमराज का पूजन किया जाता है। पूरे वर्ष में एक मात्र यही वह दिन है, जब मृत्यु के देवता यमराज की पूजा की जाती है। यह पूजा दिन में नहीं की जाती अपितु रात्रि होते समय यमराज के निमित्त एक दीपक जलाया जाता है। इस दिन यम के लिए आटे का दीपक बनाकर घर के मुख्य द्वार पर रखा जाता हैं इस दीप को जमदीवा अर्थात यमराज का दीपक कहा जाता है। रात को घर की स्त्रियां दीपक में तेल डालकर नई रूई की बत्ती बनाकर, चार बत्तियां जलाती हैं। दीपक की बत्ती दक्षिण दिशा की ओर रखनी चाहिए। जल, रोली, फूल, चावल, गुड़, नैवेद्य आदि सहित दीपक जलाकर स्त्रियां यम का पूजन करती हैं। चूंकि यह दीपक मृत्यु के नियन्त्रक देव यमराज के निमित्त जलाया जाता है, अत: दीप जलाते समय पूर्ण श्रद्धा से उन्हें नमन तो करें ही, साथ ही यह भी प्रार्थना करें कि वे आपके परिवार पर दया दृष्टि बनाए रखें और किसी की अकाल मृत्यु न हो। शास्त्रों में इस बारे में कहा है कि जिन परिवारों में धनतेरस के दिन यमराज के निमित्त दीपदान किया जाता है, वहां अकाल मृत्यु नहीं होती। घरों में दीपावली की सजावट भी आज ही से प्रारम्भ हो जाती है। इस दिन घरों को स्वच्छ कर, लीप—पोतकर, चौक, रंगोली बना सायंकाल के समय दीपक जलाकर लक्ष्मी जी का आवाहन किया जाता है।

इस दिन पुराने बर्तनों को बदलना व नए बर्तन ख़रीदना शुभ माना गया है। इस दिन चांदी के बर्तन ख़रीदने से तो अत्यधिक पुण्य लाभ होता है। इस दिन हल जुती मिट्टी को दूध में भिगोकर उसमें सेमर की शाखा डालकर लगातार तीन बार अपने शरीर पर फेरना तथा कुंकुम लगाना चाहिए। कार्तिक स्नान करके प्रदोष काल में घाट, गौशाला, कुआं, बावली, मंदिर आदि स्थानों पर तीन दिन तक दीपक जलाना चाहिए। तुला राशि के सूर्य में चतुर्दशी व अमावस्या की सन्ध्या को जलती लकड़ी की मशाल से पितरों का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।

धन्वंतरि को समर्पित है धनतेरस
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बहुत कम लोग जानते हैं कि धनतेरस आयुर्वेद के जनक धन्वंतरि की स्मृति में मनाया जाता है। इस दिन लोग अपने घरों में नए बर्तन ख़रीदते हैं और उनमें पकवान रखकर भगवान धन्वंतरि को अर्पित करते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि असली धन तो स्वास्थ्य है। धन्वंतरि ईसा से लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व हुए थे। वह काशी के राजा महाराज धन्व के पुत्र थे। उन्होंने शल्य शास्त्र पर महत्त्वपूर्ण गवेषणाएं की थीं। उनके प्रपौत्र दिवोदास ने उन्हें परिमार्जित कर सुश्रुत आदि शिष्यों को उपदेश दिए इस तरह सुश्रुत संहिता किसी एक का नहीं, बल्कि धन्वंतरि, दिवोदास और सुश्रुत तीनों के वैज्ञानिक जीवन का मूर्त रूप है। धन्वंतरि के जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमृत का है। उनके जीवन के साथ अमृत का कलश जुड़ा है। वह भी सोने का कलश। अमृत निर्माण करने का प्रयोग धन्वंतरि ने स्वर्ण पात्र में ही बताया था। उन्होंने कहा कि जरा मृत्यु के विनाश के लिए ब्रह्मा आदि देवताओं ने सोम नामक अमृत का आविष्कार किया था। सुश्रुत उनके रासायनिक प्रयोग के उल्लेख हैं। धन्वंतरि के संप्रदाय में सौ प्रकार की मृत्यु है। उनमें एक ही काल मृत्यु है, शेष अकाल मृत्यु रोकने के प्रयास ही निदान और चिकित्सा हैं। आयु के न्यूनाधिक्य की एक-एक माप धन्वंतरि ने बताई है। पुरुष अथवा स्त्री को अपने हाथ के नाप से 120 उंगली लंबा होना चाहिए, जबकि छाती और कमर अठारह उंगली। शरीर के एक-एक अवयव की स्वस्थ और अस्वस्थ माप धन्वंतरि ने बताई है। उन्होंने चिकित्सा के अलावा फसलों का भी गहन अध्ययन किया है। पशु-पक्षियों के स्वभाव, उनके मांस के गुण-अवगुण और उनके भेद भी उन्हें ज्ञात थे। मानव की भोज्य सामग्री का जितना वैज्ञानिक व सांगोपांग विवेचन धन्वंतरि और सुश्रुत ने किया है, वह आज के युग में भी प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण है।

धनतेरस की कथा
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एक समय भगवान विष्णु मृत्युलोक में विचरण करने के लिए आ रहे थे, लक्ष्मी जी ने भी साथ चलने का आग्रह किया। विष्णु जी बोले- 'यदि मैं जो बात कहूं, वैसे ही मानो, तो चलो।' लक्ष्मी जी ने स्वीकार किया और भगवान विष्णु, लक्ष्मी जी सहित भूमण्डल पर आए। कुछ देर बाद एक स्थान पर भगवान विष्णु लक्ष्मी से बोले-'जब तक मैं न आऊं, तुम यहाँ ठहरो। मैं दक्षिण दिशा की ओर जा रहा हूं, तुम उधर मत देखना।' विष्णुजी के जाने पर लक्ष्मी को कौतुक उत्पन्न हुआ कि आख़िर दक्षिण दिशा में क्या है जो मुझे मना किया गया है और भगवान स्वयं दक्षिण में क्यों गए, कोई रहस्य ज़रूर है। लक्ष्मी जी से रहा न गया, ज्योंही भगवान ने राह पकड़ी, त्योंही लक्ष्मी भी पीछे-पीछे चल पड़ीं। कुछ ही दूर पर सरसों का खेत दिखाई दिया। वह ख़ूब फूला था। वे उधर ही चलीं। सरसों की शोभा से वे मुग्ध हो गईं और उसके फूल तोड़कर अपना श्रृंगार किया और आगे चलीं। आगे गन्ने (ईख) का खेत खड़ा था। लक्ष्मी जी ने चार गन्ने लिए और रस चूसने लगीं। उसी क्षण विष्णु जी आए और यह देख लक्ष्मी जी पर नाराज़ होकर शाप दिया- 'मैंने तुम्हें इधर आने को मना किया था, पर तुम न मानीं और यह किसान की चोरी का अपराध कर बैठीं। अब तुम उस किसान की 12 वर्ष तक इस अपराध की सज़ा के रूप में सेवा करों।' ऐसा कहकर भगवान उन्हें छोड़कर क्षीरसागर चले गए। लक्ष्मी किसान के घर रहने लगीं।

वह किसान अति दरिद्र था। लक्ष्मीजी ने किसान की पत्नी से कहा- 'तुम स्नान कर पहले इस मेरी बनाई देवी लक्ष्मी का पूजन करो, फिर रसोई बनाना, तुम जो मांगोगी मिलेगा।' किसान की पत्नी ने लक्ष्मी के आदेशानुसार ही किया। पूजा के प्रभाव और लक्ष्मी की कृपा से किसान का घर दूसरे ही दिन से अन्न, धन, रत्न, स्वर्ण आदि से भर गया और लक्ष्मी से जगमग होने लगा। लक्ष्मी ने किसान को धन-धान्य से पूर्ण कर दिया। किसान के 12 वर्ष बड़े आनन्द से कट गए। तत्पश्चात 12 वर्ष के बाद लक्ष्मीजी जाने के लिए तैयार हुईं। विष्णुजी, लक्ष्मीजी को लेने आए तो किसान ने उन्हें भेजने से इंकार कर दिया। लक्ष्मी भी बिना किसान की मर्जी वहाँ से जाने को तैयार न थीं। तब विष्णुजी ने एक चतुराई की। विष्णुजी जिस दिन लक्ष्मी को लेने आए थे, उस दिन वारुणी पर्व था। अत: किसान को वारुणी पर्व का महत्त्व समझाते हुए भगवान ने कहा- 'तुम परिवार सहित गंगा में जाकर स्नान करो और इन कौड़ियों को भी जल में छोड़ देना। जब तक तुम नहीं लौटोगे, तब तक मैं लक्ष्मी को नहीं ले जाऊंगा।' लक्ष्मीजी ने किसान को चार कौड़ियां गंगा के देने को दी। किसान ने वैसा ही किया। वह सपरिवार गंगा स्नान करने के लिए चला। जैसे ही उसने गंगा में कौड़ियां डालीं, वैसे ही चार हाथ गंगा में से निकले और वे कौड़ियां ले लीं। तब किसान को आश्चर्य हुआ कि वह तो कोई देवी है। तब किसान ने गंगाजी से पूछा-'माता! ये चार भुजाएं किसकी हैं?' गंगाजी बोलीं- 'हे किसान! वे चारों हाथ मेरे ही थे। तूने जो कौड़ियां भेंट दी हैं, वे किसकी दी हुई हैं?' किसान ने कहा- 'मेरे घर जो स्त्री आई है, उन्होंने ही दी हैं।'

इस पर गंगाजी बोलीं- 'तुम्हारे घर जो स्त्री आई है वह साक्षात लक्ष्मी हैं और पुरुष विष्णु भगवान हैं। तुम लक्ष्मी को जाने मत देना, नहीं तो पुन: निर्धन हो जाआगे।' यह सुन किसान घर लौट आया। वहां लक्ष्मी और विष्णु भगवान जाने को तैयार बैठे थे। किसान ने लक्ष्मीजी का आंचल पकड़ा और बोला- 'मैं तुम्हें जाने नहीं दूंगा। तब भगवान ने किसान से कहा- 'इन्हें कौन जाने देता है, परन्तु ये तो चंचला हैं, कहीं ठहरती ही नहीं, इनको बड़े-बड़े नहीं रोक सके। इनको मेरा शाप था, जो कि 12 वर्ष से तुम्हारी सेवा कर रही थीं। तुम्हारी 12 वर्ष सेवा का समय पूरा हो चुका है।' किसान हठपूर्वक बोला- 'नहीं अब मैं लक्ष्मीजी को नहीं जाने दूंगा। तुम कोई दूसरी स्त्री यहाँ से ले जाओ।' तब लक्ष्मीजी ने कहा-'हे किसान! तुम मुझे रोकना चाहते हो तो जो मैं कहूं जैसा करो। कल तेरस है, मैं तुम्हारे लिए धनतेरस मनाऊंगी। तुम कल घर को लीप-पोतकर स्वच्छ करना। रात्रि में घी का दीपक जलाकर रखना और सांयकाल मेरा पूजन करना और एक तांबे के कलश में रुपया भरकर मेरे निमित्त रखना, मैं उस कलश में निवास करूंगी। किंतु पूजा के समय मैं तुम्हें दिखाई नहीं दूंगी। मैं इस दिन की पूजा करने से वर्ष भर तुम्हारे घर से नहीं जाऊंगी। मुझे रखना है तो इसी तरह प्रतिवर्ष मेरी पूजा करना।' यह कहकर वे दीपकों के प्रकाश के साथ दसों दिशाओं में फैल गईं और भगवान देखते ही रह गए। अगले दिन किसान ने लक्ष्मीजी के कथानुसार पूजन किया। उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया। इसी भांति वह हर वर्ष तेरस के दिन लक्ष्मीजी की पूजा करने लगा।

सावधानियाँ
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सावधान और सजग रहें। असावधानी और लापरवाही से मनुष्य बहुत कुछ खो बैठता है। विजयादशमी और दीपावली के आगमन पर इस त्योहार का आनंद, ख़ुशी और उत्साह बनाये रखने के लिए सावधानीपूर्वक रहें।
पटाखों के साथ खिलवाड़ न करें। उचित दूरी से पटाखे चलाएँ।
मिठाइयों और पकवानों की शुद्धता, पवित्रता का ध्यान रखें ।
भारतीय संस्कृति के अनुसार आदर्शों व सादगी से मनायें। पाश्चात्य जगत का अंधानुकरण ना करें।
पटाखे घर से दूर चलायें और आस-पास के लोगों की असुविधा के प्रति सजग रहें।
स्वच्छ्ता और पर्यावरण का ध्यान रखें।
पटाखों से बच्चों को उचित दूरी बनाये रखने और सावधानियों को प्रयोग करने का सहज ज्ञान दें।

Friday, November 9, 2012

शनिवार व्रतकथा.

.....................................शनिवार व्रतकथा...........................

एक समय में स्वर्गलोक में सबसे बड़ा कौन के प्रश्न पर नौ ग्रहों में वाद-विवाद हो गया. यह विवाद इतना बढ़ा की आपस में भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई. निर्णय के लिए सभी
देवता देवराज इन्द्र के पास पहुंचे और बोले- हे देवराज, आपको निर्णय करना होगा कि हममें से सबसे बड़ा कौन है. देवताओं का प्रश्न सुन इन्द्र उलझन में पड़ गए, फिर उन्ह

ोंने सभी को पृथ्वीलोक में उज्जयिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य के पास चलने का सुझ
ाव दिया.

उज्जयिनी पहुंचकर जब देवताओं ने अपना प्रश्न राजा विक्रमादित्य से पूछा तो वह भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे क्योंकि सभी देवता अपनी-2 शक्तियों के कारण महान थे. किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी. अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- सोना, चांदी, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाए. धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवाकर उन्होंने सभी देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा.

देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा- आपका निर्णय तो स्वयं हो गया. जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वहीं सबसे बड़ा है. राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देवता ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा- हे राजन, तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है. तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो, मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा. शनि देव ने कहा- सूर्य एक राशि पर एक महीने, चन्द्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी भी राशि पर साढ़े सात वर्ष तक रहता हूं. बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बचेगा. इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परन्तु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए.

विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्जयिनी नगरी पहुंचे. राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने को भेजा. घोड़े बहुत कीमती थे. अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस बारे में राजा विक्रमादित्य को बताया तो वह खुद आकर एक सुन्दर और शक्तिशाली घोड़ा पसंद किया.

घोड़े की चाल देखने के लिए राजा जैसे ही उस घोड़े पर सवार हुए वह बिजली की गति से दौड़ पड़ा. तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर वहां राजा को गिराकर गायब हो गया. राजा अपने नगर लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा पर उसे कोई रास्ता नहीं मिला. राजा को भूख प्यास लग आई. बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला. राजा ने उससे पानी मांगा. पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी और उससे रास्ता पूछकर जंगल से निकलकर पास के नगर में चला गया.

नगर पहुंच कर राजा एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया. राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठजी की बहुत बिक्री हुई. सेठ ने राजा को भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन पर ले गया. सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था. राजा को उस कमरे में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर चला गया. तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी. राजा के देखते-देखते सोने के उस हार को खूंटी निगल गई. सेठ ने जब हार गायब देखा तो उसने चोरी का संदेह राजा पर किया और अपने नौकरों से कहा कि इस परदेशी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो. राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि खूंटी ने हार को निगल लिया. इस पर राजा क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया. सैनिकों ने राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काट कर उसे सड़क पर छोड़ दिया.

कुछ दिन बाद एक तेली उसे उठाकर अपने घर ले गया और उसे कोल्हू पर बैठा दिया. राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता. इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा. शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई. एक रात विक्रमादित्य मेघ मल्हार गा रहा था, तभी नगर की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस घर के पास से गुजरी. उसने मल्हार सुना तो उसे अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा. दासी लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया. राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई और सब कुछ जानते हुए भी उसने अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय किया.

राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वह हैरान रह गए. उन्होंने उसे बहुत समझाया पर राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया. आखिरकार राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा. विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे. उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा- राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया. मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है. राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की- हे शनिदेव, आपने जितना दुःख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना.

शनिदेव ने कहा- राजन, मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूं. जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत करके मेरी व्रतकथा सुनेगा, उसपर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी. प्रातःकाल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत ख़ुशी हुई. उसने मन ही मन शनिदेव को प्रणाम किया. राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई. तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई.

इधर सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुंचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा. राजा ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था. सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया. भोजन करते समय वहां एक आश्चर्य घटना घटी. सबके देखते-देखते उस खूंटी ने हार उगल दिया. सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया.

राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्जयिनी पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष के साथ उनका स्वागत किया. अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं. प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रतकथा अवश्य सुनें. राजा विक्रमादित्य कि घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए. शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएं शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगी. सभी लोग आनंदपूर्वक रहने लगे

रम्भा एकादशी


रम्भा एकादशी या *"रमा एकादशी"* का व्रत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में रखा जाता है. /
/*रम्भा एकादशी कथा */
/प्राचीन काल में एक धर्मात्मा और दानी राजा थे. राजा का नाम मुचुकुन्द था. प्रजा उन्हें पिता के समान मानते और वे प्रजा को पुत्र के समान.
राजा मुचुकुन्द वैष्ण्व थे और भगवान विष्णु के भक्त थे. वे प्रत्येक एकादशी का व्रत बड़ी ही निष्ठा और भक्ति से करते थे. राजा का एकादशी व्रत में विश्वास और श्रद्धा देखकर प्रजा भी एकादशी व्रत करने लगी. राजा की एक पुत्री थी, जिसका नाम चन्द्रभागा था. चन्द्रभागा भी पिता जी को देखकर एकादशी का व्रत रखती थी. चन्द्रभागा जब बड़ी हुई तो उसका विवाह राजा चन्द्रसेन के पुत्र शोभन के साथ कर दिया गया. शोभन भी विवाह के पश्चात एकादशी का व्रत रखने लगा./

/कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी आयी तो चंद्र भागा ने पति से कहा - कि आप बहुत कमजोर हो इसलिए व्रत नही कर सकते, परन्तु मेरे पिता का कठिन आज्ञा है, मेरे पिता के राज्य में कोई भी एकादशी के दिन भोजन नही करता यहाँ तक कि घोड़ा, ऊंट, पशु, आदि भी जल आदि ग्रहण नही करते. इसलिए आप कही और चले जाये, क्योकि यहाँ रहने से आपको व्रत अवश्य करना पड़ेगा. परन्तु सोभन ने कहा - मै अवश्य ही व्रत करूँगा. व्रत के दौरान शोभन को भूख लग गयी और वह भूख से व्याकुल हो कर छटपटाने लगा और इस छटपटाहट में भूख से शोभन की मृत्यु हो गयी. राजा रानी जमाता की मृत्यु से बहुत ही दु:खी और शोकाकुल हो उठे और उधर पति की मृत्यु होने से उनकी पुत्री का भी यही हाल था. दु:ख और शोक के बावजूद इन्होंने एकादशी का व्रत छोड़ा नहीं बल्कि पूर्ववत विधि पूर्वक व्रत करते रहे./

/एकादशी का व्रत करते हुए शोभन की मृत्युं हुई थी अत: उन्हें मन्दराचल पर्वत पर स्थित देवनगरी में सुन्दर आवास मिला. वहां उनकी सेवा हेतु रम्भा नामक अप्सरा अन्य अप्सराओं के साथ जुटी रहती है. एक दिन राजा मुचुकुन्द किसी कारण से मन्दराचल पर गये और उन्होंनेशोभन को ठाठ बाठ में देखा तो आकर रानी और अपनी पुत्री को सारी बातें बताई.चन्द्रभागा पति का यह समाचार सुनकर मन्दराचल पर गयी और अपने पति शोभन के साथ सुख पूर्वक रहने लगी. मन्दराचल पर इनकी सेवा में रम्भादि अप्सराएं लगी रहती थी अत: इसे
रम्भा एकादशी कहते हैं./

/*रम्भा एकादशी व्रत विधि*/

/विवाहिता स्त्रियों के लिए यह व्रत सभाग्य देने वाला और सुख प्रदान करने वाला कहा गया है. दशमी तिथि को सात्विक भोजन करें और काम-वासना से मन को हटाकर हृदय शुद्ध औरपवित्र रखें और एकादशी के दिन प्रात: स्नान करके पूजा-पाठ करें. द्वादशी तिथि को ब्रह्मणको भोजन कराकर एवं दक्षिणा देकर विदा करें फिर व्रती को अन्न ग्रहण करना चाहिए./
*रम्भा एकादशी का महत्व */

/. जो मनुष्य रमा एकादशी के व्रत को करते है उनके समस्त ब्रह्महत्या आदि के पाप नष्ट हो
जाते है/

Saturday, September 29, 2012

श्राद्ध

श्राद्ध: दस सवाल जो आज के युवा पूछना चाहते हैं

1. श्राद्ध क्या है?
श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद शुरू हुई। और इसके मूल में उपरोक्त श्लोक की भावना है। उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मंत्रों के साथ जो (दान-दक्षिणा आदि) दिया जाए, वही श्राद्ध कहलाता है।

2. श्राद्ध के मुख्य देवता कौन हैं?
वसु, रुद्र तथा आदित्य, ये श्राद्ध के देवता हैं।

3. श्राद्ध किसका किया जाता है? और क्यों?
हर मनुष्य के तीन पूर्वज : पिता, दादा और परदादा क्रमश: वसु, रुद्र और
आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक्त वे ही सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि समङो जाते हैं। समझ जाता है, कि वे श्राद्ध कराने वालों के शरीर में प्रवेश करते हैं। और ठीक ढंग से किए श्राद्ध से तृप्त होकर वे अपने वंशधर के सपरिवार सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य का वरदान देते हैं। श्राद्ध के बाद उस दौरान उच्चरित मंत्रों तथा आहुतियों को वे सभी पितरों तक ले जाते हैं।

4. श्राद्ध कितनी तरह के होते हैं?
नित्य, नैमित्तिक और काम्य। नित्य श्राद्ध, श्राद्ध के दिनों में मृतक के निधन की तिथि पर, नैमित्तिक किसी विशेष पारिवारिक मौके (जैसे पुत्र जन्म) पर और काम्य विशेष मनौती के लिए कृत्तिका या रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है।

5. श्राद्ध कौन-कौन कर सकता है?
आमतौर पर पुत्र ही अपने पूर्वजों का श्राद्ध करते पाए जाते हैं। लेकिन शास्त्रनुसार ऐसा हर व्यक्ति जिसने मृतक की संपत्ति विरासत में पाई है, उसका स्नेहवश श्राद्ध कर सकता है। यहाँ तक कि विद्या की विरासत से लाभान्वित होने वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राद्ध कर सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र या प्रपौत्र श्राद्ध करते हैं। निस्संतान पत्नी को पति द्वारा, पिता द्वारा पुत्र को और बड़े भाई द्वारा छोटे भाई को पिण्ड नहीं दिया जा सकता। किन्तु कम उम्र का ऐसा बच्च, जिसका उपनयन न हुआ हो, पिता को जल देकर नवश्राद्ध कर सकता है। शेष कार्य (पिण्डदान, अग्निहोम) उसकी ओर से कुल पुरोहित करता है।

6. श्राद्ध के लिए उचित और वजिर्त पदार्थ क्या हैं?
श्राद्ध के लिए उचित द्रव्य हैं : तिल, माष, चावल, जाै, जल, मूल (जड़युक्त सब्जी) और फल। तीन चीजें शुद्धि कारक हैं : पुत्री का पुत्र, तिल और नेपाली कम्बल! श्राद्ध करने में तीन बातें प्रशंसनीय हैं : सफाई, क्रोधहीनता और चैन (त्वरा (शीघ्रता) का न होना)। श्राद्ध में अत्यन्त महत्वपूर्ण बातें हैं : अपरान्ह का समय, कुशा, श्राद्धस्थली की स्वच्छता, उदारता से भोजनादि की व्यवस्था और अच्छे ब्राह्मणों की उपस्थिति।
कुछ अन्न और खाद्य पदार्थ जो श्राद्ध में नहीं लगते, इस प्रकार हैं : मसूर, राजमा, कोदों, चना, कपित्थ, अलसी (तीसी, सन, बासी भोजन और समुद्र जल से बना नमक। भैंस, हरिणी, ऊँटनी, भेड़ और एक खुर वाले पशुओं का दूध भी वजिर्त है। पर भैंस का घी वजिर्त नहीं। श्राद्ध में दूध, दही और घी पितरों के लिए विशेष तुष्टिकारक माने गए हैं।

7. श्राद्ध में कुश तथा तिल का क्या महत्व है?
दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना गया है। माना यह भी जाता है कि कुश और तिल दोनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा-विष्णु-महेश कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। तिल पितरों को प्रिय और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। माना गया है कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाए, तो दुष्टात्माएँ हवि उठा ले जाती हैं।

8. दरिद्र व्यक्ति श्राद्ध कम खर्चे में कैसे करे?
विष्णु पुराण के अनुसार दरिद्र लोग केवल मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम दक्षिणा, वह भी न हो तो सात या आठ तिल अंजलि में जल के साथ लेकर ब्राह्मण को दे दें। या किसी गाय को दिनभर घास खिला दें। अन्यथा हाथ उठाकर दिक्पालों और सूर्य से याचना करें कि मैंने हाथ वायु में फैला दिए हैं, मेरे पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों।

9. पिण्ड क्या हैं? उनका अर्थ क्या है?
श्राद्ध के दौरान पके हुए चावल दूध और तिल मिश्रित जो पिण्ड बनाते हैं, उसे सपिण्डीकरण कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है, कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित गुणसूत्र मौजूद होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा और परदादा तथा पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलाकर फिर अलग बाँटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन-जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है। इस पिण्ड को गाय-कौओं को देने से पहले पिण्डदान करने वाला सूँघता भी है। अपने यहां सूँघना यानी आधा भोजन करना माना गया है। इस तरह श्राद्ध करने वाला पिण्डदान के पहले अपने पितरों की उपस्थिति को खुद अपने भीतर भी ग्रहण करता है।

10. इस पूरे अनुष्ठान का अर्थ क्या है?
अपने दिवंगत बुजुर्गो को हम दो तरह से याद करते हैं : स्थूल शरीर के रूप में और भावनात्मक रूप से! स्थूल शरीर तो मरने के बाद अग्नि या जलप्रवाह को भेंट कर देते हैं, इसलिए श्राद्ध करते समय हम पितरों की स्मृति उनके ‘भावना शरीर’ की पूजा करते हैं ताकि वे तृप्त हों, और हमें सपरिवार अपना स्नेहपूर्ण आशीर्वाद दें।

Friday, August 10, 2012

श्रीजाहरवीर गोगाजी


भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की नवमी (इस बार 11 अगस्त, शनिवार) गोगा नवमी के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन श्रीजाहरवीर गोगाजी का जन्मोत्सव बड़े ही हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इस अवसर पर बाबा जाहरवीर गोगाजी के भक्तगण अपने घरों में इष्टदेव की थाड़ी (थान-वेदी) बनाकर अखण्ड ज्योति जागरण कराते हैं तथा गोगादेवजी की शौर्य गाथा एवं जन्म कथा सुनते हैं। इस प्रथा को जाहरवीर का जोत कथा जागरण कहते हैं। इस दिन कहीं मेले लगते हैं तो कहीं भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है। ऐसी मान्यता है कि श्रीगोगादेव भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।

कौन थे श्रीगोगादेव महाराज -

श्रीगोगादेव का जन्म नाथ संप्रदाय के योगी गोरक्षनाथ के आशीर्वाद से हुआ था। योगी गोरक्षनाथ ने ही गोगादेवजी की माता बाछल को प्रसाद रूप में अभिमंत्रित गुग्गल दिया था। जिसके प्रभाव से महारानी बाछल से जाहरवीर (श्रीगोगादेव महाराज), पुरोहितानी से नरसिंह पाण्डे, दासी से मज्जूवीर, महतरानी से रत्नावीर तथा बन्ध्या घोड़ी से नीलाŸववीर का जन्म हुआ। इन सभी ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए विधर्मी राजाओं से घोर युद्ध किया जिसमें श्रीगोगादेवजी व नीलाश्व को छोड़कर अन्य वीरगति को प्राप्त हुए। अंत में गुरु गोरक्षनाथ के योग, मंत्र व प्रेरणा से श्रीजाहरवीर गोगाजी ने नीले घोड़े सहित धरती में जीवित समाधि ली।

Thursday, August 9, 2012

‘‘माधुर्य के अकेले अवतार कर्मयोगी श्रीकृष्ण ’’



