Tuesday, July 31, 2012

अमर शहीद ऊधम सिंह



अमर शहीद ऊधम सिंह (जन्म- 26 दिसंबर, 1899, सुनाम गाँव, पंजाब; मृत्यु- 31 जुलाई, 1940, पेंटनविले जेल) जलियाँवाला बाग़ में निहत्थों को भूनकर अंग्रेज़ भारत की आज़ादी के दीवानों को सबक सिखाना चाहते थे, जिससे वह ब्रिटिश सरकार से टकराने की हिम्मत न कर सकें, किन्तु इस घटना ने स्वतंत्रता की आग को हवा देकर बढ़ा दिया।
जन्म

ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ। ऊधमसिंह की माता और पिता का साया बचपन में ही उठ गया था। उनके जन्म के दो साल बाद 1901 में उनकी माँ का निधन हो गया और 1907 में उनके पिता भी चल बसे। ऊधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार दुनिया के ज़ुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए।

    इतिहासकार वीरेंद्र शरण के अनुसार ऊधमसिंह इन सब घटनाओं से बहुत दु:खी तो थे, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताक़त बहुत बढ़ गई। उन्होंने शिक्षा ज़ारी रखने के साथ ही आज़ादी की लड़ाई में कूदने का भी मन बना लिया। उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए।

    इतिहासकार डा. सर्वदानंदन के अनुसार ऊधम सिंह 'सर्व धर्म सम भाव' के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आज़ाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है।

स्वतंत्रता आंदोलन में भाग

स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सन् 1919 का 13 अप्रैल का दिन आँसुओं में डूबा हुआ है, जब अंग्रेज़ों ने अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं और सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वालों में माँओं के सीने से चिपके दुधमुँहे बच्चे, जीवन की संध्या बेला में देश की आज़ादी का सपना देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व लुटाए को तैयार युवा सभी थे।

इस घटना ने ऊधमसिंह को हिलाकर रख दिया और उन्होंने अंग्रेज़ों से इसका बदला लेने की ठान ली। हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले 'ऊधम सिंह उर्फ राम मोहम्मद आज़ाद सिंह' ने इस घटना के लिए जनरल माइकल ओ डायर को ज़िम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। गवर्नर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड, एडवर्ड हैरी डायर, जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग़ को चारों तरफ से घेर कर मशीनगन से गोलियाँ चलवाईं।

विदेश की यात्राएं

इस के बाद घटना ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओ डायर को मारकर इस घटना का बदला लेंगे। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए ऊधमसिंह ने अलग अलग नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्राएँ की। सन् 1934 में ऊधमसिंह लंदन गये और वहाँ 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड़ पर रहने लगे। वहाँ उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार ख़रीदी और अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी ख़रीद ली।

प्रतिशोध

भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ डायर को ठिकाने लगाने के लिए सही समय का इंतज़ार करने लगा। ऊधमसिंह को अपने सैकड़ों भाई बहनों की मौत का बदला लेने का मौक़ा 1940 में मिला। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक थी जहाँ माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था। ऊधमसिंह उस दिन समय से पहले ही बैठक स्थल पर पहुँच गए। उन्होंने अपनी रिवाल्वर एक मोटी सी किताब में छिपा ली। उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में इस तरह से काट लिया, जिसमें डायर की जान लेने वाले हथियार को आसानी से छिपाया जा सके।

आत्मसमर्पण

बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियाँ चला दीं। दो गोलियाँ डायर को लगीं, जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी भी घायल हो गए। ऊधमसिंह ने वहाँ से भागने की कोशिश नहीं की और स्वयं को गिरफ़्तार करा दिया। उन पर मुक़दमा चला। अदालत में जब उनसे सवाल किया गया कि 'वह डायर के साथियों को भी मार सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया।' इस पर ऊधमसिंह ने उत्तर दिया कि, वहाँ पर कई महिलाएँ भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। अपने बयान में ऊधमसिंह ने कहा- 'मैंने डायर को मारा, क्योंकि वह इसी के लायक़ था। मैंने ब्रिटिश राज्य में अपने देशवासियों की दुर्दशा देखी है। मेरा कर्तव्य था कि मैं देश के लिए कुछ करूं। मुझे मरने का डर नहीं है। देश के लिए कुछ करके जवानी में मरना चाहिए।'
मृत्यु

