Monday, July 9, 2012

भोलेनाथ

कल्याण और विश्वास के प्रतीक भोलेनाथ आशुतोष शिव की परम साधना के श्रावण मास की चतुर्दशी को जलाभिषेक का विशेष महत्व है। कांवड़ देश के अनगिनत स्थानों पर स्थित शिवलिंगों पर चढ़ाई जाती है। इसका उद्देश्य देवाधिदेव महादेव को प्रसन्न करना है।
घर से जब कावड़ियाँ संकल्प उठाता है तभी से उसका ‘कावड़’ प्रारम्भ हो जाता है। कई कावड़िये तो गोमुख तक भी जाते है। वहाँ गंगा स्नान करके अपने तन-मन को पवित्र बनाकर, भभूत लपेट कर, पवित्र-घट में संकल्पपूर्वक गंगा-जल भरकर उसकी पूजा करते हैं। फिर ‘हर हर महादेव’ का जयकारा लगाकर ‘कावड़’ उठा लेते हैं। हर कावड़िया एक तपस्वी होता है, अतः उसे तपस्वी के कठोर नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। सबसे पहले भगवान शंकर को ‘कावड़’ किसने चढ़ाया यह तो एक रहस्य ही है। परन्तु पुराणों और लौकिक कथाओं के माध्यम से पता चलता है कि जिस समय सुर-असुर मिलकर उदधि मन्थन कर रहे थे उसी समय महाकाल की ज्वाला जैसा धधकता हुआ हलाहल विष प्रकट हुआ। उस काले कालकूट से हर कोई प्राणी भयभीत हो उठा। देवता तक पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। भगवान विष्णु का तो रंग ही उसकी ज्वाला से काला हो गया और वे श्यामसुन्दर बन गये। तब देवताओं और दानवों की सभा में भयंकर कोलाहल हुआ कि कौन धारण करेगा यह जहर? हर की नज़र हर की नज़र पर थी, लेकिन सब संशंकित थे कि बाबा ने मना कर दिया तो क्या होगा? भगवान विष्णु आगे आये और भोलेनाथ से निवेदन किया – हे भगवन्! लोक कल्याण के लिये यह ‘कल्मष’ आप ही धारण करें। एक तरफ हृषीकेश का आग्रह और दूसरी तरफ पार्वती का निषेध। किसकी मानें और किसको मना करें? भगवान भोलेनाथ ने प्याला उठाया और पी लिया उस जहर को। न बाहर रखा न अंदर जाने दिया। क्योंकि अंदर तो सारा ब्रह्माण्ड है, अंदर जहर जाता तो सारे प्राणी मर जाते। बाहर रहता तो भय और अंदर जाता तो नाश। इसलिए बाबा ने कण्ठ में ही उसे धारण कर लिया और भक्त पुकार उठे – “जय हो नीलकण्ठ महादेव की!” लोकोक्ति है कि उस जहर के ताप से भगवान भोले नाथ भी बावले हो उठे। शिव तो लीलाधारी हैं, कब कैसी लीला करेगें वे ही जानते है। सागर एवं पर्वत मालाओं को लाँघते-लाँघते बाबा हृषीकेश हिमालयखण्ड में आ बैठे। वहीं पर देवताओं ने गंगाजल के द्वारा उनका महाभिषेक किया और तब से नीलकण्ठ महादेव प्रतिष्ठापित हो गये। सबसे पहले देवताओं ने ही महादेव का महाभिषेक और महाश्रृंगार किया। रावण भी भगवान शंकर का अभिषेक गंगाजल से करता था। यहाँ तक कि अभिषेक के लिये अपनी लंका नगरी में उसने गंगाजल का कुण्ड बना दिया था जहां से वह स्वयं जल लाकर शिव का अभिषेक करता था। रामायण में प्रसिद्ध है कि युद्ध के समय भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने शिवजी की प्रसन्नता के लिये शिवलिंग स्थापित कर स्वयं अपने करकमलों से अनेक तीर्थों से लाये गये पवित्र जल के द्वारा ‘रामेश्वर’ ज्योर्तिलिंग का महाभिषेक किया और रावण के ऊपर विजय प्राप्त की। उसी की स्मृति में आज भी लोग गोमुख से रामेश्वरम् तक की कठिन पैदल यात्रा करके गोमुख से लाये गये जल को भगवान ‘रामेश्वर’ को अर्पित कर अपना जीवन धन्य बनाते हैं।
‘कावड़’ के प्रसंग में ही एक प्राचीन कथानक स्मरणीय है—एक बार संत एकनाथ जी गंगोत्री से गंगाजल भरकर यानि ‘कावड़’ उठाकर, रामेश्वर की ओर पैदल यात्रा करते हुये ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ पानी का अत्यन्त अभाव था। उनके साथ में कई संगी-साथी भी थे । उसी रास्ते में बिन पानी के एक गदहा तड़प रहा था। लोग उसे देखते और आगे निकल जाते। एकनाथजी उस रास्ते से जाते समय यह नज़ारा देखकर शास्त्रों की, संतो की यह बात याद करने लगे कि हर प्राणी में शिव का वास है। यह देह ही देवालय है और इस देह में यह चेतन देव ही शिव है। जब गदहे