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एक प्रसिद्ध कहावत है ‘महापुरुष जन्म से नहीं कर्म से होते हैं’। जन्म लेते समय मनुष्य एक साधारण सा मानव होता है किन्तु धीरे धीरेसंस्कार, शिक्षा, उच्च चारित्र बल एवं पूर्वकृत अच्छे पुण्योद्वय के कारण अपने व्यंिक्तत्व को विकसित ओर प्रभावशाली बनाता हुआ एक दिन मानव से महामानव बन जाता है। वह कंठ धन्य है जिसमें श्री प्रभु का मंगलमय नाम लिया जाता है, वे कान
धन्य है जो श्री प्रभु की महिमा का श्रवण करते हैं।
श्री प्रभु का एक दिव्य स्वरुप हैभगवान् श्रीकृष्ण। जिनके जन्म लेते ही धरती पर आनंद और सुख की लहरें उठी। भय, आतंक से पीड़ित प्रजा में आशा कि एक किरण फूटी कि हमारा ‘तारणहार’ आ गया। वैदिक परम्परा में श्रीकृश्ण भगवान् विष्णु के पूर्व अवतार माने जाते हैं। जैन परम्परा के अनुसार भी त्रेसठ (63) शलाका पुरुषों में एकशलाका पुरुष श्रीकृष्ण ‘वासुदेव’ के नाम से विख्यात है।
धरती पर माधुर्य के अवतार अकेले श्रीकृष्ण ही तो हुए। वे ऐसे पुरुष हुए जिन्होंने अपने जीवन में न कभी जप किया, न तप किया, न जंगलों में जाकर साधना की लेकिन फिर भी वे धरती के भगवान् स्वीकारकिए गए। जन्म से लेकर निर्वाण तक एक भी माला नहीं जपी ओर न ही किसी तरह की साधना की। प्रेम ही उनकी साधना थी और आत्मविष्वास ही उनकी आराधना थी। श्रीकृष्ण की मुरली एवं उनका सुदर्षन चक्र भी मानवता के लिए अमृत वरदान था। चक्र द्वारा मानवता के लिए कलंक बन चुके आतताइयों और आतंकवादियों कासफाया किया ओर समग्र मानवता को प्रेम का सन्देष दिया जिससे सम्पूर्ण मानवता का एक धरातल पर प्रतिष्ठापन हुआ।
श्रीकृश्ण का जीवन ज्ञान एवं कर्म का समन्वित जीवन था। जो उपदेश उन्होंने दूसरों के लिए दिये उसी उपदेश को स्वयं के जीवन में भी चरितार्थ किया। पापियों के संहारक ओर भक्तों के तारक दोनोरुप श्रीकृष्ण के है। श्रीकृष्ण की गीता आत्म विष्वास का शास्त्र है। 18 अध्यायों की गीता उनकी अनुपम देन है। गीता तो धरती का वह अनुपम षिखर है जिससे सारे विश्व को जीवन जीने की कला और समृद्धि की फिजाऐं मिली है।
गीता ही धरती का वह परम शास्त्र है जो मनुष्य को अधिकारों के संरक्षण का विश्वास देता है। आज जिन मानवाधिकारों की रक्षा की बात की जाती है अगर उनकी रक्षा के लिए धरती पर सबसे पहला शंखनाद किसी ने किया तो वह है श्रीमद् भगवद् गीता। कर्मयोग ही गीता का मूल सन्देश है, कर्म आपके कामधेनुकी तरह है, वही व्यक्ति वही देश आगे बढ़ रहे हैं जिन्होंने ऊँचे लक्ष्य के साथ ऊँचा प्रयत्न किया है।
इस धरा पर किसी व्यक्ति ने गऊओं की सेवा के लिए अपने ईष्वरत्व को भी समर्पित किया तो धरती पर वह अकेलाशख्स केवल कर्मयोगी श्रीकृष्ण ही हुए। जिस नारी के प्रति इंसानी नज़रिया हमेशा गलत रहा उसके प्रति अगर आध्यात्मिक प्रेम का, ईष्वरीय प्रेम का संगानअगरकिसी ने किया तो वह भी श्रीकृष्ण ही हुए। श्रीकृष्ण का तो एक एक कण अपने आप में प्रेम ओर माधुर्य से ओत प्रोत है।
आज जन्माष्टमी का पवित्र दिवस है। आज देश में लाखों करोड़ों श्रीकृष्ण के भक्त है जो मन्दिरों में जाकर दर्शन करके अपने आपको धन्य मानते हैं पर क्याकिसी भक्त के दिल में दया नहीं आती कि श्रीकृष्ण की गौमाता जो हैउसकी हालत क्या हो रही है? लाखों गायें प्रतिदिन कत्लखानों में काटी जा रही है। श्रीकृष्ण की जन्म कर्म स्थली इस भारत भूमि पर लाखों करोड़ों छोटे बड़े कत्लखाने है। इस देश में हिंसा कामहाताण्डव श्रीकृश्ण के भक्तों एवं शान्ति के पुजारियों के लिए दिल दहलाने वाला है। अगर इस देष में कृष्ण भक्त एवं इसके अलावा जोभी श्रद्धालु श्रीकृष्ण को दिल में बसाकर यह प्रण ले कि मैं एक गाय का पालन पोषण करुंगा तो इस देष से बहुत जल्दी कत्लखानों मे गायें कटना बंद हो जाएगी।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन दिवस पर मेरा यही कहना है कि आप व्रत रखकर, मन्दिरों में पूजा प्रसाद चढ़ाकर श्रीकृष्ण का जन्मदिवस मनाते हैं तो मनाएँ परन्तु श्रीकृष्ण के आदर्श चरित्र ओर उनके नैतिक उपदेशों के एक एक सूत्र को जीवन में धारण करने के साथ साथ गौमाता रक्षण के लिए आगे आये, गौमाता की सेवा करेंगे तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाना सार्थक होगा। अंत में इतनी ही.....
संकट में है आज वो धरती, जिस पर तूने जन्म लिया।
पूरा कर दे आज वचन वो, गीता में जो तूने दिया।।

Tuesday, August 7, 2012

कालगणना-१


कालगणना-१ : काल का खगोल से सम्बंध ---------------------------
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इस सृष्टि की उत्पति कब हुई तथा यह सृष्टि कब तक रहेगी यह प्रश्न मानव मन को युगों से मथते रहे हैं। इनका उत्तर पाने के लिए लिए सबसे पहले काल को समझना पड़ेगा। काल जिसके द्वारा हम घटनाओं-परिवर्तनों को नापते हैं, कबसे प्रारंभ हुआ?
इस सृष्टि की उत्पति कब हुई तथा यह सृष्टि कब तक रहेगी यह प्रश्न मानव मन को युगों से मथते रहे हैं।
आधुनिक काल के प्रख्यात ब्रह्माण्ड विज्ञानी स्टीफन हॉकिन्स ने इस पर एक पुस्तक लिखी - brief history of time (समय का संक्षिप्त इतिहास)। उस पुस्तक में वह लिखता है कि समय कब से प्रारंभ हुआ। वह लिखता है कि सृष्टि और समय एक साथ प्रारंभ हुए जब ब्रह्माण्डोत्पति की कारणीभूत घटना आदिद्रव्य में बिग बैंग (महाविस्फोट) हुआ और इस विस्फोट के साथ ही अव्यक्त अवस्था से ब्रह्माण्ड व्यक्त अवस्था में आने लगा। इसी के साथ समय भी उत्पन्न हुआ। अत: सृष्टि और समय एक साथ प्रारंभ हुए और समय कब तक रहेगा, तो जब तक यह सृष्टि रहेगी, तब तक रहेगा, उसके लोप के साथ लोप होगा। दूसरा प्रश्न कि सृष्टि के पूर्व क्या था? इसके उत्तर में हॉकिन्स कहता है कि वह आज अज्ञात है। पर इसे जानने का एक साधन हो सकता है। कोई तारा जब मरता है तो उसका र्इंधन प्रकाश और ऊर्जा के रूप में समाप्त होने लगता है। तब वह सिकुड़ने लगता है। और भारतवर्ष में ऋषियों ने इस पर चिंतन किया, साक्षात्कार किया। ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया कि तब न सत् था न असत् था, न परमाणु था न आकाश, तो उस समय क्या था? तब न मृत्यु थी, न अमरत्व था, न दिन था, न रात थी। उस समय स्पंदन शक्ति युक्त वह एक तत्व था।

सृष्टि पूर्व अंधकार से अंधकार ढंका हुआ था और तप की शक्ति से युक्त एक तत्व था। सर्वप्रथम
हमारे यहां ऋषियों ने काल की परिभाषा करते हुए कहा है "कलयति सर्वाणि भूतानि", जो संपूर्ण ब्रह्माण्ड को, सृष्टि को खा जाता है। साथ ही कहा कि यह ब्रह्माण्ड एक बार बना और नष्ट हुआ, ऐसा नहीं होता। अपितु उत्पत्ति और लय पुन: उत्पत्ति और लय यह चक्र चलता रहता है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, परिवर्तन और लय के रूप में विराट कालचक्र चल रहा है। काल के इस सर्वग्रासी रूप का वर्णन भारत में और पश्चिम में अनेक कवियों ने किया है। हमारे यहां इसको व्यक्त करते हुए महाकवि क्षेमेन्द्र कहते हैं-

अहो कालसमुद्रस्य न लक्ष्यन्ते तिसंतता:।
मज्जन्तोन्तरनन्तस्य युगान्ता: पर्वता इव।।

अर्थात्-काल के महासमुद्र में कहीं संकोच जैसा अन्तराल नहीं, महाकाय पर्वतों की तरह बड़े-बड़े युग उसमें समाहित हो जाते हैं। पश्चिम में 1990 में नोबल पुरस्कार प्राप्त कवि आक्टोवियो पाज अपनी कविता Into the matter में काल के सर्वभक्षी रूप का वर्णन निम्न प्रकार से करते हैं।

A clock strikes the time
now its time
it is not time now, not it is now
now it is time to get rid of time
now it is not time
it is time and not now
time eats the now
now its time
windows close
walls closed doors close
the words gøo home
Nowwe are more alone..........1

अर्थात्

"काल यंत्र बताता है काल
आ गया आज, काल।
आज में काल नहीं, काल में आज नहीं,
काल को विदा देने का काल है आज।
काल है, आज नहीं,
काल निगलता है आज को।
आज है वह काल
वातायन बंद हो रहे हैं
दीवार है बंद
द्वार बन्द हो रहे हैं
वैखरी पहुंच रही है स्व निकेत
हम तो अब हैं अकेले"

इस काल को नापने का सूक्ष्मतम और महत्तम माप हमारे यहां कहा गया है।

श्रीमद्भागवत में प्रसंग आता है कि जब राजा परीक्षित महामुनि शुकदेव से पूछते हैं, काल क्या है? उसका सूक्ष्मतम और महत्तम रूप क्या है? तब इस प्रश्न का शुकदेव मुनि जो उत्तर देते हैं वह आश्चर्य जनक है, क्योंकि आज के आधुनिक युग में हम जानते हैं कि काल अमूर्त तत्व है। घटने वाली घटनाओं से हम उसे जानते हैं। आज से हजारों वर्ष पूर्व शुकदेव मुनि ने कहा- "विषयों का रूपान्तर" (बदलना) ही काल का आकार है। उसी को निमित्त बना वह काल तत्व अपने को अभिव्यक्त करता है। वह अव्यक्त से व्यक्त होता है।"

काल गणना
इस काल का सूक्ष्मतम अंश परमाणु है तथा महत्तम अंश ब्राहृ आयु है। इसको विस्तार से बताते हुए शुक मुनि उसके विभिन्न माप बताते हैं:-

2 परमाणु- 1 अणु - 15 लघु - 1 नाड़िका
3 अणु - 1 त्रसरेणु - 2 नाड़िका - 1 मुहूत्र्त
3 त्रसरेणु- 1 त्रुटि - 30 मुहूत्र्त - 1 दिन रात
100 त्रुटि- 1 वेध - 7 दिन रात - 1 सप्ताह
3 वेध - 1 लव - 2 सप्ताह - 1 पक्ष
3 लव- 1 निमेष - 2 पक्ष - 1 मास
3 निमेष- 1 क्षण - 2 मास - 1 ऋतु
5 क्षण- 1 काष्ठा - 3 ऋतु - 1 अयन
15 काष्ठा - 1 लघु - 2 अयन - 1 वर्ष

शुक मुनि की गणना से एक दिन रात में 3280500000 परमाणु काल होते हैं तथा एक दिन रात में 86400 सेकेण्ड होते हैं। इसका अर्थ सूक्ष्मतम माप यानी 1 परमाणु काल 1 सेकंड का 37968 वां हिस्सा।

महाभारत के मोक्षपर्व में अ. 231 में कालगणना - निम्न है:-

15 निमेष - 1 काष्ठा
30 काष्ठा -1 कला
30 कला- 1 मुहूत्र्त
30 मुहूत्र्त- 1 दिन रात

दोनों गणनाओं में थोड़ा अन्तर है। शुक मुनि के हिसाब से 1 मुहूर्त में 450 काष्ठा होती है तथा महाभारत की गणना के हिसाब से 1 मुहूर्त में 900 काष्ठा होती हैं। यह गणना की भिन्न पद्धतियों को परिलक्षित करती है।

यह सामान्य गणना के लिए माप है। पर ब्रह्माण्ड की आयु के लिए, ब्रह्माण्ड में होने वाले परिवर्तनों को मापने के लिए बड़ी

कलियुग - 432000 वर्ष
2 कलियुग - द्वापरयुग - 864000 वर्ष
3 कलियुग - त्रेतायुग - 1296000 वर्ष
4 कलियुग - सतयुग - 1728000 वर्ष

चारों युगों की 1 चतुर्युगी - 4320000
71 चतुर्युगी का एक मन्वंतर - 306720000
14 मन्वंतर तथा संध्यांश के 15 सतयुग
का एक कल्प यानी - 4320000000 वर्ष

एक कल्प यानी ब्रह्मा का एक दिन, उतनी ही बड़ी उनकी रात इस प्रकार 100 वर्ष तक एक ब्रह्मा की आयु। और जब एक ब्रह्मा मरता है तो भगवान विष्णु का एक निमेष (आंख की पलक झपकने के काल को निमेष कहते हैं) होता है और विष्णु के बाद रुद्र का काल आरम्भ होता है, जो स्वयं कालरूप है और अनंत है, इसीलिए कहा जाता है कि काल अनन्त है।

शुकदेव महामुनि द्वारा वर्णित इस वर्णन को पढ़कर मन में प्रश्न आ सकता है कि ये सब वर्णन कपोलकल्पना है, बुद्धिविलास है। आज के वैज्ञानिक युग में इन बातों की क्या अहमियत है। परन्तु ये सब वर्ण कपोलकल्पना नहीं अपितु इसका सम्बंध खगोल के साथ है। भारतीय कालगणना खगोल पिण्डों की गति के सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर प्रतिपल, प्रतिदिन होने वाले उसके परिवर्तनों, उसकी गति के आधार पर यानी ठोस वैज्ञानिक सच्चाईयों के आधार पर निर्धारित हुई है। जबकि आज विश्व में प्रचलित ईसवी सन् की कालगणना में केवल एक बात वैज्ञानिक है कि उसका वर्ष पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा करने में लगने वाले समय पर आधारित है। बाकी उसमें माह तथा दिन का दैनंदिन खगोल गति से कोई सम्बंध नहीं है। जबकि भारतीय गणना का प्रतिक्षण, प्रतिदिन, खगोलीय गति से सम्बंध है।

Saturday, August 4, 2012

पंचवटी वाटिका

पीपल, बेल, वट, आंवला व अशोक ये पांचो वृक्ष पंच्वटी कहे गये हैं। इनकी स्थापना पांच दिशाऒं में करनी चाहिए। पीपल पूर्व दिशा में, बेल उत्तर दिशा में, वट (बरगद) पश्चिम दिशा में, आंवला दक्षिण दिशा में तपस्या के लिए स्थापना करनी चाहिए । पांच वर्षों के पश्चात चार हाथ की सुन्दर वेदी की स्थापना बीच मॆं करनी चाहिए । यह अनन्त फलों कॊ देने वाली व तपस्या का फल देने प्रदान करने वाली है।

यदि अधिक जगह उपलब्ध हो तो वृह्द पंचवटी की स्थापना करें । सर्व प्रथम केन्द्र
के चारो ऒर 5 मी० त्रिज्या 10 मी० त्रिज्या, 20 मी० त्रिज्या, 25 मी० त्रिज्या, एवं 30 मी० त्रिज्या, का पांच वृत्त बनाऎ । अन्दर के प्रथम 5 मी० त्रिज्या के वृत पर चारॊ दिशाऒं में चार बेल के वृक्षॊ का स्थापना करॆं। इसके बाद 10 मी० त्रिज्या के द्वीतीय वृत पर चारो कॊनॊं पर चार बरगद का वृक्ष स्थापित करें। 20 मी० त्रिज्या के त्रीतीय वृत की परिधि पर समान दूरी पर ( लगभग 5 मी० ) के अन्तराल पर 25 अशॊक के वृक्ष का रोपण करें। चतुर्थ वृत जिसकी त्रिज्या 25 मी० हॆ के परिधि पर दक्षिण दिशा के लम्ब से 5-5 मी० पर दोनों तरफ दक्षिण दिशा में आंवला के दो वृक्ष चित्रानिसार स्थापित करने का विधान है। आंवला के दो वृक्षॊं की परस्पर दूरी 10 मी० रहेगी । पंचवे अौर अंतिम 30 मी० त्रिज्या के वृत के परधि पर चरो दिशऒं में पीपल के चर वृक्ष का रोपण करें। इस प्रकार कुल उन्तालिस वृक्ष की स्थापना होगी । जिसमें चार वृक्ष बेल, चार बरगद, 25 वृक्ष अशोक, दो वृक्ष आंवला एवं चार वृक्ष पीपल के होंगे।


पंचवटी का महत्व

1 औषधीय महत्व

इन पांच वृक्षों में अद्वितीय औषधीय गुण है । आंवला विटामिन "c" का सबसे सम्रध स्त्रोत ह एवं शरीर को रोग प्रतिरोधी बनाने की महऔषधि है। बरगद का दूध बहुत बलदायी होता है। इसके प्रतिदिन ईस्तेमाल से शरीर का कायाकल्प हो जाता है। पीपल रक्त विकार दूर करने वाला वेदनाशामक एवं शोथहर होता है। बेल पेट सम्बन्धी बीमारियों का अचूक औषधि है तो अशोक स्त्री विकारों को दूर करने वाला औषधीय वृक्ष है।