4 जून 1940 को ऊधमसिंह को डायर की हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें 'पेंटनविले जेल' में फाँसी दे दी गयी। इस प्रकार यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया। 31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए थे। ऊधमसिंह की अस्थियाँ सम्मान सहित भारत लायी गईं। उनके गाँव में उनकी समाधि बनी हुई है।


Sunday, July 22, 2012

क्या हम उदारीकरण के मिथक रूपी 'कचरा' सोच से बाहर निकल पाएंगे : मानसून और पंचांग

हिन्दू पंचांग के अनुसार श्रावण माह जो भाद्रपद के साथ मिलकर भारत मे मानसून की अवधि का निर्माण करता है, 4 जुलाई को प्रारम्भ हुआ, उसने 5 जुलाई को गर्मी से झुलसे मेरे शहर को बारिश से सराबोर कर दिया। क्या मानसून सही वक़्त पर आया या फिर देरी से, जैसा कि मौसम विभाग विलाप कर रहा था? केंद्रीय कृषि मंत्रालय पसोपेश मे था कि उन किसानों को आश्वस्त कैसे किया जाए जिन्होने खरीफ की फसल की बुआई बहुत जल्दी कर दी थी?

डॉ. के. सी. राजू (जिन्होने भारत के प्रथम सुपर कंप्यूटर परम के निर्माण मे मुख्य भूमिका निभाई तथा जो अल्बर्ट आइन्सटाइन द्वारा की गयी एक गलती को सुधारकर Telesio-Galilei Academy of Science का स्वर्ण पदक प्राप्त कर चुके हैं;) कहते हैं कि मानसून इस वर्ष की भांति ही 2003, 2004, 2006, 2009 और 2010 मे भी ‘देरी’ से आया था। हर बार मानसून ने मौसम विभाग द्वारा जताई गई अकाल की आशंकाओं को गलत सिद्ध किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जिस ग्रेगोरियन कैलेंडर पर हमारी वैज्ञानिक जमात भरोसा करती है, वह कैलेंडर इस तरह की गणना के लायक ही नहीं है। भारत को पहले यह तय करना होगा कि मानसून किस पांचांग पद्धति के आधार पर चलता है- नक्षत्र आधारित पांचांग के अनुसार या सूर्य की कटिबंधीय स्थिति पर आधारित पंचांग (विषुवतीय पांचांग) के अनुसार? सौर वर्ष का तात्पर्य उस कालावधि से, समय से है जो सूर्य द्वारा मौसम चक्र मे एक स्थान से चलकर पुनः उसी स्थान पर आने मे लिया जाता है अर्थात सूर्य द्वारा एक अक्षांश से दूसरे अक्षांश तक पर उसी स्थान पर पहुँचने के मध्य की कालावधि सौर चक्र कहलती है।


प्रचलित ग्रेगोरियन वर्ष की अवधि विषुवतीय अक्षांशों के मध्य अंतर के सटीक मापन के अभाव मे वास्तविक वर्ष (पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा हेतु लिया जाने वाला समय) के बराबर नहीं है। ग्रेगोरियन वर्ष वास्तविक एक वर्ष से लगभग 20 मिनट छोटा है। यह 20 मिनट की अवधि एक लंबे कालखंड मे धीरे धीरे एकत्रित होकर काल गणना मे बहुत बड़ा अंतर पैदा करती है। भारतीय पांचांग नक्षत्र वर्ष पर आधारित है जो कि काल मापन हेतु अधिक सटीक तथा उपयुक्त है क्योंकि सूर्य निश्चित समय पर ही विभिन्न स्थिर नक्षत्रों (उदाहरण-ध्रुव तारा) से होकर गुज़रता है। यह निरीक्षण तथा मापन हेतु आसान है तथा कृषिगत गतिविधियों का समय तय करने हेतु अत्यंत उपयुक्त है।

