हिन्दू पंचांग के अनुसार श्रावण माह जो भाद्रपद के साथ मिलकर भारत
मे मानसून की अवधि का निर्माण करता है, 4 जुलाई को प्रारम्भ हुआ, उसने
5 जुलाई को गर्मी से झुलसे मेरे शहर को बारिश से सराबोर कर दिया। क्या
मानसून सही वक़्त पर आया या फिर देरी से, जैसा कि मौसम विभाग विलाप कर
रहा था? केंद्रीय कृषि मंत्रालय पसोपेश मे था कि उन किसानों को
आश्वस्त कैसे किया जाए जिन्होने खरीफ की फसल की बुआई बहुत जल्दी कर दी
थी?
डॉ. के. सी. राजू (जिन्होने भारत के प्रथम सुपर कंप्यूटर परम के निर्माण मे मुख्य भूमिका निभाई तथा जो अल्बर्ट आइन्सटाइन द्वारा की गयी एक गलती को सुधारकर Telesio-Galilei Academy of Science का स्वर्ण पदक प्राप्त कर चुके हैं;) कहते हैं कि मानसून इस वर्ष की भांति ही 2003, 2004, 2006, 2009 और 2010 मे भी ‘देरी’ से आया था। हर बार मानसून ने मौसम विभाग द्वारा जताई गई अकाल की आशंकाओं को गलत सिद्ध किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जिस ग्रेगोरियन कैलेंडर पर हमारी वैज्ञानिक जमात भरोसा करती है, वह कैलेंडर इस तरह की गणना के लायक ही नहीं है। भारत को पहले यह तय करना होगा कि मानसून किस पांचांग पद्धति के आधार पर चलता है- नक्षत्र आधारित पांचांग के अनुसार या सूर्य की कटिबंधीय स्थिति पर आधारित पंचांग (विषुवतीय पांचांग) के अनुसार? सौर वर्ष का तात्पर्य उस कालावधि से, समय से है जो सूर्य द्वारा मौसम चक्र मे एक स्थान से चलकर पुनः उसी स्थान पर आने मे लिया जाता है अर्थात सूर्य द्वारा एक अक्षांश से दूसरे अक्षांश तक पर उसी स्थान पर पहुँचने के मध्य की कालावधि सौर चक्र कहलती है।
प्रचलित ग्रेगोरियन वर्ष की अवधि विषुवतीय अक्षांशों के मध्य अंतर के सटीक मापन के अभाव मे वास्तविक वर्ष (पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा हेतु लिया जाने वाला समय) के बराबर नहीं है। ग्रेगोरियन वर्ष वास्तविक एक वर्ष से लगभग 20 मिनट छोटा है। यह 20 मिनट की अवधि एक लंबे कालखंड मे धीरे धीरे एकत्रित होकर काल गणना मे बहुत बड़ा अंतर पैदा करती है। भारतीय पांचांग नक्षत्र वर्ष पर आधारित है जो कि काल मापन हेतु अधिक सटीक तथा उपयुक्त है क्योंकि सूर्य निश्चित समय पर ही विभिन्न स्थिर नक्षत्रों (उदाहरण-ध्रुव तारा) से होकर गुज़रता है। यह निरीक्षण तथा मापन हेतु आसान है तथा कृषिगत गतिविधियों का समय तय करने हेतु अत्यंत उपयुक्त है।
ग्रेगोरियन कैलेंडर मे सुधार की आवश्यकता इसलिए महसूस की गयी क्योंकि रोमन लोग अंश गणना मे बहुत कमजोर थे अतः उन्होने जूलियन कैलेंडर मे वर्ष की कालावधि बहुत ही अपरिष्कृत रूप से तय कर दी थी। जूलियन कैलेंडर प्रत्येक 128 दिन बाद 1 दिन पीछे हट जाता था। 1582 ईस्वी तक यह 1250 वर्षों में 10 दिन तक खिसक चुका था क्योंकि काउंसिल ऑफ नीशिया ने कैलेंडर पर ईस्टर का दिन तय करने हेतु वसंत के आगमन का दिन 21 मार्च तय कर दिया था। 16 वी शताब्दी के आते आते वसंत आगमन का दिन 21 की बजाय 11 मार्च को