इस वृक्ष समुह में फलों के पकने का समय इस प्रकार निर्धारित है कि किसी न किसी वृक्ष पर वर्ष भर फल विधमान रहता है। जो मौसमी रोगों के निदान हेतु सरलता से उपलब्ध होता है। गर्मी में जब पाचन सम्बन्धी विकारों की प्रबलता होती है तो बेल है। वर्षाकाल में चर्म रोगों की अधिकता एवं रक्त विकारों में अशॊक परिपक्व होता है। शीत ऋतु में शरीर के ताप एवं उर्जा की आवश्यकता को आंवला पूरा करता है

2 पार्यावरणीय महत्व

बरगद शीतल छाया प्र्दान करने वाला एक विशाल वृक्ष है। गर्मी के दिनों में अपरान्ह में जब सुर्य की प्रचन्ड किरणें असह्य गर्मी प्रदान करत हैं एवं तेज लू चलता है तो पचवटी में पश्चिम के तरफ़ स्थित वट वृक्ष सघन छाया उत्पन्न कर पंचवटी को ठ्न्डा करत है।

पीपल प्रदुषण शोषण करने वाला एवं प्राण वायु उत्पन्न करन वाला सर्वोतम वृक्ष है

अशोक सदाबहार वृक्ष है यह कभी पर्ण रहित नहीं रहता एवं सदॆव छाया प्रदान करत है।

बेल की पत्तियों, काष्ठ एवं फल में तेल ग्रन्थियां होती है जो वातावरण को सुगन्धित रखती हैं।

पछुआ एवं पुरुवा दोनों की तेज हवाऒं से वातावरण में धूल की मात्रा बढती है जिसकॊ पुरब व पश्चिम में स्थित पीपल व बरगद के विशाल पेड अवशोशित कर वातावरण को शुद्ध रखते हैं।

3 धार्मिक महत्व

बेल पर भगवान शंकर का निवास माना गया है तो पीपल पर विष्णु एवं वट वृक्ष पर ब्रह्मा का। इस प्रकार प्रमुख त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश का पंचवटी में निवास है एवं एक ही स्थल पर तीनो के पूजन का लाभ मेलता है।

4 जैव विविधता संरक्षण

पंचवटी में निरन्तर फल उपलब्ध होने से पक्षियों एवं अन्य जीव जन्तुऒं के लिए सदैव भोजन उपलब्ध रहता है एवं वे इस पर स्थाई निवास करते हैं। पीपल व बरगद कोमल काष्टीय वृक्ष है जो पक्षियॊं के घोसला बनाने के उपयुक्त है 

Tuesday, July 31, 2012

अमर शहीद ऊधम सिंह



अमर शहीद ऊधम सिंह (जन्म- 26 दिसंबर, 1899, सुनाम गाँव, पंजाब; मृत्यु- 31 जुलाई, 1940, पेंटनविले जेल) जलियाँवाला बाग़ में निहत्थों को भूनकर अंग्रेज़ भारत की आज़ादी के दीवानों को सबक सिखाना चाहते थे, जिससे वह ब्रिटिश सरकार से टकराने की हिम्मत न कर सकें, किन्तु इस घटना ने स्वतंत्रता की आग को हवा देकर बढ़ा दिया।
जन्म

ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ। ऊधमसिंह की माता और पिता का साया बचपन में ही उठ गया था। उनके जन्म के दो साल बाद 1901 में उनकी माँ का निधन हो गया और 1907 में उनके पिता भी चल बसे। ऊधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार दुनिया के ज़ुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए।

    इतिहासकार वीरेंद्र शरण के अनुसार ऊधमसिंह इन सब घटनाओं से बहुत दु:खी तो थे, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताक़त बहुत बढ़ गई। उन्होंने शिक्षा ज़ारी रखने के साथ ही आज़ादी की लड़ाई में कूदने का भी मन बना लिया। उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए।

    इतिहासकार डा. सर्वदानंदन के अनुसार ऊधम सिंह 'सर्व धर्म सम भाव' के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आज़ाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है।

स्वतंत्रता आंदोलन में भाग

स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सन् 1919 का 13 अप्रैल का दिन आँसुओं में डूबा हुआ है, जब अंग्रेज़ों ने अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं और सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वालों में माँओं के सीने से चिपके दुधमुँहे बच्चे, जीवन की संध्या बेला में देश की आज़ादी का सपना देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व लुटाए को तैयार युवा सभी थे।

इस घटना ने ऊधमसिंह को हिलाकर रख दिया और उन्होंने अंग्रेज़ों से इसका बदला लेने की ठान ली। हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले 'ऊधम सिंह उर्फ राम मोहम्मद आज़ाद सिंह' ने इस घटना के लिए जनरल माइकल ओ डायर को ज़िम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। गवर्नर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड, एडवर्ड हैरी डायर, जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग़ को चारों तरफ से घेर कर मशीनगन से गोलियाँ चलवाईं।

विदेश की यात्राएं

इस के बाद घटना ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओ डायर को मारकर इस घटना का बदला लेंगे। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए ऊधमसिंह ने अलग अलग नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्राएँ की। सन् 1934 में ऊधमसिंह लंदन गये और वहाँ 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड़ पर रहने लगे। वहाँ उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार ख़रीदी और अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी ख़रीद ली।

प्रतिशोध

भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ डायर को ठिकाने लगाने के लिए सही समय का इंतज़ार करने लगा। ऊधमसिंह को अपने सैकड़ों भाई बहनों की मौत का बदला लेने का मौक़ा 1940 में मिला। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक थी जहाँ माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था। ऊधमसिंह उस दिन समय से पहले ही बैठक स्थल पर पहुँच गए। उन्होंने अपनी रिवाल्वर एक मोटी सी किताब में छिपा ली। उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में इस तरह से काट लिया, जिसमें डायर की जान लेने वाले हथियार को आसानी से छिपाया जा सके।

आत्मसमर्पण

बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियाँ चला दीं। दो गोलियाँ डायर को लगीं, जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी भी घायल हो गए। ऊधमसिंह ने वहाँ से भागने की कोशिश नहीं की और स्वयं को गिरफ़्तार करा दिया। उन पर मुक़दमा चला। अदालत में जब उनसे सवाल किया गया कि 'वह डायर के साथियों को भी मार सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया।' इस पर ऊधमसिंह ने उत्तर दिया कि, वहाँ पर कई महिलाएँ भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। अपने बयान में ऊधमसिंह ने कहा- 'मैंने डायर को मारा, क्योंकि वह इसी के लायक़ था। मैंने ब्रिटिश राज्य में अपने देशवासियों की दुर्दशा देखी है। मेरा कर्तव्य था कि मैं देश के लिए कुछ करूं। मुझे मरने का डर नहीं है। देश के लिए कुछ करके जवानी में मरना चाहिए।'
मृत्यु

4 जून 1940 को ऊधमसिंह को डायर की हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें 'पेंटनविले जेल' में फाँसी दे दी गयी। इस प्रकार यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया। 31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए थे। ऊधमसिंह की अस्थियाँ सम्मान सहित भारत लायी गईं। उनके गाँव में उनकी समाधि बनी हुई है।


Sunday, July 22, 2012

क्या हम उदारीकरण के मिथक रूपी 'कचरा' सोच से बाहर निकल पाएंगे : मानसून और पंचांग

हिन्दू पंचांग के अनुसार श्रावण माह जो भाद्रपद के साथ मिलकर भारत मे मानसून की अवधि का निर्माण करता है, 4 जुलाई को प्रारम्भ हुआ, उसने 5 जुलाई को गर्मी से झुलसे मेरे शहर को बारिश से सराबोर कर दिया। क्या मानसून सही वक़्त पर आया या फिर देरी से, जैसा कि मौसम विभाग विलाप कर रहा था? केंद्रीय कृषि मंत्रालय पसोपेश मे था कि उन किसानों को आश्वस्त कैसे किया जाए जिन्होने खरीफ की फसल की बुआई बहुत जल्दी कर दी थी?

डॉ. के. सी. राजू (जिन्होने भारत के प्रथम सुपर कंप्यूटर परम के निर्माण मे मुख्य भूमिका निभाई तथा जो अल्बर्ट आइन्सटाइन द्वारा की गयी एक गलती को सुधारकर Telesio-Galilei Academy of Science का स्वर्ण पदक प्राप्त कर चुके हैं;) कहते हैं कि मानसून इस वर्ष की भांति ही 2003, 2004, 2006, 2009 और 2010 मे भी ‘देरी’ से आया था। हर बार मानसून ने मौसम विभाग द्वारा जताई गई अकाल की आशंकाओं को गलत सिद्ध किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जिस ग्रेगोरियन कैलेंडर पर हमारी वैज्ञानिक जमात भरोसा करती है, वह कैलेंडर इस तरह की गणना के लायक ही नहीं है। भारत को पहले यह तय करना होगा कि मानसून किस पांचांग पद्धति के आधार पर चलता है- नक्षत्र आधारित पांचांग के अनुसार या सूर्य की कटिबंधीय स्थिति पर आधारित पंचांग (विषुवतीय पांचांग) के अनुसार? सौर वर्ष का तात्पर्य उस कालावधि से, समय से है जो सूर्य द्वारा मौसम चक्र मे एक स्थान से चलकर पुनः उसी स्थान पर आने मे लिया जाता है अर्थात सूर्य द्वारा एक अक्षांश से दूसरे अक्षांश तक पर उसी स्थान पर पहुँचने के मध्य की कालावधि सौर चक्र कहलती है।


प्रचलित ग्रेगोरियन वर्ष की अवधि विषुवतीय अक्षांशों के मध्य अंतर के सटीक मापन के अभाव मे वास्तविक वर्ष (पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा हेतु लिया जाने वाला समय) के बराबर नहीं है। ग्रेगोरियन वर्ष वास्तविक एक वर्ष से लगभग 20 मिनट छोटा है। यह 20 मिनट की अवधि एक लंबे कालखंड मे धीरे धीरे एकत्रित होकर काल गणना मे बहुत बड़ा अंतर पैदा करती है। भारतीय पांचांग नक्षत्र वर्ष पर आधारित है जो कि काल मापन हेतु अधिक सटीक तथा उपयुक्त है क्योंकि सूर्य निश्चित समय पर ही विभिन्न स्थिर नक्षत्रों (उदाहरण-ध्रुव तारा) से होकर गुज़रता है। यह निरीक्षण तथा मापन हेतु आसान है तथा कृषिगत गतिविधियों का समय तय करने हेतु अत्यंत उपयुक्त है।

ग्रेगोरियन कैलेंडर मे सुधार की आवश्यकता इसलिए महसूस की गयी क्योंकि रोमन लोग अंश गणना मे बहुत कमजोर थे अतः उन्होने जूलियन कैलेंडर मे वर्ष की कालावधि बहुत ही अपरिष्कृत रूप से तय कर दी थी। जूलियन कैलेंडर प्रत्येक 128 दिन बाद 1 दिन पीछे हट जाता था। 1582 ईस्वी तक यह 1250 वर्षों में 10 दिन तक खिसक चुका था क्योंकि काउंसिल ऑफ नीशिया ने कैलेंडर पर ईस्टर का दिन तय करने हेतु वसंत के आगमन का दिन 21 मार्च तय कर दिया था। 16 वी शताब्दी के आते आते वसंत आगमन का दिन 21 की बजाय 11 मार्च को
पड़ने लगा। ग्रेगोरियन सुधार समिति ने इस विसंगति को सुधारने हेतु कैलेंडर को 10 दिन आगे खिसका दिया तथा शताब्दी के प्रत्येकवर्ष की बजाय केवल उसी वर्ष को लीप वर्ष घोषित किया जिसमे 400 का भाग दिया जा सकता था। (उदाहरण-सन 2000)। इस तरह ग्रेगोरियन काल गणना विषुवतीय सौर चक्र की गणना के कुछ निकट आ गयी।

चौंकाने वाली बात यह थी कि स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय पांचाग सुधार समिति ने ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपनाया और कहा कि मौसम विषुवतीय वर्ष पर आधारित होता है! ऊपरी तौर पर विषुवतीय वर्ष कई ज्योतिषीय सिद्धांतों यथा सूर्य सिद्धान्त तथा पंचसिद्धान्तिका द्वारा समर्थित प्रतीत होता है किन्तु वास्तव मे उन्हे गलत पढ़ा और समझा गया है। यहाँ तक की वराहमिहिर तथा पंचसिद्धांतिका  के पूर्व आर्यभट्ट ने भी स्पष्ट रूप से नक्षत्र आधारित पांचाग का समर्थन किया है। मार्क्सवादी इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि भारतीय कृषि नक्षत्रों पर आधारित थी।

आधुनिक भारत ने मानसून का गंभीर अध्ययन नहीं किया है, जबकि आज भी अच्छे मानसून का अर्थ है अच्छा व्यापार और सुदृढ़ अर्थव्यवस्था। भारतीय वैज्ञानिक स्वर्गीय श्री मेघनाद साहा मानते थे कि मानसून हेतु तापांतर संतुलन ही मायने रखता है;  सी.के. राजू का मत है कि पवनों के चलने की पद्धति इसका निर्धारक तत्व है। किन्तु वे यह भी कहते हैं कि मानसून निर्धारण के सटीक प्रतिमान स्थापित करने हेतु वृहद स्तर पर अध्ययन की ज़रूरत है। हमारे पूर्वजों ने 5000 पांचाग निर्मित किए थे जिनमे से प्रत्येक पांचांग अपनी अक्षांश स्थिति के अनुसार निर्धारित किया गया था।

(अक्षांश अंतर की वजह से ही दिल्ली की अपेक्षा केरल मे मानसून बहुत पहले आ जाता है) यहाँ अत्यंत मजबूत सांस्कृतिक संदर्भ है कि भारतीय पांचांग वर्षा ऋतु के इर्द-गिर्द घूमता है क्योंकि हमारा वर्ष, वर्षा से संबन्धित है। यह सटीक गणना कृषि के लिए सदैव प्रासंगिक है क्योंकि मानसून आगमन निर्धारण मे ज़रा सि चूक कृषि कार्यों व उत्पादन मे कहर बरपा सकती है। नेहरूवादी विचारधारा की ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ के प्रति अंधभक्ति ने मानसून व ऋतु निर्धारण हेतु गुलामों की तरह ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपनाने पर ज़ोर दिया, यद्यपि सावधानीपूर्ण विश्लेषण यह दर्शाता है कि प्रतिवर्ष मानसून हमारी भारतीय पांचाग पद्धति के अनुसार आता है। फिर भी ‘वैज्ञानिक’ मानसून की ‘देरी’ के विषय मे मिमियाते रहते हैं। इतिहास से सबक लेने हेतु तयार ना होकर उन्होने कृषकों को बर्बाद कर दिया है। हिन्दू पंचांग आधारित कृषि का मूल आधार मानसून है ना कि गर्मी या सर्दी की ऋतुएँ जो यूरोप के लिए प्रासंगिक हो सकती हैं। मानसून पवनों के बहाव पर निर्भर होता है।

पृथ्वी पर पवनों का चलना केवल सूर्य पर आधारित नहीं है। विषुवत रेखा पर गरम हवाएँ ऊपर की ओर उठती हैं किन्तु ध्रुवों की ओर नहीं बढ़ती हैं। पृथ्वी के घूर्णन बल  से उत्पन्न होने वाले बल के फलस्वरूप पवनें अपने रथ को उपोष्ण कटिबन्ध ( उत्तर तथा दक्षिण मे 30 से 35 अक्षांश के मध्य।) अतः मानसून पृथ्वी के घूर्णन बल पर भी निर्भर करता है, जो एक जड़त्वीय बल है। चूंकि संभाव्य जड़त्वीय बल ढांचा नक्षत्रों के प्रति सापेक्ष रूप से निर्धारित है, अतः घूर्णन बल पृथ्वी की नक्षत्र सापेक्षचाल पर आधारित है और इसीलिए मानसून नक्षत्र पंचांग पर निर्भर है। यदि मानसून विषुवतीय पांचांग पर आधारित होता तो विषुवतीय वर्ष तथा नाक्षत्र वर्ष के बीच अंतर की वजह से भारतीय पंचांग गणना गड़बड़ा जाती किन्तु ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ। कृषकों को विषुवतीय पांचांग के चक्कर मे नक्षत्र आधारित मौसम पांचांग त्यागने हेतु विवश करने के लिये नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता तथा कथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने हमारी खाद्य सुरक्षा को ताक पर रख दिया। एक अजीब संयोग है कि आम जनमानस मे कृषि के प्रति चेतना के लुप्त होने के साथ ही विभिन्न पार्टियों के कृषि आधारित चिह्न (गाय-बछड़ा) हल और किसान (जनता लोक दल) के चुनाव चिह्न गायब हो गए। जबकि कमम्युनिस्ट पार्टी का हंसिया विनाश का प्रतीक बन गया। यह तथ्य हमारी राजनीति मे शहरीकरण के प्रति झुकाव रखती सोच तथा अर्थव्यवस्था के प्रति हमारी तुड़ी-मुड़ी विकृत समझ को दर्शाता है। जिसके बुरे परिणाम हमे ग्रसने लगे हैं।

उदारीकरण व वैश्वीकरण के 2 दशकों के पश्चात तथा उद्योग व सेवा क्षेत्रों मे हजारों करोड़ रुपयों की प्रोत्साहन राशि फूंकने के बावजूद ये क्षेत्र विकास को गति देने मे नाकाम रहे हैं, ऊपर से इन्होने देशभर मे रोजगार की उपलब्धता को बाधित ही किया है। देश की अर्थव्यवस्था अच्छे मानसून के लिए हाँफ रही है ताकि वर्तमान की दलदली परिस्थितियों से उबर सके। क्या कम से कम अब हम उदारीकरण के मिथक रूपी उस कचरा सोच से बाहर निकाल पाएंगे जिसके अनुसार कृषि और विकास मे कोई संबंध नहीं है?