ग्रेगोरियन कैलेंडर मे सुधार की आवश्यकता इसलिए महसूस की गयी क्योंकि रोमन लोग अंश गणना मे बहुत कमजोर थे अतः उन्होने जूलियन कैलेंडर मे वर्ष की कालावधि बहुत ही अपरिष्कृत रूप से तय कर दी थी। जूलियन कैलेंडर प्रत्येक 128 दिन बाद 1 दिन पीछे हट जाता था। 1582 ईस्वी तक यह 1250 वर्षों में 10 दिन तक खिसक चुका था क्योंकि काउंसिल ऑफ नीशिया ने कैलेंडर पर ईस्टर का दिन तय करने हेतु वसंत के आगमन का दिन 21 मार्च तय कर दिया था। 16 वी शताब्दी के आते आते वसंत आगमन का दिन 21 की बजाय 11 मार्च को
पड़ने लगा। ग्रेगोरियन सुधार समिति ने इस विसंगति को सुधारने हेतु कैलेंडर को 10 दिन आगे खिसका दिया तथा शताब्दी के प्रत्येकवर्ष की बजाय केवल उसी वर्ष को लीप वर्ष घोषित किया जिसमे 400 का भाग दिया जा सकता था। (उदाहरण-सन 2000)। इस तरह ग्रेगोरियन काल गणना विषुवतीय सौर चक्र की गणना के कुछ निकट आ गयी।

चौंकाने वाली बात यह थी कि स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय पांचाग सुधार समिति ने ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपनाया और कहा कि मौसम विषुवतीय वर्ष पर आधारित होता है! ऊपरी तौर पर विषुवतीय वर्ष कई ज्योतिषीय सिद्धांतों यथा सूर्य सिद्धान्त तथा पंचसिद्धान्तिका द्वारा समर्थित प्रतीत होता है किन्तु वास्तव मे उन्हे गलत पढ़ा और समझा गया है। यहाँ तक की वराहमिहिर तथा पंचसिद्धांतिका  के पूर्व आर्यभट्ट ने भी स्पष्ट रूप से नक्षत्र आधारित पांचाग का समर्थन किया है। मार्क्सवादी इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि भारतीय कृषि नक्षत्रों पर आधारित थी।

आधुनिक भारत ने मानसून का गंभीर अध्ययन नहीं किया है, जबकि आज भी अच्छे मानसून का अर्थ है अच्छा व्यापार और सुदृढ़ अर्थव्यवस्था। भारतीय वैज्ञानिक स्वर्गीय श्री मेघनाद साहा मानते थे कि मानसून हेतु तापांतर संतुलन ही मायने रखता है;  सी.के. राजू का मत है कि पवनों के चलने की पद्धति इसका निर्धारक तत्व है। किन्तु वे यह भी कहते हैं कि मानसून निर्धारण के सटीक प्रतिमान स्थापित करने हेतु वृहद स्तर पर अध्ययन की ज़रूरत है। हमारे पूर्वजों ने 5000 पांचाग निर्मित किए थे जिनमे से प्रत्येक पांचांग अपनी अक्षांश स्थिति के अनुसार निर्धारित किया गया था।

(अक्षांश अंतर की वजह से ही दिल्ली की अपेक्षा केरल मे मानसून बहुत पहले आ जाता है) यहाँ अत्यंत मजबूत सांस्कृतिक संदर्भ है कि भारतीय पांचांग वर्षा ऋतु के इर्द-गिर्द घूमता है क्योंकि हमारा वर्ष, वर्षा से संबन्धित है। यह सटीक गणना कृषि के लिए सदैव प्रासंगिक है क्योंकि मानसून आगमन निर्धारण मे ज़रा सि चूक कृषि कार्यों व उत्पादन मे कहर बरपा सकती है। नेहरूवादी विचारधारा की ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ के प्रति अंधभक्ति ने मानसून व ऋतु निर्धारण हेतु गुलामों की तरह ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपनाने पर ज़ोर दिया, यद्यपि सावधानीपूर्ण विश्लेषण यह दर्शाता है कि प्रतिवर्ष मानसून हमारी भारतीय पांचाग पद्धति के अनुसार आता है। फिर भी ‘वैज्ञानिक’ मानसून की ‘देरी’ के विषय मे मिमियाते रहते हैं। इतिहास से सबक लेने हेतु तयार ना होकर उन्होने कृषकों को बर्बाद कर दिया है। हिन्दू पंचांग आधारित कृषि का मूल आधार मानसून है ना कि गर्मी या सर्दी की ऋतुएँ जो यूरोप के लिए प्रासंगिक हो सकती हैं। मानसून पवनों के बहाव पर निर्भर होता है।