पड़ने लगा। ग्रेगोरियन सुधार समिति ने इस विसंगति को सुधारने हेतु कैलेंडर को 10 दिन आगे खिसका दिया तथा शताब्दी के प्रत्येकवर्ष की बजाय केवल उसी वर्ष को लीप वर्ष घोषित किया जिसमे 400 का भाग दिया जा सकता था। (उदाहरण-सन 2000)। इस तरह ग्रेगोरियन काल गणना विषुवतीय सौर चक्र की गणना के कुछ निकट आ गयी।
चौंकाने वाली बात यह थी कि स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय पांचाग सुधार समिति ने ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपनाया और कहा कि मौसम विषुवतीय वर्ष पर आधारित होता है! ऊपरी तौर पर विषुवतीय वर्ष कई ज्योतिषीय सिद्धांतों यथा सूर्य सिद्धान्त तथा पंचसिद्धान्तिका द्वारा समर्थित प्रतीत होता है किन्तु वास्तव मे उन्हे गलत पढ़ा और समझा गया है। यहाँ तक की वराहमिहिर तथा पंचसिद्धांतिका के पूर्व आर्यभट्ट ने भी स्पष्ट रूप से नक्षत्र आधारित पांचाग का समर्थन किया है। मार्क्सवादी इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि भारतीय कृषि नक्षत्रों पर आधारित थी।
आधुनिक भारत ने मानसून का गंभीर अध्ययन नहीं किया है, जबकि आज भी अच्छे मानसून का अर्थ है अच्छा व्यापार और सुदृढ़ अर्थव्यवस्था। भारतीय वैज्ञानिक स्वर्गीय श्री मेघनाद साहा मानते थे कि मानसून हेतु तापांतर संतुलन ही मायने रखता है; सी.के. राजू का मत है कि पवनों के चलने की पद्धति इसका निर्धारक तत्व है। किन्तु वे यह भी कहते हैं कि मानसून निर्धारण के सटीक प्रतिमान स्थापित करने हेतु वृहद स्तर पर अध्ययन की ज़रूरत है। हमारे पूर्वजों ने 5000 पांचाग निर्मित किए थे जिनमे से प्रत्येक पांचांग अपनी अक्षांश स्थिति के अनुसार निर्धारित किया गया था।
(अक्षांश अंतर की वजह से ही दिल्ली की अपेक्षा केरल मे मानसून बहुत पहले आ जाता है) यहाँ अत्यंत मजबूत सांस्कृतिक संदर्भ है कि भारतीय पांचांग वर्षा ऋतु के इर्द-गिर्द घूमता है क्योंकि हमारा वर्ष, वर्षा से संबन्धित है। यह सटीक गणना कृषि के लिए सदैव प्रासंगिक है क्योंकि मानसून आगमन निर्धारण मे ज़रा सि चूक कृषि कार्यों व उत्पादन मे कहर बरपा सकती है। नेहरूवादी विचारधारा की ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ के प्रति अंधभक्ति ने मानसून व ऋतु निर्धारण हेतु गुलामों की तरह ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपनाने पर ज़ोर दिया, यद्यपि सावधानीपूर्ण विश्लेषण यह दर्शाता है कि प्रतिवर्ष मानसून हमारी भारतीय पांचाग पद्धति के अनुसार आता है। फिर भी ‘वैज्ञानिक’ मानसून की ‘देरी’ के विषय मे मिमियाते रहते हैं। इतिहास से सबक लेने हेतु तयार ना होकर उन्होने कृषकों को बर्बाद कर दिया है। हिन्दू पंचांग आधारित कृषि का मूल आधार मानसून है ना कि गर्मी या सर्दी की ऋतुएँ जो यूरोप के लिए प्रासंगिक हो सकती हैं। मानसून पवनों के बहाव पर निर्भर होता है।