Wednesday, July 18, 2012

सभी राजाओं का विवरण

महाभारत के बाद से आधुनिक काल तक के सभी राजाओं का विवरण क्रमवार तरीके से नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है...!

आपको यह जानकर एक बहुत ही आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी होगी कि महाभारत युद्ध के पश्चात् राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ियों ने 1770 वर्ष 11 माह 10 दिन तक राज्य किया था..... जिसका पूरा विवरण इस प्रकार है :
... क्र................... शासक का नाम.......... वर्ष....माह.. दिन

1. राजा युधिष्ठिर (Raja Yudhisthir)..... 36.... 08.... 25
2 राजा परीक्षित (Raja Parikshit)........ 60.... 00..... 00
3 राजा जनमेजय (Raja Janmejay).... 84.... 07...... 23
4 अश्वमेध (Ashwamedh )................. 82.....08..... 22
5 द्वैतीयरम (Dwateeyram )............... 88.... 02......08
6 क्षत्रमाल (Kshatramal)................... 81.... 11..... 27
7 चित्ररथ (Chitrarath)...................... 75......03.....18
8 दुष्टशैल्य (Dushtashailya)............... 75.....10.......24
9 राजा उग्रसेन (Raja Ugrasain)......... 78.....07.......21
10 राजा शूरसेन (Raja Shoorsain).......78....07........21
11 भुवनपति (Bhuwanpati)................69....05.......05
12 रणजीत (Ranjeet).........................65....10......04
13 श्रक्षक (Shrakshak).......................64.....07......04
14 सुखदेव (Sukhdev)........................62....00.......24
15 नरहरिदेव (Narharidev).................51.....10.......02
16 शुचिरथ (Suchirath).....................42......11.......02
17 शूरसेन द्वितीय (Shoorsain II)........58.....10.......08
18 पर्वतसेन (Parvatsain )..................55.....08.......10
19 मेधावी (Medhawi)........................52.....10......10
20 सोनचीर (Soncheer).....................50.....08.......21
21 भीमदेव (Bheemdev)....................47......09.......20
22 नरहिरदेव द्वितीय (Nraharidev II)...45.....11.......23
23 पूरनमाल (Pooranmal)..................44.....08.......07
24 कर्दवी (Kardavi)...........................44.....10........08
25 अलामामिक (Alamamik)...............50....11........08
26 उदयपाल (Udaipal).......................38....09........00
27 दुवानमल (Duwanmal)..................40....10.......26
28 दामात (Damaat)..........................32....00.......00
29 भीमपाल (Bheempal)...................58....05........08
30 क्षेमक (Kshemak)........................48....11........21



इसके बाद ....क्षेमक के प्रधानमन्त्री विश्व ने क्षेमक का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 14 पीढ़ियों ने 500 वर्ष 3 माह 17 दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 विश्व (Vishwa)......................... 17 3 29
2 पुरसेनी (Purseni)..................... 42 8 21
3 वीरसेनी (Veerseni).................. 52 10 07
4 अंगशायी (Anangshayi)........... 47 08 23
5 हरिजित (Harijit).................... 35 09 17
6 परमसेनी (Paramseni)............. 44 02 23
7 सुखपाताल (Sukhpatal)......... 30 02 21
8 काद्रुत (Kadrut)................... 42 09 24
9 सज्ज (Sajj)........................ 32 02 14
10 आम्रचूड़ (Amarchud)......... 27 03 16
11 अमिपाल (Amipal) .............22 11 25
12 दशरथ (Dashrath)............... 25 04 12
13 वीरसाल (Veersaal)...............31 08 11
14 वीरसालसेन (Veersaalsen).......47 0 14

इसके उपरांत...राजा वीरसालसेन के प्रधानमन्त्री वीरमाह ने वीरसालसेन का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 445 वर्ष 5 माह 3 दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 राजा वीरमाह (Raja Veermaha)......... 35 10 8
2 अजितसिंह (Ajitsingh)...................... 27 7 19
3 सर्वदत्त (Sarvadatta)..........................28 3 10
4 भुवनपति (Bhuwanpati)...................15 4 10
5 वीरसेन (Veersen)............................21 2 13
6 महिपाल (Mahipal)............................40 8 7
7 शत्रुशाल (Shatrushaal).....................26 4 3
8 संघराज (Sanghraj)........................17 2 10
9 तेजपाल (Tejpal).........................28 11 10
10 मानिकचंद (Manikchand)............37 7 21
11 कामसेनी (Kamseni)..................42 5 10
12 शत्रुमर्दन (Shatrumardan)..........8 11 13
13 जीवनलोक (Jeevanlok).............28 9 17
14 हरिराव (Harirao)......................26 10 29
15 वीरसेन द्वितीय (Veersen II)........35 2 20
16 आदित्यकेतु (Adityaketu)..........23 11 13

ततपश्चात् प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण इस प्रकार है ..

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 राजा धनधर (Raja Dhandhar)...........23 11 13
2 महर्षि (Maharshi)...............................41 2 29
3 संरछि (Sanrachhi)............................50 10 19
4 महायुध (Mahayudha).........................30 3 8
5 दुर्नाथ (Durnath)...............................28 5 25
6 जीवनराज (Jeevanraj).......................45 2 5
7 रुद्रसेन (Rudrasen)..........................47 4 28
8 आरिलक (Aarilak)..........................52 10 8
9 राजपाल (Rajpal)..............................36 0 0

उसके बाद ...सामन्त महानपाल ने राजपाल का वध करके 14 वर्ष तक राज्य किया। अवन्तिका (वर्तमान उज्जैन) के विक्रमादित्य ने महानपाल का वध करके 93 वर्ष तक राज्य किया। विक्रमादित्य का वध समुद्रपाल ने किया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 372 वर्ष 4 माह 27 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 समुद्रपाल (Samudrapal).............54 2 20
2 चन्द्रपाल (Chandrapal)................36 5 4
3 सहपाल (Sahaypal)...................11 4 11
4 देवपाल (Devpal).....................27 1 28
5 नरसिंहपाल (Narsighpal).........18 0 20
6 सामपाल (Sampal)...............27 1 17
7 रघुपाल (Raghupal)...........22 3 25
8 गोविन्दपाल (Govindpal)........27 1 17
9 अमृतपाल (Amratpal).........36 10 13
10 बालिपाल (Balipal).........12 5 27
11 महिपाल (Mahipal)...........13 8 4
12 हरिपाल (Haripal)..........14 8 4
13 सीसपाल (Seespal).......11 10 13
14 मदनपाल (Madanpal)......17 10 19
15 कर्मपाल (Karmpal)........16 2 2
16 विक्रमपाल (Vikrampal).....24 11 13

टिप : कुछ ग्रंथों में सीसपाल के स्थान पर भीमपाल का उल्लेख मिलता है, सम्भव है कि उसके दो नाम रहे हों।

इसके उपरांत .....विक्रमपाल ने पश्चिम में स्थित राजा मालकचन्द बोहरा के राज्य पर आक्रमण कर दिया जिसमे मालकचन्द बोहरा की विजय हुई और विक्रमपाल मारा गया। मालकचन्द बोहरा की 10 पीढ़ियों ने 191 वर्ष 1 माह 16 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 मालकचन्द (Malukhchand) 54 2 10
2 विक्रमचन्द (Vikramchand) 12 7 12
3 मानकचन्द (Manakchand) 10 0 5
4 रामचन्द (Ramchand) 13 11 8
5 हरिचंद (Harichand) 14 9 24
6 कल्याणचन्द (Kalyanchand) 10 5 4
7 भीमचन्द (Bhimchand) 16 2 9
8 लोवचन्द (Lovchand) 26 3 22
9 गोविन्दचन्द (Govindchand) 31 7 12
10 रानी पद्मावती (Rani Padmavati) 1 0 0

रानी पद्मावती गोविन्दचन्द की पत्नी थीं। कोई सन्तान न होने के कारण पद्मावती ने हरिप्रेम वैरागी को सिंहासनारूढ़ किया जिसकी पीढ़ियों ने 50 वर्ष 0 माह 12 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 हरिप्रेम (Hariprem) 7 5 16
2 गोविन्दप्रेम (Govindprem) 20 2 8
3 गोपालप्रेम (Gopalprem) 15 7 28
4 महाबाहु (Mahabahu) 6 8 29

इसके बाद.......राजा महाबाहु ने सन्यास ले लिया । इस पर बंगाल के अधिसेन ने उसके राज्य पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। अधिसेन की 12 पीढ़ियों ने 152 वर्ष 11 माह 2 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 अधिसेन (Adhisen) 18 5 21
2 विल्वसेन (Vilavalsen) 12 4 2
3 केशवसेन (Keshavsen) 15 7 12
4 माधवसेन (Madhavsen) 12 4 2
5 मयूरसेन (Mayursen) 20 11 27
6 भीमसेन (Bhimsen) 5 10 9
7 कल्याणसेन (Kalyansen) 4 8 21
8 हरिसेन (Harisen) 12 0 25
9 क्षेमसेन (Kshemsen) 8 11 15
10 नारायणसेन (Narayansen) 2 2 29
11 लक्ष्मीसेन (Lakshmisen) 26 10 0
12 दामोदरसेन (Damodarsen) 11 5 19

लेकिन जब ....दामोदरसेन ने उमराव दीपसिंह को प्रताड़ित किया तो दीपसिंह ने सेना की सहायता से दामोदरसेन का वध करके राज्य पर अधिकार कर लिया तथा उसकी 6 पीढ़ियों ने 107 वर्ष 6 माह 22 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 दीपसिंह (Deepsingh) 17 1 26
2 राजसिंह (Rajsingh) 14 5 0
3 रणसिंह (Ransingh) 9 8 11
4 नरसिंह (Narsingh) 45 0 15
5 हरिसिंह (Harisingh) 13 2 29
6 जीवनसिंह (Jeevansingh) 8 0 1

पृथ्वीराज चौहान ने जीवनसिंह पर आक्रमण करके तथा उसका वध करके राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पृथ्वीराज चौहान की 5 पीढ़ियों ने 86 वर्ष 0 माह 20 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 पृथ्वीराज (Prathviraj) 12 2 19
2 अभयपाल (Abhayapal) 14 5 17
3 दुर्जनपाल (Durjanpal) 11 4 14
4 उदयपाल (Udayapal) 11 7 3
5 यशपाल (Yashpal) 36 4 27

विक्रम संवत 1249 (1193 AD) में मोहम्मद गोरी ने यशपाल पर आक्रमण कर उसे प्रयाग के कारागार में डाल दिया और उसके राज्य को अधिकार में ले लिया।

इस जानकारी का स्रोत स्वामी दयानन्द सरस्वती के सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ, चित्तौड़गढ़ राजस्थान से प्रकाशित पत्रिका हरिशचन्द्रिका और मोहनचन्द्रिका के विक्रम संवत1939 के अंक और कुछ अन्य संस्कृत ग्रंथ है।

Monday, July 16, 2012

अभिवादन शीलस्य नित्यं वृधोपसेविन |

अभिवादन शीलस्य नित्यं वृधोपसेविन |

चत्वारि तस्य वर्धन्तॆ आयुर्विद्या यशॊ बलम् ||



अर्थात :- अपने माता पिता , गुरुजन , को नित्य नमस्कार करने वाले , सेवा करने वाले व्यक्तियों के चार गुण सदैव बढ़ते रहते है |

१-आयु

२-यश

३-विद्या

४-बल



अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पुज्यानांच विमानना |

त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम् ||



जहाँ अयोग्य का सम्मान हो , योग्य का तिरस्कार हो वहां तीन घटनाये अवश्य घटित होती है |

१-अकाल

२-आकस्मिक मृत्यु

३-भय का वातावरण

और आज भारत में यह यही हालात है जो किसी से छुपा भी नहीं है ||




आज सामर्थवान हिन्दू को आवश्यकता है की समय समय पर उसे अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते रहना चाहिए | कंही ऐसा ना हो सामर्थवान हिन्दू अपने सामर्थ के गरूर में अपनी शक्ति का प्रयोग करना भूल जाए ||



बिलकुल वैसे ही जैसे भारत के अधिकतर हिन्दुओं ने अपने सामर्थ के गरूर में अपनी शक्ति का प्रयोग करना भुला दिया था और अहिंसा के नाम पर कायर और सेकुलारिजम के नाम पर नपुंसक बन बैठा ||



जब जागो तब सुबह होती है और जब आँखे बंद करो तब अन्धकार ,,

निश्चय करने वालों की ही जीत होती है ||



चाणक्य ने कहा है की जो व्यक्ति निडरता , निश्चय , निति और शौर्य से युद्ध करता है उसकी जीत अवश्य होती है |



गुरु गोविन्द सिंह जी ने भी कहा है :-

देह शिवा वर मोहे, शुभ करमन से कबहूँ ना तरूं;

कबहूँ ना डरूं, जब जाये लडूं , निश्चय कर अपनी जीत करूं



हमारे पडोसी दुश्मन मुल्क पाकिस्तान सहित जितने भी इस्लामिक मुल्क है अधिकतर के पास ४ प्रकार की सेनाये है , जितने भी पश्चिमी देश है उनके पास भी चार प्रकार की सेनाये है लेकिन हमारे पास केवल तीन (३) सेनाये है ||

इस्लामिक और इसाई प्रभुत्तव वाले देशो की चार सेनाये है :-

१-थल सेना

२-नभ सेना

३-जल सेना

४-चर्च यानी इसाइयत और शरियत और इस्लामिक जिहादी |



और इसके विपरीत भारत केवल ३ सेनाओं पर निर्भर है :- जल ,थल ,नभ ||

हार कहाँ पर और कैसे रहे है हम ??