पृथ्वी पर पवनों का चलना केवल सूर्य पर आधारित नहीं है। विषुवत रेखा पर गरम हवाएँ ऊपर की ओर उठती हैं किन्तु ध्रुवों की ओर नहीं बढ़ती हैं। पृथ्वी के घूर्णन बल  से उत्पन्न होने वाले बल के फलस्वरूप पवनें अपने रथ को उपोष्ण कटिबन्ध ( उत्तर तथा दक्षिण मे 30 से 35 अक्षांश के मध्य।) अतः मानसून पृथ्वी के घूर्णन बल पर भी निर्भर करता है, जो एक जड़त्वीय बल है। चूंकि संभाव्य जड़त्वीय बल ढांचा नक्षत्रों के प्रति सापेक्ष रूप से निर्धारित है, अतः घूर्णन बल पृथ्वी की नक्षत्र सापेक्षचाल पर आधारित है और इसीलिए मानसून नक्षत्र पंचांग पर निर्भर है। यदि मानसून विषुवतीय पांचांग पर आधारित होता तो विषुवतीय वर्ष तथा नाक्षत्र वर्ष के बीच अंतर की वजह से भारतीय पंचांग गणना गड़बड़ा जाती किन्तु ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ। कृषकों को विषुवतीय पांचांग के चक्कर मे नक्षत्र आधारित मौसम पांचांग त्यागने हेतु विवश करने के लिये नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता तथा कथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने हमारी खाद्य सुरक्षा को ताक पर रख दिया। एक अजीब संयोग है कि आम जनमानस मे कृषि के प्रति चेतना के लुप्त होने के साथ ही विभिन्न पार्टियों के कृषि आधारित चिह्न (गाय-बछड़ा) हल और किसान (जनता लोक दल) के चुनाव चिह्न गायब हो गए। जबकि कमम्युनिस्ट पार्टी का हंसिया विनाश का प्रतीक बन गया। यह तथ्य हमारी राजनीति मे शहरीकरण के प्रति झुकाव रखती सोच तथा अर्थव्यवस्था के प्रति हमारी तुड़ी-मुड़ी विकृत समझ को दर्शाता है। जिसके बुरे परिणाम हमे ग्रसने लगे हैं।

उदारीकरण व वैश्वीकरण के 2 दशकों के पश्चात तथा उद्योग व सेवा क्षेत्रों मे हजारों करोड़ रुपयों की प्रोत्साहन राशि फूंकने के बावजूद ये क्षेत्र विकास को गति देने मे नाकाम रहे हैं, ऊपर से इन्होने देशभर मे रोजगार की उपलब्धता को बाधित ही किया है। देश की अर्थव्यवस्था अच्छे मानसून के लिए हाँफ रही है ताकि वर्तमान की दलदली परिस्थितियों से उबर सके। क्या कम से कम अब हम उदारीकरण के मिथक रूपी उस कचरा सोच से बाहर निकाल पाएंगे जिसके अनुसार कृषि और विकास मे कोई संबंध नहीं है?

Wednesday, July 18, 2012

सभी राजाओं का विवरण

महाभारत के बाद से आधुनिक काल तक के सभी राजाओं का विवरण क्रमवार तरीके से नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है...!

आपको यह जानकर एक बहुत ही आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी होगी कि महाभारत युद्ध के पश्चात् राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ियों ने 1770 वर्ष 11 माह 10 दिन तक राज्य किया था..... जिसका पूरा विवरण इस प्रकार है :
... क्र................... शासक का नाम.......... वर्ष....माह.. दिन