पृथ्वी पर पवनों का चलना केवल सूर्य पर आधारित नहीं है। विषुवत रेखा पर गरम हवाएँ ऊपर की ओर उठती हैं किन्तु ध्रुवों की ओर नहीं बढ़ती हैं। पृथ्वी के घूर्णन बल से उत्पन्न होने वाले बल के फलस्वरूप पवनें अपने रथ को उपोष्ण कटिबन्ध ( उत्तर तथा दक्षिण मे 30 से 35 अक्षांश के मध्य।) अतः मानसून पृथ्वी के घूर्णन बल पर भी निर्भर करता है, जो एक जड़त्वीय बल है। चूंकि संभाव्य जड़त्वीय बल ढांचा नक्षत्रों के प्रति सापेक्ष रूप से निर्धारित है, अतः घूर्णन बल पृथ्वी की नक्षत्र सापेक्षचाल पर आधारित है और इसीलिए मानसून नक्षत्र पंचांग पर निर्भर है। यदि मानसून विषुवतीय पांचांग पर आधारित होता तो विषुवतीय वर्ष तथा नाक्षत्र वर्ष के बीच अंतर की वजह से भारतीय पंचांग गणना गड़बड़ा जाती किन्तु ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ। कृषकों को विषुवतीय पांचांग के चक्कर मे नक्षत्र आधारित मौसम पांचांग त्यागने हेतु विवश करने के लिये नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता तथा कथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने हमारी खाद्य सुरक्षा को ताक पर रख दिया। एक अजीब संयोग है कि आम जनमानस मे कृषि के प्रति चेतना के लुप्त होने के साथ ही विभिन्न पार्टियों के कृषि आधारित चिह्न (गाय-बछड़ा) हल और किसान (जनता लोक दल) के चुनाव चिह्न गायब हो गए। जबकि कमम्युनिस्ट पार्टी का हंसिया विनाश का प्रतीक बन गया। यह तथ्य हमारी राजनीति मे शहरीकरण के प्रति झुकाव रखती सोच तथा अर्थव्यवस्था के प्रति हमारी तुड़ी-मुड़ी विकृत समझ को दर्शाता है। जिसके बुरे परिणाम हमे ग्रसने लगे हैं।
उदारीकरण व वैश्वीकरण के 2 दशकों के पश्चात तथा उद्योग व सेवा क्षेत्रों मे हजारों करोड़ रुपयों की प्रोत्साहन राशि फूंकने के बावजूद ये क्षेत्र विकास को गति देने मे नाकाम रहे हैं, ऊपर से इन्होने देशभर मे रोजगार की उपलब्धता को बाधित ही किया है। देश की अर्थव्यवस्था अच्छे मानसून के लिए हाँफ रही है ताकि वर्तमान की दलदली परिस्थितियों से उबर सके। क्या कम से कम अब हम उदारीकरण के मिथक रूपी उस कचरा सोच से बाहर निकाल पाएंगे जिसके अनुसार कृषि और विकास मे कोई संबंध नहीं है?
डॉ. के. सी. राजू (जिन्होने भारत के प्रथम सुपर कंप्यूटर परम के निर्माण मे मुख्य भूमिका निभाई तथा जो अल्बर्ट आइन्सटाइन द्वारा की गयी एक गलती को सुधारकर Telesio-Galilei Academy of Science का स्वर्ण पदक प्राप्त कर चुके हैं;) कहते हैं कि मानसून इस वर्ष की भांति ही 2003, 2004, 2006, 2009 और 2010 मे भी ‘देरी’ से आया था। हर बार मानसून ने मौसम विभाग द्वारा जताई गई अकाल की आशंकाओं को गलत सिद्ध किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जिस ग्रेगोरियन कैलेंडर पर हमारी वैज्ञानिक जमात भरोसा करती है, वह कैलेंडर इस तरह की गणना के लायक ही नहीं है। भारत को पहले यह तय करना होगा कि मानसून किस पांचांग पद्धति के आधार पर चलता है- नक्षत्र आधारित पांचांग के अनुसार या सूर्य की कटिबंधीय स्थिति पर आधारित पंचांग (विषुवतीय पांचांग) के अनुसार? सौर वर्ष का तात्पर्य उस कालावधि से, समय से है जो सूर्य द्वारा मौसम चक्र मे एक स्थान से चलकर पुनः उसी स्थान पर आने मे लिया जाता है अर्थात सूर्य द्वारा एक अक्षांश से दूसरे अक्षांश तक पर उसी स्थान पर पहुँचने के मध्य की कालावधि सौर चक्र कहलती है।