अपने धर्म से विमुख हो कर और अपने धर्म के प्रति असवेदंशील होने पर ||



शूरा सो पह्चनिए, जो लडे दीन के हेत |

पुर्जा पुर्जा कट मरे, कबहूँ ना छाडे खेत ||



अगर इसी तरह हम नपुंसकों और कायरों की भाँती अपना , अपने धर्म का , अपनी सभ्यता , अपनी संस्कृति , अपनी माँ भारती , और माँ भारती के शूरवीर सपूतों का पतन होते खुली आँखों से देखते रहेगे तो एक दिन हमारा अंत निश्चित हो जाएगा ||



उठो , जागो प्रतिकार करो चुप मत रहो क्योकि तुम्हारा चुप रहना माँ भारती और हिंदुत्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है , इस्लामिक और इसाइयत प्रहार से भी बड़ा खतरा तुम्हारा चुप रहना है ||



इंडियन सेकुलर नहीं सनातनी भारतीय बनो , धर्म बचेगा तो राष्ट्र बचेगा नहीं तो भारत में कंही मुग्लिस्तान तो कंही दूसरा पाकिस्तान बनेगा ||



यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||



इस मन्त्र को आत्मसात करो और भगवान् श्री कृष्ण से प्रेरणा लेकर अर्जुन बनो और हर धर्म युद्ध में विजयी होने के लिए अधर्मी , लोभी और सत्ता के दलालों का सर्वनाश करो उनको सही मार्ग पर लाओ भले ही वो तुम्हारे अपने सेकुलर हिन्दू हो या विधर्मी पाकिस्तान परस्त मुस्लिम ||



उठो जवान देश की वसुंधरा पुकारती

देश है पुकारता पुकारती माँ भारती

रगों में तेरे बह रहा है खून राम श्याम का

जगदगुरु गोविंद और राजपूती शान का

तू चल पड़ा तो चल पड़ेगी साथ तेरे भारती

देश है पुकारता पुकारती माँ भारती ||

उठा खडग बढा कदम कदम कदम बढाए जा

कदम कदम पे दुश्मनो के धड़ से सर उड़ाए जा

उठेगा विश्व हांथ जोड़ करने तेरी आरती

देश है पुकारता पुकारती माँ भारती ||

तोड़कर ध्ररा को फोड़ आसमाँ की कालिमा

जगा दे सुप्रभात को फैला दे अपनी लालिमा

तेरी शुभ कीर्ति विश्व संकटों को तारती

देश है पुकारता पुकारती माँ भारती ||

है शत्रु दनदना रहा चहूँ दिशा में देश की

पता बता रही हमें किरण किरण दिनेश की

ओ चक्रवती विश्वविजयी मात्र-भू निहारती

देश है पुकारता पुकरती माँ भारती ||





सार्थक और सकरात्मक सोचो किन्तु नकरात्मक दृष्टि को ताक पर रखकर नहीं क्योकि नकरात्मक दृष्टि ही सकरात्मक सोच को जन्म देती है || जो होने वाला है उसे रोकने के लिए अभी से तैयारी करनी होगी | अन्यथा आगे जाकर देर हो चुकी होगी और पुनः भारत माँ के आँचल के टुकड़े होकर विधर्मियों के पैरों टेल रोंधे जायेगे ||



आगे आओ हे हिन्दू वीरों तुम शूरवीर हो ,, तुम भगवान् श्री राम कृष्ण के वंशज हो , तुम मंगल पांडे , आज़ाद , भगत सिंह ,राजगुरु , सुखदेव के वंसज हो | अपने ऊपर से जयचंद , मानसिंह ,गाँधी , नेहरू और शोभा सिंह जैसे कुकर्मी , अधर्मी और राष्ट्रद्रोही पूर्वजों का कलंक धो डालो ||



उठो आगे बढ़ो ,, माँ भारती तुम्हे पुकार रही है , तुम्हे निहार रही है , तुम्हे ललकार रही है उसकी रक्षा हेतु अपने धर्म का पालन करो , सनातनी बन कर भारत को अखंड भारत में बदल हुतात्मा नाथूराम गोडसे जी की पावन अस्थियों को सिन्धु के जल में प्रवाहित कर सम्पूर्ण ब्रह्मांड को गौर्वान्तित करा दो , बता दो भारत विश्व गुरु था , है और सदैव रहेगा ||

क्यों रखना चाहिए सावन सोमवार के व्रत?


क्यों रखना चाहिए सावन सोमवार के व्रत?
हिन्दू धर्म में सोमवार के दिन व्रत रखने का महत्व बताया गया है। यह शिव उपासना से कामनासिद्धि के लिए प्रसिद्ध है। खासतौर पर शिव भक्ति के विशेष काल सावन माह के सोमवार साल भर के सोमवार व्रतों का पुण्य देने वाले माने गए हैं। किंतु सोमवार व्रत रखने की एक ओर खास वजह भी है, जानिए -
ज्योतिष विज्ञान के मुताबिक यह दिन कुण्डली में चंद्र ग्रह के बुरे योग से जीवन में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए भी अहम है। दरअसल, चंद्र मानव जीवन और प्रकृति पर असर डालता है और चंद्र के बुरे प्रभाव को कम करने के लिए ही सोमवार को चंद्र पूजा और व्रत का महत्व बताया गया है। डालिए चंद्रमा के होने वाले प्रभावों पर एक नजर -
विज्ञान के मुताबिक पृथ्वी समेत अन्य सभी ग्रह सूर्य के चक्कर लगाते हैं। वहीं चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है, क्योंकि वह ग्रह न होकर एक उपग्रह है। व्यावहारिक जीवन म...ें भी हम देखते हैं कि चन्द्रमा मानव जीवन के साथ-साथ साथ-साथ पूरे जगत पर ही प्रभाव डालता है। इसका प्रमाण है पूर्णिमा की रात जब चन्द्रमा पूर्ण आकार में दिखाई देता है, तब समुद्र में आता है ज्वार। वहीं जब अमावस्या के आस-पास चन्द्रमा अदृश्य होता है, तब समुद्र पूरी तरह शांत रहता है। इस प्रकार आकाश में चन्द्रमा के आकार घटने-बढऩे के साथ-साथ पानी और अन्य तरल पदार्थों में हलचल भी कम-ज्यादा होने लगती है।
ज्योतिष विज्ञान कहता है कि चन्द्रमा हमारी पृथ्वी के सबसे नजदीक है और अपनी निकटता के कारण ही हमारे जीवन के हर कार्य व्यवहार पर सबसे अधिक असर डालता है। यही वजह है कि जिन लोगों में जल तत्व की प्रधानता होती है, वे पूर्णिमा ,के आस-पास, अधिक आक्रामक, क्रोधित, और उद्दण्ड, बने रहते हैं। जबकि, अमावस्या ,के आस-पास एकदम, शांत और, गंभी,र देखे जाते हैं।
खासतौर पर जलतत्व राशि जैसे मीन, कर्क, वृश्चिक वाले स्त्री-पुरुषों को सोमवार का व्रत और चन्द्रदेव का पूजन तो जरूर करना ही चाहिए। मानसिक शांति, मन की चंचलता को रोकने और दिमाग को संतुलित रखने के लिए तो चन्द्रदेव के निमित्त किए जाने वाला सोमवार का व्रत ही श्रेष्ठ उपाय है। चंद्रदोष शांत के लिए स्फटिक की माला पहनना तथा मोती का धारण करना शुभ होता है।
धार्मिक दृष्टि से चूंकि शास्त्रों में भगवान शिव चन्द्रमौलेश्वर यानी दूज के चांद को मस्तक पर धारण करने वाले बताए गए हैं। शिव कृपा से ही चंद्रदेव ने फिर से सौंदर्य को पाया। इसलिए सोमवार को व्रत रख शिव पूजा से चंद्र पूजा होने के साथ चंद्र दोष और रोग भी दूर हो जाते हैं। 

Sunday, July 15, 2012


नाडी परीक्षा नाडी परीक्षा के बारे में शारंगधर
संहिता ,भावप्रकाश ,योगरत्नाकर
आदि ग्रंथों में वर्णन है .महर्षि सुश्रुत
अपनी योगिक शक्ति से समस्त शरीर
की सभी नाड़ियाँ देख सकते थे .ऐलोपेथी में
तो पल्स सिर्फ दिल की धड़कन का पता लगाती है ; पर ये इससे कहीं अधिक
बताती है .आयुर्वेद में पारंगत वैद्य
नाडी परीक्षा से रोगों का पता लगाते है . इससे
ये पता चलता है की कौनसा दोष शरीर में
विद्यमान है .ये बिना किसी महँगी और
तकलीफदायक डायग्नोस्टिक तकनीक के बिलकुल सही निदान करती है . जैसे
की शरीर में कहाँ कितने साइज़ का ट्यूमर है ,
किडनी खराब है या ऐसा ही कोई भी जटिल
से जटिल रोग का पता चल जाता है .दक्ष वैद्य
हफ्ते भर पहले क्या खाया था ये भी बता देतें
है .भविष्य में क्या रोग होने की संभावना है ये भी पता चलता है . - महिलाओं का बाया और पुरुषों का दाया हाथ
देखा जाता है . - कलाई के अन्दर अंगूठे के नीचे जहां पल्स
महसूस होती है तीन उंगलियाँ रखी जाती है . - अंगूठे के पास की ऊँगली में वात , मध्य
वाली ऊँगली में पित्त और अंगूठे से दूर
वाली ऊँगली में कफ महसूस
किया जा सकता है . - वात की पल्स अनियमित और मध्यम तेज
लगेगी . - पित्त की बहुत तेज पल्स महसूस होगी . - कफ की बहुत कम और धीमी पल्स महसूस
होगी . - तीनो उंगलियाँ एक साथ रखने से हमें ये
पता चलेगा की कौनसा दोष अधिक है . - प्रारम्भिक अवस्था में ही उस दोष को कम
कर देने से रोग होता ही नहीं . - हर एक दोष की भी ८ प्रकार की पल्स
होती है ; जिससे रोग का पता चलता है , इसके
लिए अभ्यास की ज़रुरत होती है . - कभी कभी २ या ३ दोष एक साथ हो सकते है . - नाडी परीक्षा अधिकतर सुबह उठकर आधे
एक घंटे बाद करते है जिससरे हमें
अपनी प्रकृति के बारे में पता चलता है . ये भूख-
प्यास , नींद , धुप में घुमने , रात्री में टहलने
से ,मानसिक स्थिति से , भोजन से , दिन के
अलग अलग समय और मौसम से बदलती है . - चिकित्सक को थोड़ा आध्यात्मिक और
योगी होने से मदद मिलती है . सही निदान
करने वाले नाडी पकड़ते ही तीन सेकण्ड में दोष
का पता लगा लेते है .वैसे ३० सेकण्ड तक
देखना चाहिए . - मृत्यु नाडी से कुशल वैद्य भावी मृत्यु के बारे में
भी बता सकते है . - आप किस प्रकृति के है ? --वात प्रधान ,
पित्त प्रधान या कफ प्रधान या फिर
मिश्र ? खुद कर के देखे या किसी वैद्य(B.A.M.S DOCTOR) से
पता कर देखिये 

Saturday, July 14, 2012

कामिका एकादशी

आज श्रावण महीने के कृष्ण पक्ष की ग्यारहवीं तिथि है , इसे कामिका एकादशी कहते हैं , आज के व्रत की कथा इस प्रकार है :-


युधिष्ठिर ने पूछा: गोविन्द ! वासुदेव ! आपको मेरा नमस्कार है ! श्रावण के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? कृपया उसका वर्णन कीजिये ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले: राजन् ! सुनो । मैं तुम्हें एक पापनाशक उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसे पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नारदजी के पूछने पर कहा था ।

नारदजी ने प्रश्न किया: हे भगवन् ! हे कमलासन ! मैं आपसे यह सुनना चाहता हूँ कि श्रवण के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? उसके देवता कौन हैं तथा उससे कौन सा पुण्य होता है? प्रभो ! यह सब बताइये ।

ब्रह्माजी ने कहा: नारद ! सुनो । मैं सम्पूर्ण लोकों के हित की इच्छा से तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ । श्रावण मास में जो कृष्णपक्ष की एकादशी होती है, उसका नाम ‘कामिका’ है । उसके स्मरणमात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है । उस दिन श्रीधर, हरि, विष्णु, माधव और मधुसूदन आदि नामों से भगवान का पूजन करना चाहिए ।

भगवान श्रीकृष्ण के पूजन से जो फल मिलता है, वह गंगा, काशी, नैमिषारण्य तथा पुष्कर क्षेत्र में भी सुलभ नहीं है । सिंह राशि के बृहस्पति होने पर तथा व्यतीपात और दण्डयोग में गोदावरी स्नान से जिस फल की प्राप्ति होती है, वही फल भगवान श्रीकृष्ण के पूजन से भी मिलता है ।

जो समुद्र और वनसहित समूची पृथ्वी का दान करता है तथा जो ‘कामिका एकादशी’ का व्रत करता है, वे दोनों समान फल के भागी माने गये हैं ।

जो ब्यायी हुई गाय को अन्यान्य सामग्रियों सहित दान करता है, उस मनुष्य को जिस फल की प्राप्ति होती है, वही ‘कामिका एकादशी’ का व्रत करनेवाले को मिलता है । जो नरश्रेष्ठ श्रावण मास में भगवान श्रीधर का पूजन करता है, उसके द्वारा गन्धर्वों और नागों सहित सम्पूर्ण देवताओं की पूजा हो जाती है ।

अत: पापभीरु मनुष्यों को यथाशक्ति पूरा प्रयत्न करके ‘कामिका एकादशी’ के दिन श्रीहरि का पूजन करना चाहिए । जो पापरुपी पंक से भरे हुए संसार समुद्र में डूब रहे हैं, उनका उद्धार करने के लिए ‘कामिका एकादशी’ का व्रत सबसे उत्तम है । अध्यात्म विधापरायण पुरुषों को जिस फल की प्राप्ति होती है, उससे बहुत अधिक फल ‘कामिका एकादशी’ व्रत का सेवन करनेवालों को मिलता है ।
‘कामिका एकादशी’ का व्रत करनेवाला मनुष्य रात्रि में जागरण करके न तो कभी भयंकर यमदूत का दर्शन करता है और न कभी दुर्गति में ही पड़ता है ।

लालमणि, मोती, वैदूर्य और मूँगे आदि से पूजित होकर भी भगवान विष्णु वैसे संतुष्ट नहीं होते, जैसे तुलसीदल से पूजित होने पर होते हैं । जिसने तुलसी की मंजरियों से श्रीकेशव का पूजन कर लिया है, उसके जन्मभर का पाप निश्चय ही नष्ट हो जाता है ।

या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी
रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्तान्तकत्रासिनी ।
प्रत्यासत्तिविधायिनी भगवत: कृष्णस्य संरोपिता
न्यस्ता तच्चरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नम: ॥

‘जो दर्शन करने पर सारे पापसमुदाय का नाश कर देती है, स्पर्श करने पर शरीर को पवित्र बनाती है, प्रणाम करने पर रोगों का निवारण करती है, जल से सींचने पर यमराज को भी भय पहुँचाती है, आरोपित करने पर भगवान श्रीकृष्ण के समीप ले जाती है और भगवान के चरणों मे चढ़ाने पर मोक्षरुपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवी को नमस्कार है ।’

जो मनुष्य एकादशी को दिन रात दीपदान करता है, उसके पुण्य की संख्या चित्रगुप्त भी नहीं जानते । एकादशी के दिन भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख जिसका दीपक जलता है, उसके पितर स्वर्गलोक में स्थित होकर अमृतपान से तृप्त होते हैं । घी या तिल के तेल से भगवान के सामने दीपक जलाकर मनुष्य देह त्याग के पश्चात् करोड़ो दीपकों से पूजित हो स्वर्गलोक में जाता है ।’

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: युधिष्ठिर ! यह तुम्हारे सामने मैंने ‘कामिका एकादशी’ की महिमा का वर्णन किया है । ‘कामिका’ सब पातकों को हरनेवाली है, अत: मानवों को इसका व्रत अवश्य करना चाहिए । यह स्वर्गलोक तथा महान पुण्यफल प्रदान करनेवाली है । जो मनुष्य श्रद्धा के साथ इसका माहात्म्य श्रवण करता है, वह सब पापों से मुक्त हो श्रीविष्णुलोक में जाता है ।ॐ ॐ