1. राजा युधिष्ठिर (Raja Yudhisthir)..... 36.... 08.... 25
2 राजा परीक्षित (Raja Parikshit)........ 60.... 00..... 00
3 राजा जनमेजय (Raja Janmejay).... 84.... 07...... 23
4 अश्वमेध (Ashwamedh )................. 82.....08..... 22
5 द्वैतीयरम (Dwateeyram )............... 88.... 02......08
6 क्षत्रमाल (Kshatramal)................... 81.... 11..... 27
7 चित्ररथ (Chitrarath)...................... 75......03.....18
8 दुष्टशैल्य (Dushtashailya)............... 75.....10.......24
9 राजा उग्रसेन (Raja Ugrasain)......... 78.....07.......21
10 राजा शूरसेन (Raja Shoorsain).......78....07........21
11 भुवनपति (Bhuwanpati)................69....05.......05
12 रणजीत (Ranjeet).........................65....10......04
13 श्रक्षक (Shrakshak).......................64.....07......04
14 सुखदेव (Sukhdev)........................62....00.......24
15 नरहरिदेव (Narharidev).................51.....10.......02
16 शुचिरथ (Suchirath).....................42......11.......02
17 शूरसेन द्वितीय (Shoorsain II)........58.....10.......08
18 पर्वतसेन (Parvatsain )..................55.....08.......10
19 मेधावी (Medhawi)........................52.....10......10
20 सोनचीर (Soncheer).....................50.....08.......21
21 भीमदेव (Bheemdev)....................47......09.......20
22 नरहिरदेव द्वितीय (Nraharidev II)...45.....11.......23
23 पूरनमाल (Pooranmal)..................44.....08.......07
24 कर्दवी (Kardavi)...........................44.....10........08
25 अलामामिक (Alamamik)...............50....11........08
26 उदयपाल (Udaipal).......................38....09........00
27 दुवानमल (Duwanmal)..................40....10.......26
28 दामात (Damaat)..........................32....00.......00
29 भीमपाल (Bheempal)...................58....05........08
30 क्षेमक (Kshemak)........................48....11........21



इसके बाद ....क्षेमक के प्रधानमन्त्री विश्व ने क्षेमक का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 14 पीढ़ियों ने 500 वर्ष 3 माह 17 दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 विश्व (Vishwa)......................... 17 3 29
2 पुरसेनी (Purseni)..................... 42 8 21
3 वीरसेनी (Veerseni).................. 52 10 07
4 अंगशायी (Anangshayi)........... 47 08 23
5 हरिजित (Harijit).................... 35 09 17
6 परमसेनी (Paramseni)............. 44 02 23
7 सुखपाताल (Sukhpatal)......... 30 02 21
8 काद्रुत (Kadrut)................... 42 09 24
9 सज्ज (Sajj)........................ 32 02 14
10 आम्रचूड़ (Amarchud)......... 27 03 16
11 अमिपाल (Amipal) .............22 11 25
12 दशरथ (Dashrath)............... 25 04 12
13 वीरसाल (Veersaal)...............31 08 11
14 वीरसालसेन (Veersaalsen).......47 0 14

इसके उपरांत...राजा वीरसालसेन के प्रधानमन्त्री वीरमाह ने वीरसालसेन का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 445 वर्ष 5 माह 3 दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 राजा वीरमाह (Raja Veermaha)......... 35 10 8
2 अजितसिंह (Ajitsingh)...................... 27 7 19
3 सर्वदत्त (Sarvadatta)..........................28 3 10
4 भुवनपति (Bhuwanpati)...................15 4 10
5 वीरसेन (Veersen)............................21 2 13
6 महिपाल (Mahipal)............................40 8 7
7 शत्रुशाल (Shatrushaal).....................26 4 3
8 संघराज (Sanghraj)........................17 2 10
9 तेजपाल (Tejpal).........................28 11 10
10 मानिकचंद (Manikchand)............37 7 21
11 कामसेनी (Kamseni)..................42 5 10
12 शत्रुमर्दन (Shatrumardan)..........8 11 13
13 जीवनलोक (Jeevanlok).............28 9 17
14 हरिराव (Harirao)......................26 10 29
15 वीरसेन द्वितीय (Veersen II)........35 2 20
16 आदित्यकेतु (Adityaketu)..........23 11 13

ततपश्चात् प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण इस प्रकार है ..