प्रचलित ग्रेगोरियन वर्ष की अवधि विषुवतीय अक्षांशों के मध्य अंतर के सटीक मापन के अभाव मे वास्तविक वर्ष (पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा हेतु लिया जाने वाला समय) के बराबर नहीं है। ग्रेगोरियन वर्ष वास्तविक एक वर्ष से लगभग 20 मिनट छोटा है। यह 20 मिनट की अवधि एक लंबे कालखंड मे धीरे धीरे एकत्रित होकर काल गणना मे बहुत बड़ा अंतर पैदा करती है। भारतीय पांचांग नक्षत्र वर्ष पर आधारित है जो कि काल मापन हेतु अधिक सटीक तथा उपयुक्त है क्योंकि सूर्य निश्चित समय पर ही विभिन्न स्थिर नक्षत्रों (उदाहरण-ध्रुव तारा) से होकर गुज़रता है। यह निरीक्षण तथा मापन हेतु आसान है तथा कृषिगत गतिविधियों का समय तय करने हेतु अत्यंत उपयुक्त है।
ग्रेगोरियन कैलेंडर मे सुधार की आवश्यकता इसलिए महसूस की गयी क्योंकि रोमन लोग अंश गणना मे बहुत कमजोर थे अतः उन्होने जूलियन कैलेंडर मे वर्ष की कालावधि बहुत ही अपरिष्कृत रूप से तय कर दी थी। जूलियन कैलेंडर प्रत्येक 128 दिन बाद 1 दिन पीछे हट जाता था। 1582 ईस्वी तक यह 1250 वर्षों में 10 दिन तक खिसक चुका था क्योंकि काउंसिल ऑफ नीशिया ने कैलेंडर पर ईस्टर का दिन तय करने हेतु वसंत के आगमन का दिन 21 मार्च तय कर दिया था। 16 वी शताब्दी के आते आते वसंत आगमन का दिन 21 की बजाय 11 मार्च को
पड़ने लगा। ग्रेगोरियन सुधार समिति ने इस विसंगति को सुधारने हेतु कैलेंडर को 10 दिन आगे खिसका दिया तथा शताब्दी के प्रत्येकवर्ष की बजाय केवल उसी वर्ष को लीप वर्ष घोषित किया जिसमे 400 का भाग दिया जा सकता था। (उदाहरण-सन 2000)। इस तरह ग्रेगोरियन काल गणना विषुवतीय सौर चक्र की गणना के कुछ निकट आ गयी।
चौंकाने वाली बात यह थी कि स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय पांचाग सुधार समिति ने ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपनाया और कहा कि मौसम विषुवतीय वर्ष पर आधारित होता है! ऊपरी तौर पर विषुवतीय वर्ष कई ज्योतिषीय सिद्धांतों यथा सूर्य सिद्धान्त तथा पंचसिद्धान्तिका द्वारा समर्थित प्रतीत होता है किन्तु वास्तव मे उन्हे गलत पढ़ा और समझा गया है। यहाँ तक की वराहमिहिर तथा पंचसिद्धांतिका के पूर्व आर्यभट्ट ने भी स्पष्ट रूप से नक्षत्र आधारित पांचाग का समर्थन किया है। मार्क्सवादी इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि भारतीय कृषि नक्षत्रों पर आधारित थी।
आधुनिक भारत ने मानसून का गंभीर अध्ययन नहीं किया है, जबकि आज भी अच्छे मानसून का अर्थ है अच्छा व्यापार और सुदृढ़ अर्थव्यवस्था। भारतीय वैज्ञानिक स्वर्गीय श्री मेघनाद साहा मानते थे कि मानसून हेतु तापांतर संतुलन ही मायने रखता है; सी.के. राजू का मत है कि पवनों के चलने की पद्धति इसका निर्धारक तत्व है। किन्तु वे यह भी कहते हैं कि मानसून निर्धारण के सटीक प्रतिमान स्थापित करने हेतु वृहद स्तर पर अध्ययन की ज़रूरत है। हमारे पूर्वजों ने 5000 पांचाग निर्मित किए थे जिनमे से प्रत्येक पांचांग अपनी अक्षांश स्थिति के अनुसार निर्धारित किया गया था।