वायु मुद्रा



परिचय-

संसार में किसी भी प्राणी को अगर कुछ दिन तक भोजन या पानी न दिया जाए तो वो कुछ भी करके कुछ दिन तक ज़िंदा रह सकता है। लेकिन अगर संसार में हवा न हो तो किसी भी प्राणी के लिए एक मिनट भी सांस लेना मुश्किल होता है। आयुर्वेद के मुताबिक वात, पित्त और कफ अगर शरीर में संतुलित रहता है तो शरीर बिल्कुल स्वस्थ रहता है जैसे ही ये तीनों असंतुलित होते है तो शरीर में रोग पैदा हो जाते हैं। जब वायु शरीर में समा जाती है तब ही शरीर स्वस्थ रहता है। अच्छे स्वास्थ्य और शांति के लिए शरीर के अंदर वायु का संतुलन होना जरूरी है। आयुर्वेद के मुताबिक शरीर के अंदर 84 तरह की वायु है। वायु चंचलता की निशानी है। वायु की विकृति मन की चंचलता को बढ़ाती है। मन को एक ही जगह स्थिर रखने में वायु-मुद्रा का इस्तेमाल किया जाता है।

मुद्रा बनाने का तरीका-

अपने हाथ की तर्जनी उंगली को मोड़कर अंगूठे की जड़ में लगाने से वायु मुद्रा बन जाती है। हाथ की बाकी सारी उंगलियां बिल्कुल सीधी रहनी चाहिए।

आसन-

वायु-मुद्रा में वज्रासन की तरह दोनों पैरों के घुटनों को मोड़कर बैठ जाएं। लेकिन रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी रहनी चाहिए और दोनो पैर अंगूठे के आगे से मिले रहने चाहिए। एड़िया सटी रहें। नितम्ब का भाग एड़ियों पर टिकाना लाभकारी होता है। जिन लोगों को भोजन न पचने का या गैस का रोग हो उनको भोजन करने के बाद 5 मिनट तक आसन के साथ इस मुद्रा को करना चाहिए।

लाभकारी-

वायु मुद्रा का इस्तेमाल करने से ध्यान में मन की चंचलता कम होती है। प्राण वायु सुषुम्णा नाड़ी में बहने लगती है।
इस मुद्रा को करने से गठिया, साइटिका, गैस का दर्द और लकवा आदि रोग दूर होते हैं।
वायु मुद्रा के रोजाना इस्तेमाल से शरीर में गैस के कारण होने वाला दर्द समाप्त हो जाता है।
इस मुद्रा को करने से घुटनों और जोड़ों में होने वाला दर्द समाप्त हो जाता है। कमर, रीढ़ और शरीर के दूसरे भागों में होने वाला दर्द भी धीरे-धीरे दूर हो जाता है।
वायु मुद्रा से गर्दन में होने वाला दर्द कुछ ही समय में चला जाता है।
वायु मुद्रा के और अच्छे परिणाम पाने के लिए इसको करने के बाद प्राणायाम करें।

विशेष-

एक्यूप्रेशर चिकित्सा के मुताबिक हाथ की तर्जनी उंगली में रीढ़ की हड्डी के खास दाब बिंदु है। इनको दबाने से रीढ़ की हड्डी के सारे रोग दूर हो जाते है और रीढ़ की हड्डी मजबूत हो जाती है। अंगूठें की जड़ में जहां तर्जनी उंगली को रखतें है वहां गले के खास भागों के संवादी बिंदु है। इनके दबाव से पूरा शरीर संतुलित और स्वस्थ होता है। इसके असर से व्यक्ति की पर्सनेलटी में चमक आती है।

सावधानियां-

इस मुद्रा को करने से शरीर का दर्द कम हो जाता है इसलिए व्यक्ति सोचता है कि इस मुद्रा को ज्यादा से ज्यादा करें लेकिन इसको ज्यादा करने से लाभ की बजाय हानि हो सकती है।
वायु मुद्रा को करने से जब दर्द हल्का हो जाए या वायु कम हो जाए तो इस मुद्रा को करना बंद कर देना चाहिए।

प्राण मुद्रा एक अत्यधिक महत्वूर्ण मुद्रा है| रहस्यमय है जिसके संबंध में ऋषि-मुनियों ने अनन्तकाल तक तप, स्वाध्याय एवं आत्मसाधना करते हुए कई महत्वपूर्ण अनुसंधान किए हैं| इसका अभ्यास प्रारंभ करते ही मानो शरीर में प्राण शक्ति को तीव्रता से उत्पन्न करनेवाला डायनमो चलने लगता है| फिर ज्यों-ज्यों प्राण शक्ति रूपी बिजली शरीर की बैटरी को चार्ज करने लगता है, त्यों-त्यों चेतना का अनुभव होने लगता है| प्राण शक्ति का संचार करनेवाली इस मुद्रा के अभ्यास से व्यक्ति शारीरिक व मानसिक दृष्टि से शक्तिशाली बन जाता है|

• ज्योतिष के हिसाब से सूर्य की अंगुली अनामिका समस्त विटामिन और प्राण शक्ति का केंद्र मानी जाती है| बुध की उंगली कनिष्ठिका युवा शक्ति व कुमारावस्था का प्रतिनिधित्व करती है अर्थात् इस मुद्रा में सूर्य-बुध की उंगलियों का अग्नि (तेज) के प्रतीक अंगूठे के साथ महत्वपूर्ण प्रयोग है| इस मुद्रा के अभ्यास से जीवन और बुध रेखा के दोष दूर होते हैं| शुक्र के अविकसित पर्वत का विकास होने लगता है|

इस मुद्रा में पृथ्वी तत्व के प्रतीक अनामिका व जल तत्व की प्रतीक कनिष्ठिका का अंगूठे अर्थात् अग्नि तत्व से मिलन होता है| इसके परिणामस्वरूप न केवल शरीर में प्राण शक्ति का संचार तेज होता है बल्कि रक्त संचार उन्नत होने से रक्त नलिकाओं की रुकावट होती है तन-मन में नवस्फूर्ति, आशा एवं उत्साह उत्पन्न होता है| यदि योग-साधना या महीनों लम्बी तपस्या के दौरान अन्न-जल न लेने से अत्यंत कृशता या कमजोरी महसूस हो रही हो तो ऐसी स्थिति में प्राण मुद्रा करने से साधक को भूख-प्यास की तीव्रता नहीं सताती| कुल मिलाकर यह मुद्रा समस्त गड़बड़ियां दूर करके शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास में सहायता करनेवाली है|

आरती क्यों और कैसे?

आरती क्यों और कैसे?

पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।

एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7]में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।

कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।

यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।

जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।

नारियल- आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।

सोना- ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है।

यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है।

तांबे का पैसा- तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।

सप्तनदियोंका जल-गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरीऔर नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी। सुपारी और पान- यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देते हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेलभी कहते हैं।

नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।

तुलसी-आयुर्र्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।

Thursday, July 12, 2012

अण्डा जहर है




भारतीय जनता की संस्कृति और स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने का यह एक विराट षडयंत्र है। अंडे के भ्रामक प्रचार से आज से दो-तीन दशक पहले जिन परिवारों को रास्ते पर पड़े अण्डे के खोल के प्रति भी ग्लानि का भाव था, इसके विपरीत उन परिवारों में आज अंडे का इस्तेमाल सामान्य बात हो गयी है।

अंडे अपने अवगुणों से हमारे शरीर के जितने ज़्यादा हानिकारक और विषैले हैं उन्हें प्रचार माध्यमों द्वारा उतना ही अधिक फायदेमंद बताकर इस जहर को आपका भोजन बनानो की साजिश की जा रही है।

अण्डा शाकाहारी नहीं होता लेकिन क्रूर व्यावसायिकता के कारण उसे शाकाहारी सिद्ध किया जा रहा है। मिशिगन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने पक्के तौर पर साबित कर दिया है कि दुनिया में कोई भी अण्डा चाहे वह सेया गया हो या बिना सेया हुआ हो, निर्जीव नहीं होता। अफलित अण्डे की सतह पर प्राप्त इलैक्ट्रिक एक्टिविटी को पोलीग्राफ पर अंकित कर वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया है कि अफलित अण्डा भी सजीव होता है। अण्डा शाकाहार नहीं, बल्कि मुर्गी का दैनिक (रज) स्राव है।

यह सरासर गलत व झूठ है कि अण्डे में प्रोटीन, खनिज, विटामिन और शरीर के लिए जरूरी सभी एमिनो एसिडस भरपूर हैं और बीमारों के लिए पचने में आसान है।

शरीर की रचना और स्नायुओं के निर्माण के लिए प्रोटीन की जरूरत होती है। उसकी रोजाना आवश्यकता प्रति कि.ग्रा. वजन पर 1 ग्राम होती है यानि 60 किलोग्राम वजन वाले व्यक्ति को प्रतिदिन 60 ग्राम प्रोटीन की जरूरत होती है जो 100 ग्राम अण्डे से मात्र 13.3 ग्राम ही मिलता है। इसकी तुलना में प्रति 100 ग्राम सोयाबीन से 43.2 ग्राम, मूँगफली से 31.5 ग्राम, मूँग और उड़द से 24, 24 ग्राम तथा मसूर से 25.1 ग्राम प्रोटीन प्राप्त होता है। शाकाहार में अण्डा व मांसाहार से कहीं अधिक प्रोटीन होते हैं। इस बात को अनेक पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने प्रमाणित किया है।

केलिफोर्निया के डियरपार्क में सेंट हेलेना हॉस्पिटल के लाईफ स्टाइल एण्ड न्यूट्रिशन प्रोग्राम के निर्देशक डॉ. जोन ए. मेक्डूगल का दावा है कि शाकाहार में जरूरत से भी ज्यादा प्रोटीन होते हैं।

1972 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के ही डॉ. एफ. स्टेर ने प्रोटीन के बारे में अध्ययन करते हुए प्रतिपादित किया कि शाकाहारी मनुष्यों में से अधिकांश को हर रोज की जरूरत से दुगना प्रोटीन अपने आहार से मिलता है। 200 अण्डे खाने से जितना विटामिन सी मिलता है उतना विटामिन सी एक नारंगी (संतरा) खाने से मिल जाता है। जितना प्रोटीन तथा कैल्शियम अण्डे में हैं उसकी अपेक्षा चने, मूँग, मटर में ज्यादा है।

ब्रिटिश हेल्थ मिनिस्टर मिसेज एडवीना क्यूरी ने चेतावनी दी कि अण्डों से मौत संभावित है क्योंकि अण्डों में सालमोनेला विष होता है जो कि स्वास्थ्य की हानि करता है। अण्डों से हार्ट अटैक की बीमारी होने की चेतावनी नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकन डॉ. ब्राउन व डॉ. गोल्डस्टीन ने दी है क्योंकि अण्डों में कोलेस्ट्राल भी बहुत पाया जाता है.

डॉ. पी.सी. सेन, स्वास्थ्य मंत्रालय, भारत सरकार ने चेतावनी दी है कि अण्डों से कैंसर होता है क्योंकि अण्डों में भोजन तंतु नहीं पाये जाते हैं तथा इनमें डी.डी.टी. विष पाया जाता है।

जानलेवा रोगों की जड़ हैः अण्डा। अण्डे व दूसरे मांसाहारी खुराक में अत्यंत जरूरी रेशातत्त्व (फाईबर्स) जरा भी नहीं होते हैं। जबकि हरी साग, सब्जी, गेहूँ, बाजरा, मकई, जौ, मूँग, चना, मटर, तिल, सोयाबीन, मूँगफली वगैरह में ये काफी मात्रा में होते हैं।

अमेरिका के डॉ. राबर्ट ग्रास की मान्यता के अनुसार अण्डे से टी.बी. और पेचिश की बीमारी भी हो जाती है। इसी तरह डॉ. जे. एम. विनकीन्स कहते हैं कि अण्डे से अल्सर होता है।

मुर्गी के अण्डों का उत्पादन बढ़े इसके लिये उसे जो हार्मोन्स दिये जाते हैं उनमें स्टील बेस्टेरोल नामक दवा महत्त्वपूर्ण है। इस दवावाली मुर्गी के अण्डे खाने से स्त्रियों को स्तन का कैंसर, हाई ब्लडप्रैशर, पीलिया जैसे रोग होने की सम्भावना रहती है। यह दवा पुरूष के पौरूषत्व को एक निश्चित अंश में नष्ट करती है। वैज्ञानिक ग्रास के निष्कर्ष के अनुसार अण्डे से खुजली जैसे त्वचा के लाइलाज रोग और लकवा भी होने की संभावना होती है।

अण्डे के गुण-अवगुण का इतना सारा विवरण पढ़ने के बाद बुद्धिमानों को उचित है कि अनजानों को इस विष के सेवन से बचाने का प्रयत्न करें। उन्हें भ्रामक प्रचार से बचायें। संतुलित शाकाहारी भोजन लेने वाले को अण्डा या अन्य मांसाहारी आहार लेने की कोई जरूरत नहीं है। शाकाहारी भोजन सस्ता, पचने में आसान और आरोग्य की दृष्टि से दोषरहित होता है। कुछ दशक पहले जब भोजन में अण्डे का कोई स्थान नहीं था तब भी हमारे बुजुर्ग तंदरूस्त रहकर लम्बी उम्र तक जीते थे। अतः अण्डे के उत्पादकों और भ्रामक प्रचार की चपेट में न आकर हमें उक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर ही अपनी इस शाकाहारी आहार संस्कृति की रक्षा करनी होगी।

आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः।

1981 में जामा पत्रिका में एक खबर छपी थी। उसमें कहा गया था कि शाकाहारी भोजन 60 से 67 प्रतिशत हृदयरोग को रोक सकता है। उसका कारण यह है कि अण्डे और दूसरे मांसाहारी भोजन में चर्बी ( कोलेस्ट्राल) की मात्रा बहुत ज्यादा होती है।

केलिफोर्निया की डॉ. केथरीन निम्मो ने अपनी पुस्तक हाऊ हेल्दीयर आर एग्ज़ में भी अण्डे के दुष्प्रभाव का वर्णन किया गया है।

वैज्ञानिकों की इन रिपोर्टों से सिद्ध होता है कि अण्डे के द्वारा हम जहर का ही सेवन कर रहे हैं। अतः हमको अपने-आपको स्वस्थ रखने व फैल रही जानलेवा बीमारीयों से बचने के लिए ऐसे आहार से दूर रहने का संकल्प करना चाहिए व दूसरों को भी इससे बचाना चाहिए।

Wednesday, July 11, 2012

विद्यार्थी-जीवनमें प्रार्थनाका महत्त्व

बालको, विद्यार्थी-जीवनमें प्रार्थनाका महत्त्व समझ लें !