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 राजा धनधर (Raja Dhandhar)...........23 11 13
2 महर्षि (Maharshi)...............................41 2 29
3 संरछि (Sanrachhi)............................50 10 19
4 महायुध (Mahayudha).........................30 3 8
5 दुर्नाथ (Durnath)...............................28 5 25
6 जीवनराज (Jeevanraj).......................45 2 5
7 रुद्रसेन (Rudrasen)..........................47 4 28
8 आरिलक (Aarilak)..........................52 10 8
9 राजपाल (Rajpal)..............................36 0 0

उसके बाद ...सामन्त महानपाल ने राजपाल का वध करके 14 वर्ष तक राज्य किया। अवन्तिका (वर्तमान उज्जैन) के विक्रमादित्य ने महानपाल का वध करके 93 वर्ष तक राज्य किया। विक्रमादित्य का वध समुद्रपाल ने किया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 372 वर्ष 4 माह 27 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 समुद्रपाल (Samudrapal).............54 2 20
2 चन्द्रपाल (Chandrapal)................36 5 4
3 सहपाल (Sahaypal)...................11 4 11
4 देवपाल (Devpal).....................27 1 28
5 नरसिंहपाल (Narsighpal).........18 0 20
6 सामपाल (Sampal)...............27 1 17
7 रघुपाल (Raghupal)...........22 3 25
8 गोविन्दपाल (Govindpal)........27 1 17
9 अमृतपाल (Amratpal).........36 10 13
10 बालिपाल (Balipal).........12 5 27
11 महिपाल (Mahipal)...........13 8 4
12 हरिपाल (Haripal)..........14 8 4
13 सीसपाल (Seespal).......11 10 13
14 मदनपाल (Madanpal)......17 10 19
15 कर्मपाल (Karmpal)........16 2 2
16 विक्रमपाल (Vikrampal).....24 11 13

टिप : कुछ ग्रंथों में सीसपाल के स्थान पर भीमपाल का उल्लेख मिलता है, सम्भव है कि उसके दो नाम रहे हों।

इसके उपरांत .....विक्रमपाल ने पश्चिम में स्थित राजा मालकचन्द बोहरा के राज्य पर आक्रमण कर दिया जिसमे मालकचन्द बोहरा की विजय हुई और विक्रमपाल मारा गया। मालकचन्द बोहरा की 10 पीढ़ियों ने 191 वर्ष 1 माह 16 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 मालकचन्द (Malukhchand) 54 2 10
2 विक्रमचन्द (Vikramchand) 12 7 12
3 मानकचन्द (Manakchand) 10 0 5
4 रामचन्द (Ramchand) 13 11 8
5 हरिचंद (Harichand) 14 9 24
6 कल्याणचन्द (Kalyanchand) 10 5 4
7 भीमचन्द (Bhimchand) 16 2 9
8 लोवचन्द (Lovchand) 26 3 22
9 गोविन्दचन्द (Govindchand) 31 7 12
10 रानी पद्मावती (Rani Padmavati) 1 0 0

रानी पद्मावती गोविन्दचन्द की पत्नी थीं। कोई सन्तान न होने के कारण पद्मावती ने हरिप्रेम वैरागी को सिंहासनारूढ़ किया जिसकी पीढ़ियों ने 50 वर्ष 0 माह 12 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 हरिप्रेम (Hariprem) 7 5 16
2 गोविन्दप्रेम (Govindprem) 20 2 8
3 गोपालप्रेम (Gopalprem) 15 7 28
4 महाबाहु (Mahabahu) 6 8 29

इसके बाद.......राजा महाबाहु ने सन्यास ले लिया । इस पर बंगाल के अधिसेन ने उसके राज्य पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। अधिसेन की 12 पीढ़ियों ने 152 वर्ष 11 माह 2 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 अधिसेन (Adhisen) 18 5 21
2 विल्वसेन (Vilavalsen) 12 4 2
3 केशवसेन (Keshavsen) 15 7 12
4 माधवसेन (Madhavsen) 12 4 2
5 मयूरसेन (Mayursen) 20 11 27
6 भीमसेन (Bhimsen) 5 10 9
7 कल्याणसेन (Kalyansen) 4 8 21
8 हरिसेन (Harisen) 12 0 25
9 क्षेमसेन (Kshemsen) 8 11 15
10 नारायणसेन (Narayansen) 2 2 29
11 लक्ष्मीसेन (Lakshmisen) 26 10 0
12 दामोदरसेन (Damodarsen) 11 5 19