(अक्षांश अंतर की वजह से ही दिल्ली की अपेक्षा केरल मे मानसून बहुत पहले आ जाता है) यहाँ अत्यंत मजबूत सांस्कृतिक संदर्भ है कि भारतीय पांचांग वर्षा ऋतु के इर्द-गिर्द घूमता है क्योंकि हमारा वर्ष, वर्षा से संबन्धित है। यह सटीक गणना कृषि के लिए सदैव प्रासंगिक है क्योंकि मानसून आगमन निर्धारण मे ज़रा सि चूक कृषि कार्यों व उत्पादन मे कहर बरपा सकती है। नेहरूवादी विचारधारा की ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ के प्रति अंधभक्ति ने मानसून व ऋतु निर्धारण हेतु गुलामों की तरह ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपनाने पर ज़ोर दिया, यद्यपि सावधानीपूर्ण विश्लेषण यह दर्शाता है कि प्रतिवर्ष मानसून हमारी भारतीय पांचाग पद्धति के अनुसार आता है। फिर भी ‘वैज्ञानिक’ मानसून की ‘देरी’ के विषय मे मिमियाते रहते हैं। इतिहास से सबक लेने हेतु तयार ना होकर उन्होने कृषकों को बर्बाद कर दिया है। हिन्दू पंचांग आधारित कृषि का मूल आधार मानसून है ना कि गर्मी या सर्दी की ऋतुएँ जो यूरोप के लिए प्रासंगिक हो सकती हैं। मानसून पवनों के बहाव पर निर्भर होता है।
पृथ्वी पर पवनों का चलना केवल सूर्य पर आधारित नहीं है। विषुवत रेखा पर गरम हवाएँ ऊपर की ओर उठती हैं किन्तु ध्रुवों की ओर नहीं बढ़ती हैं। पृथ्वी के घूर्णन बल से उत्पन्न होने वाले बल के फलस्वरूप पवनें अपने रथ को उपोष्ण कटिबन्ध ( उत्तर तथा दक्षिण मे 30 से 35 अक्षांश के मध्य।) अतः मानसून पृथ्वी के घूर्णन बल पर भी निर्भर करता है, जो एक जड़त्वीय बल है। चूंकि संभाव्य जड़त्वीय बल ढांचा नक्षत्रों के प्रति सापेक्ष रूप से निर्धारित है, अतः घूर्णन बल पृथ्वी की नक्षत्र सापेक्षचाल पर आधारित है और इसीलिए मानसून नक्षत्र पंचांग पर निर्भर है। यदि मानसून विषुवतीय पांचांग पर आधारित होता तो विषुवतीय वर्ष तथा नाक्षत्र वर्ष के बीच अंतर की वजह से भारतीय पंचांग गणना गड़बड़ा जाती किन्तु ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ। कृषकों को विषुवतीय पांचांग के चक्कर मे नक्षत्र आधारित मौसम पांचांग त्यागने हेतु विवश करने के लिये नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता तथा कथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने हमारी खाद्य सुरक्षा को ताक पर रख दिया। एक अजीब संयोग है कि आम जनमानस मे कृषि के प्रति चेतना के लुप्त होने के साथ ही विभिन्न पार्टियों के कृषि आधारित चिह्न (गाय-बछड़ा) हल और किसान (जनता लोक दल) के चुनाव चिह्न गायब हो गए। जबकि कमम्युनिस्ट पार्टी का हंसिया विनाश का प्रतीक बन गया। यह तथ्य हमारी राजनीति मे शहरीकरण के प्रति झुकाव रखती सोच तथा अर्थव्यवस्था के प्रति हमारी तुड़ी-मुड़ी विकृत समझ को दर्शाता है। जिसके बुरे परिणाम हमे ग्रसने लगे हैं।
उदारीकरण व वैश्वीकरण के 2 दशकों के पश्चात तथा उद्योग व सेवा क्षेत्रों मे हजारों करोड़ रुपयों की प्रोत्साहन राशि फूंकने के बावजूद ये क्षेत्र विकास को गति देने मे नाकाम रहे हैं, ऊपर से इन्होने देशभर मे रोजगार की उपलब्धता को बाधित ही किया है। देश की अर्थव्यवस्था अच्छे मानसून के लिए हाँफ रही है ताकि वर्तमान की दलदली परिस्थितियों से उबर सके। क्या कम से कम अब हम उदारीकरण के मिथक रूपी उस कचरा सोच से बाहर निकाल पाएंगे जिसके अनुसार कृषि और विकास मे कोई संबंध नहीं है?
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