‘प्रार्थना, अर्थात देवताकी शरण जाकर अपनी कामनापूर्तिके लिए याचना करना । प्रार्थनासे देवताके आशीर्वाद, शक्ति एवं चैतन्यका लाभ मिलता है । प्रार्थनाके कारण चिंताएं न्यून होती हैं, देवताके प्रति श्रद्धा बढती है तथा मन एकाग्र होता है । प्रार्थनासे अनिष्ट शक्तियोंसे रक्षा भी होती है ।
प्रार्थनाओंके कुछ उदाहरण
प्रात: समय की जानेवाली प्रार्थना
करदर्शन : दोनों हाथोंकी अंजुलि बनाकर उसपर मन एकाग्र कर निम्न श्लोक बोलें -
कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती ।
करमूले तु गोविंदः प्रभाते करदर्शनम् ।।
अर्थ : हाथके अग्रभागमें लक्ष्मी वास करती हैं । हाथके मध्यभागमें सरस्वती हैं एवं मूल भागमें गोविंद हैं; इसलिए सुबह उठते ही हाथोंके दर्शन लें ।
उपरोक्त श्लोक बोलनेके उपरांत धरती मांको निम्न प्रकारसे प्रार्थना कर भूमिपर चरण रखें ।
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमंडले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ।।
अर्थ : समुद्ररूपी वस्त्र धारण करनेवाली, पर्वतरूपी स्तनयुक्त एवं भगवान श्रीविष्णुकी पत्नी, हे पृथ्वीदेवी, मैं आपको नमस्कार करता हूं । आपको मेरे पैरोंका स्पर्श होगा, इसलिए आप मुझे क्षमा करें ।
भूमिको प्रार्थना कर, ‘समुद्रवसने देवी...’ श्लोक बोलकर भूमिपर पैर रखनेसे रात्रिके समय तमोगुणसे दूषित देहमें प्रवाहित कष्टदायक स्पंदनोंका भूमिमें विसर्जन होनेमें सहायता होती है ।’
स्नानसे पूर्व जलदेवतासे की जानेवाली प्रार्थना
हे जलदेवता, आपके पवित्र जलसे मेरे स्थूलदेहके चारों ओर आया रज-तमका काला आवरण नष्ट होने दें । बाह्यशुद्धि समान मेरा अंतर्मन भी स्वच्छ एवं निर्मल होने दें ।
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिंधु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ।।
अर्थ : हे गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु एवं कावेरी, आप समस्त नदियां मेरे स्नानके जलमें आएं ।
भोजन करते समय निम्न प्रकारसे प्रार्थना कर श्लोक बोलें -
प्रार्थना : ‘हे भगवान, इस अन्नको मैं आपका प्रसाद मानकर ही ग्रहण कर रहा / रही हूं । इस प्रसादसे मुझे शक्ति एवं चैतन्य मिलने दें ।’
अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकरप्राणवल्लभे ।
ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति ।।
अर्थ : अन्नसे पूर्ण, सदा परिपूर्ण रहनेवाली, शंकरको प्रिय, हे पार्वतीमाता, ज्ञान, वैराग्य एवं सिद्धिके लिए हमें भिक्षा दो ।
सायंकालमें की जानेवाली प्रार्थना
सायंकालमें पूजाघर, देवता एवं तुलसीके समीप दीपक जलाकर श्लोक बोलें ।
‘शुभं करोतु कल्याणं आरोग्यं सुखसंपदाम् ।
मम बुद्धिप्रकाशं च दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते ।।’
अर्थ : हमारा शुभ करनेवाली, कल्याण करनेवाली, हमें आरोग्य एवं सुखसंपदा प्रदान कर, बुद्धिको शुद्ध करनेवाली हे दीपज्योति, आपको हमारा नमस्कार है ।
इस श्लोकद्वारा दीपककी स्तुतिसे अनिष्ट शक्तियोंको भगानेका कार्य किया जाता है ।’
स्तोत्रपाठसे निर्माण होनेवाले सात्त्विक स्पदंनोंसे घरकी शुद्धि होती है । इससे अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट भी न्यून होता है ।
रात्रि सोनेसे पूर्व की जानेवाली प्रार्थना
संपूर्ण दिनमें किए समस्त कर्मोंको ईश्वरको अर्पण कर, उनके चरणोंमें कृतज्ञता व्यक्त करें । इसीके साथ अनिष्ट शक्तियोंसे संरक्षणहेतु अपने चारों ओर सुरक्षाकवच निर्माण होनेके लिए प्रार्थना करें ।
पढाई करते समय की जानेवाली प्रार्थना
पढाई आरंभ करनेसे पूर्व मन ही मन श्रीगणेश-वंदना एवं प्रार्थना करें, ‘हे श्रीगणेश, आप विघ्नहर्ता एवं बुद्धिदाता हैं । मेरी पढाईमें सर्व प्रकारकी बाधाओं को दूर करनेकी कृपा करें । मेरी पढाई अच्छी होनेके लिए आप मुझे सुबुद्धि एवं शक्ति प्रदान करें ।’
तदुपरांत मन ही मन श्री सरस्वती-वंदना एवं प्रार्थना करें, ‘श्री शारदादेवी, आप साक्षात विद्याकी देवी हैं । मेरी पढाई अच्छी होनेके लिए आप मेरा मार्गदर्शन करें ।
पढाई पूर्ण होनेपर कृतज्ञता व्यक्त करें - ‘हे ईश्वर आपकी कृपासे ही पढाई योग्य ढंगसे हो पाई ।

Tuesday, July 10, 2012

भगवान श्री राम के वंश का विवरण :


भगवान श्री राम के वंश का विवरण :

हिंदू धर्म में राम को विष्णु का सातवाँ अवतार माना जाता है। वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे - इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था। जैन धर्म के तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे। मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र, रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी। रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है:

ब्रह्माजी से मरीचि हुए.
मरीचि के पुत्र कश्यप हुए.
कश्यप के पुत्र विवस्वान थे.
विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए. वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था.
वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।
इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए.
कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था.
विकुक्षि के पुत्र बाण हुए.
बाण के पुत्र अनरण्य हुए.
अनरण्य से पृथु हुए.
पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ.
त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए.
धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था.
युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए.
मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ.
सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित.
ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए।
भरत के पुत्र असित हुए.
असित के पुत्र सगर हुए.
सगर के पुत्र का नाम असमंज था.
असमंज के पुत्र अंशुमान हुए.
अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए.
दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतरा था.
भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे.
ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए. रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब राम के कुल को रघुकुल भी कहा जाता है।
रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए.
प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे.
शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए.
सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था.
अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए.
शीघ्रग के पुत्र मरु हुए.
मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे.
प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए.
अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था.
नहुष के पुत्र ययाति हुए.
ययाति के पुत्र नाभाग हुए.
नाभाग के पुत्र का नाम अज था.
अज के पुत्र दशरथ हुए.
दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए. इस प्रकार ब्रम्हा की उन्चालिसवी पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ ll

Monday, July 9, 2012

भोलेनाथ

कल्याण और विश्वास के प्रतीक भोलेनाथ आशुतोष शिव की परम साधना के श्रावण मास की चतुर्दशी को जलाभिषेक का विशेष महत्व है। कांवड़ देश के अनगिनत स्थानों पर स्थित शिवलिंगों पर चढ़ाई जाती है। इसका उद्देश्य देवाधिदेव महादेव को प्रसन्न करना है।
घर से जब कावड़ियाँ संकल्प उठाता है तभी से उसका ‘कावड़’ प्रारम्भ हो जाता है। कई कावड़िये तो गोमुख तक भी जाते है। वहाँ गंगा स्नान करके अपने तन-मन को पवित्र बनाकर, भभूत लपेट कर, पवित्र-घट में संकल्पपूर्वक गंगा-जल भरकर उसकी पूजा करते हैं। फिर ‘हर हर महादेव’ का जयकारा लगाकर ‘कावड़’ उठा लेते हैं। हर कावड़िया एक तपस्वी होता है, अतः उसे तपस्वी के कठोर नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। सबसे पहले भगवान शंकर को ‘कावड़’ किसने चढ़ाया यह तो एक रहस्य ही है। परन्तु पुराणों और लौकिक कथाओं के माध्यम से पता चलता है कि जिस समय सुर-असुर मिलकर उदधि मन्थन कर रहे थे उसी समय महाकाल की ज्वाला जैसा धधकता हुआ हलाहल विष प्रकट हुआ। उस काले कालकूट से हर कोई प्राणी भयभीत हो उठा। देवता तक पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। भगवान विष्णु का तो रंग ही उसकी ज्वाला से काला हो गया और वे श्यामसुन्दर बन गये। तब देवताओं और दानवों की सभा में भयंकर कोलाहल हुआ कि कौन धारण करेगा यह जहर? हर की नज़र हर की नज़र पर थी, लेकिन सब संशंकित थे कि बाबा ने मना कर दिया तो क्या होगा? भगवान विष्णु आगे आये और भोलेनाथ से निवेदन किया – हे भगवन्! लोक कल्याण के लिये यह ‘कल्मष’ आप ही धारण करें। एक तरफ हृषीकेश का आग्रह और दूसरी तरफ पार्वती का निषेध। किसकी मानें और किसको मना करें? भगवान भोलेनाथ ने प्याला उठाया और पी लिया उस जहर को। न बाहर रखा न अंदर जाने दिया। क्योंकि अंदर तो सारा ब्रह्माण्ड है, अंदर जहर जाता तो सारे प्राणी मर जाते। बाहर रहता तो भय और अंदर जाता तो नाश। इसलिए बाबा ने कण्ठ में ही उसे धारण कर लिया और भक्त पुकार उठे – “जय हो नीलकण्ठ महादेव की!” लोकोक्ति है कि उस जहर के ताप से भगवान भोले नाथ भी बावले हो उठे। शिव तो लीलाधारी हैं, कब कैसी लीला करेगें वे ही जानते है। सागर एवं पर्वत मालाओं को लाँघते-लाँघते बाबा हृषीकेश हिमालयखण्ड में आ बैठे। वहीं पर देवताओं ने गंगाजल के द्वारा उनका महाभिषेक किया और तब से नीलकण्ठ महादेव प्रतिष्ठापित हो गये। सबसे पहले देवताओं ने ही महादेव का महाभिषेक और महाश्रृंगार किया। रावण भी भगवान शंकर का अभिषेक गंगाजल से करता था। यहाँ तक कि अभिषेक के लिये अपनी लंका नगरी में उसने गंगाजल का कुण्ड बना दिया था जहां से वह स्वयं जल लाकर शिव का अभिषेक करता था। रामायण में प्रसिद्ध है कि युद्ध के समय भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने शिवजी की प्रसन्नता के लिये शिवलिंग स्थापित कर स्वयं अपने करकमलों से अनेक तीर्थों से लाये गये पवित्र जल के द्वारा ‘रामेश्वर’ ज्योर्तिलिंग का महाभिषेक किया और रावण के ऊपर विजय प्राप्त की। उसी की स्मृति में आज भी लोग गोमुख से रामेश्वरम् तक की कठिन पैदल यात्रा करके गोमुख से लाये गये जल को भगवान ‘रामेश्वर’ को अर्पित कर अपना जीवन धन्य बनाते हैं।
‘कावड़’ के प्रसंग में ही एक प्राचीन कथानक स्मरणीय है—एक बार संत एकनाथ जी गंगोत्री से गंगाजल भरकर यानि ‘कावड़’ उठाकर, रामेश्वर की ओर पैदल यात्रा करते हुये ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ पानी का अत्यन्त अभाव था। उनके साथ में कई संगी-साथी भी थे । उसी रास्ते में बिन पानी के एक गदहा तड़प रहा था। लोग उसे देखते और आगे निकल जाते। एकनाथजी उस रास्ते से जाते समय यह नज़ारा देखकर शास्त्रों की, संतो की यह बात याद करने लगे कि हर प्राणी में शिव का वास है। यह देह ही देवालय है और इस देह में यह चेतन देव ही शिव है। जब गदहे के रुप में यह चेतन देव तड़प रहे हैं तो इन्हें छोड़कर मैं रामेश्वर कैसे जा सकता हूँ? मैं तो अपने शिव को यहीं मनाऊँगा। ऐसा सोचकर वह हर-हर महादेव कहते हुए गंगाजल गदहे के मुँह में डालने लगे। उनके सभी संगी-साथियों ने बहुत समझाया कि अरे! ये तो गदहा है। मर भी जायेगा तो क्या फर्क पड़ जाएगा? लेकिन एकनाथ तो सच्चे संत थे। हर जीव में शिव का दर्शन करते थे। और चमत्कार यह हुआ कि उसी गदहे के मुख में उन्हें भगवान भोलेनाथ का दर्शन हो गया। सारी मनोकामनायें पूर्ण हो गयीं। किसी प्राणी का अपमान करके किया हुआ पूजन कभी सफल नहीं होता है। किसी पीड़ित की उपेक्षा करना शिव का ही अपमान है।
दूसरी कथा है कि प्रसिद्ध संत नामदेव महाराज कावड़ लेकर शिवाभिषेक के लिये प्रस्थान कर चुके थे। आधा रास्ता तय हो चुका था लेकिन बाबा भोलेनाथ बीच में ही परीक्षा लेने लग गये। उन्होंने साँड बनकर गंगाजल के घट को तोड़कर नष्ट कर दिया। जल जमीन पर बिखर गया पर नामदेवजी ने हार नहीं मानी। दूसरी बार जल भरकर फिर उसी रास्ते से आ पड़े और फिर वही लीला हुई। जब बिना क्रोध किये तीसरी बार जल भरने के लिये प्रस्थान करने लगे तो भगवान महेश्वर ने अपने गणों सहित वहीं पर दर्शन देकर नामदेवजी को कृतार्थ किया और उनकी शिवयात्रा शिवसंकल्प-शिव पर जाकर पूर्ण हुई।
हर कल्प में कपाली की कौतुकमयी लीला होती है। हिमाचल में भी भगवान शंकर का ‘नीलकंठ महादेव’ नाम से प्रसिद्ध स्थान है जो मणिकूट, विष्णुकूट और ब्रह्मकूट पर्वत के मध्य तथा मणिभद्रा एवं चन्द्रभद्रा नदी के संगम पर स्थित है। वहाँ भी भगवान वटवृक्ष के मूल में समाधिस्थ होकर विष की विषमता को शमन करते हुये समता अभ्यास कर रहे थे और 40 हजार वर्ष तक देवताओं को इसका पता नही चला। अंत में देवताओं ने महादेव का महाभिषेक सम्पन्न किया। इन समस्त पौराणिक व लौकिक आख्यानों से यह पता चलता है कि ‘कावड़’ चढ़ाने की प्रथा अत्यंत प्राचीन है और हर शिव भक्त जीवन में एक बार बाबा का अवश्य तपपूर्वक अभिषेक करना चाहता है। राजोपचार तो सभी के लिये संभव नहीं है, अतः जल मात्र से ही शंकर संतुष्ट हो जाते हैं।
अस्तु! कावड़ उठाने वाला भक्त शिव-साधक है, शिवयोगी है। शिव के मार्ग पर अपने को समर्पित करने वाला भक्त सामान्य नहीं होता। वह शिव की तरह ही सहनशील होता है। मन-वाणी या कर्म से किसी भी प्राणी का वह अपकार नहीं करता। सबमें एकमात्र सदाशिव का ही दर्शन करता है। वह केवल घट में ही पवित्र जल नहीं भरता है, अपितु अपने काया रूपी घट में जो ऊपरी भाग मस्तिष्क है, उसमें और हृदय में ज्ञान और प्रेम भरकर अपने को परम-पुनीत बनाता है। जब कावड़ के दो घट पूर्ण कर लिये जाते हैं तो उसे एक बाँस की डण्डी में सजा-धजा कर और पूजित करके स्थापित कर दिया जाता है। पहला है ब्रह्मघट और दूसरा है विष्णुघट। रुद्र तो साक्षात् बाँस में ही प्रतिष्ठापित है। वेणुगीत में बाँस की बाँसुरी को साक्षात् रुद्र स्वीकार किया गया है। यानि कावड़ियाँ अपने को साक्षात् ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मक समझकर ही शिव की पूजा करे। कावड़ ले जाते समय शुद्धता का बड़ा ध्यान रखा जाता है। जब तक कावड़ अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच जाये, तब तक धरती पर नहीं रखा जाता। उसे किसी बाँस-बल्ली के आधार (स्टैंड) पर ही रखा जाता है। कावड़ में कन्धा बदलते समय भी यह ध्यान रखा जाता है कि पीछे से न बदलें। उसे आगे से घुमाकर ही दूसरे कन्धे पर लेवें। एक काँवड़ को दूसरे के ऊपर से भी नहीं गुजारते। यह अपराध है। रास्ते में गूलर का पेड़ पड़ जाये तो उसके नीचे से भी नहीं गुजरते क्योंकि वह कर्म का प्रतीक है और साधक ज्ञान की तरफ बढ़ रहा है। नींद आना भी अशुद्धता है, इसलिए सोने के बाद स्नान और प्रार्थनापूर्वक ही काँवड़ उठाया जाता है।