के रुप में यह चेतन देव तड़प रहे हैं तो इन्हें छोड़कर मैं रामेश्वर कैसे जा सकता हूँ? मैं तो अपने शिव को यहीं मनाऊँगा। ऐसा सोचकर वह हर-हर महादेव कहते हुए गंगाजल गदहे के मुँह में डालने लगे। उनके सभी संगी-साथियों ने बहुत समझाया कि अरे! ये तो गदहा है। मर भी जायेगा तो क्या फर्क पड़ जाएगा? लेकिन एकनाथ तो सच्चे संत थे। हर जीव में शिव का दर्शन करते थे। और चमत्कार यह हुआ कि उसी गदहे के मुख में उन्हें भगवान भोलेनाथ का दर्शन हो गया। सारी मनोकामनायें पूर्ण हो गयीं। किसी प्राणी का अपमान करके किया हुआ पूजन कभी सफल नहीं होता है। किसी पीड़ित की उपेक्षा करना शिव का ही अपमान है।
दूसरी कथा है कि प्रसिद्ध संत नामदेव महाराज कावड़ लेकर शिवाभिषेक के लिये प्रस्थान कर चुके थे। आधा रास्ता तय हो चुका था लेकिन बाबा भोलेनाथ बीच में ही परीक्षा लेने लग गये। उन्होंने साँड बनकर गंगाजल के घट को तोड़कर नष्ट कर दिया। जल जमीन पर बिखर गया पर नामदेवजी ने हार नहीं मानी। दूसरी बार जल भरकर फिर उसी रास्ते से आ पड़े और फिर वही लीला हुई। जब बिना क्रोध किये तीसरी बार जल भरने के लिये प्रस्थान करने लगे तो भगवान महेश्वर ने अपने गणों सहित वहीं पर दर्शन देकर नामदेवजी को कृतार्थ किया और उनकी शिवयात्रा शिवसंकल्प-शिव पर जाकर पूर्ण हुई।
हर कल्प में कपाली की कौतुकमयी लीला होती है। हिमाचल में भी भगवान शंकर का ‘नीलकंठ महादेव’ नाम से प्रसिद्ध स्थान है जो मणिकूट, विष्णुकूट और ब्रह्मकूट पर्वत के मध्य तथा मणिभद्रा एवं चन्द्रभद्रा नदी के संगम पर स्थित है। वहाँ भी भगवान वटवृक्ष के मूल में समाधिस्थ होकर विष की विषमता को शमन करते हुये समता अभ्यास कर रहे थे और 40 हजार वर्ष तक देवताओं को इसका पता नही चला। अंत में देवताओं ने महादेव का महाभिषेक सम्पन्न किया। इन समस्त पौराणिक व लौकिक आख्यानों से यह पता चलता है कि ‘कावड़’ चढ़ाने की प्रथा अत्यंत प्राचीन है और हर शिव भक्त जीवन में एक बार बाबा का अवश्य तपपूर्वक अभिषेक करना चाहता है। राजोपचार तो सभी के लिये संभव नहीं है, अतः जल मात्र से ही शंकर संतुष्ट हो जाते हैं।
अस्तु! कावड़ उठाने वाला भक्त शिव-साधक है, शिवयोगी है। शिव के मार्ग पर अपने को समर्पित करने वाला भक्त सामान्य नहीं होता। वह शिव की तरह ही सहनशील होता है। मन-वाणी या कर्म से किसी भी प्राणी का वह अपकार नहीं करता। सबमें एकमात्र सदाशिव का ही दर्शन करता है। वह केवल घट में ही पवित्र जल नहीं भरता है, अपितु अपने काया रूपी घट में जो ऊपरी भाग मस्तिष्क है, उसमें और हृदय में ज्ञान और प्रेम भरकर अपने को परम-पुनीत बनाता है। जब कावड़ के दो घट पूर्ण कर लिये जाते हैं तो उसे एक बाँस की डण्डी में सजा-धजा कर और पूजित करके स्थापित कर दिया जाता है। पहला है ब्रह्मघट और दूसरा है विष्णुघट। रुद्र तो साक्षात् बाँस में ही प्रतिष्ठापित है। वेणुगीत में बाँस की बाँसुरी को साक्षात् रुद्र स्वीकार किया गया है। यानि कावड़ियाँ अपने को साक्षात् ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मक समझकर ही शिव की पूजा करे। कावड़ ले जाते समय शुद्धता का बड़ा ध्यान रखा जाता है। जब तक कावड़ अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच जाये, तब तक धरती पर नहीं रखा जाता। उसे किसी बाँस-बल्ली के आधार (स्टैंड) पर ही रखा जाता है। कावड़ में कन्धा बदलते समय भी यह ध्यान रखा जाता है कि पीछे से न बदलें। उसे आगे से घुमाकर ही दूसरे कन्धे पर लेवें। एक काँवड़ को दूसरे के ऊपर से भी नहीं गुजारते। यह अपराध है। रास्ते में गूलर का पेड़ पड़ जाये तो उसके नीचे से भी नहीं गुजरते क्योंकि वह कर्म का प्रतीक है और साधक ज्ञान की तरफ बढ़ रहा है। नींद आना भी अशुद्धता है, इसलिए सोने के बाद स्नान और प्रार्थनापूर्वक ही काँवड़ उठाया जाता है।

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