लेकिन जब ....दामोदरसेन ने उमराव दीपसिंह को प्रताड़ित किया तो दीपसिंह ने सेना की सहायता से दामोदरसेन का वध करके राज्य पर अधिकार कर लिया तथा उसकी 6 पीढ़ियों ने 107 वर्ष 6 माह 22 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 दीपसिंह (Deepsingh) 17 1 26
2 राजसिंह (Rajsingh) 14 5 0
3 रणसिंह (Ransingh) 9 8 11
4 नरसिंह (Narsingh) 45 0 15
5 हरिसिंह (Harisingh) 13 2 29
6 जीवनसिंह (Jeevansingh) 8 0 1

पृथ्वीराज चौहान ने जीवनसिंह पर आक्रमण करके तथा उसका वध करके राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पृथ्वीराज चौहान की 5 पीढ़ियों ने 86 वर्ष 0 माह 20 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 पृथ्वीराज (Prathviraj) 12 2 19
2 अभयपाल (Abhayapal) 14 5 17
3 दुर्जनपाल (Durjanpal) 11 4 14
4 उदयपाल (Udayapal) 11 7 3
5 यशपाल (Yashpal) 36 4 27

विक्रम संवत 1249 (1193 AD) में मोहम्मद गोरी ने यशपाल पर आक्रमण कर उसे प्रयाग के कारागार में डाल दिया और उसके राज्य को अधिकार में ले लिया।

इस जानकारी का स्रोत स्वामी दयानन्द सरस्वती के सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ, चित्तौड़गढ़ राजस्थान से प्रकाशित पत्रिका हरिशचन्द्रिका और मोहनचन्द्रिका के विक्रम संवत1939 के अंक और कुछ अन्य संस्कृत ग्रंथ है।

Monday, July 16, 2012

अभिवादन शीलस्य नित्यं वृधोपसेविन |

अभिवादन शीलस्य नित्यं वृधोपसेविन |

चत्वारि तस्य वर्धन्तॆ आयुर्विद्या यशॊ बलम् ||



अर्थात :- अपने माता पिता , गुरुजन , को नित्य नमस्कार करने वाले , सेवा करने वाले व्यक्तियों के चार गुण सदैव बढ़ते रहते है |

१-आयु

२-यश

३-विद्या

४-बल



अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पुज्यानांच विमानना |

त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम् ||



जहाँ अयोग्य का सम्मान हो , योग्य का तिरस्कार हो वहां तीन घटनाये अवश्य घटित होती है |

१-अकाल

२-आकस्मिक मृत्यु

३-भय का वातावरण

और आज भारत में यह यही हालात है जो किसी से छुपा भी नहीं है ||




आज सामर्थवान हिन्दू को आवश्यकता है की समय समय पर उसे अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते रहना चाहिए | कंही ऐसा ना हो सामर्थवान हिन्दू अपने सामर्थ के गरूर में अपनी शक्ति का प्रयोग करना भूल जाए ||



बिलकुल वैसे ही जैसे भारत के अधिकतर हिन्दुओं ने अपने सामर्थ के गरूर में अपनी शक्ति का प्रयोग करना भुला दिया था और अहिंसा के नाम पर कायर और सेकुलारिजम के नाम पर नपुंसक बन बैठा ||



जब जागो तब सुबह होती है और जब आँखे बंद करो तब अन्धकार ,,

निश्चय करने वालों की ही जीत होती है ||



चाणक्य ने कहा है की जो व्यक्ति निडरता , निश्चय , निति और शौर्य से युद्ध करता है उसकी जीत अवश्य होती है |



गुरु गोविन्द सिंह जी ने भी कहा है :-

देह शिवा वर मोहे, शुभ करमन से कबहूँ ना तरूं;

कबहूँ ना डरूं, जब जाये लडूं , निश्चय कर अपनी जीत करूं



हमारे पडोसी दुश्मन मुल्क पाकिस्तान सहित जितने भी इस्लामिक मुल्क है अधिकतर के पास ४ प्रकार की सेनाये है , जितने भी पश्चिमी देश है उनके पास भी चार प्रकार की सेनाये है लेकिन हमारे पास केवल तीन (३) सेनाये है ||

इस्लामिक और इसाई प्रभुत्तव वाले देशो की चार सेनाये है :-

१-थल सेना

२-नभ सेना

३-जल सेना

४-चर्च यानी इसाइयत और शरियत और इस्लामिक जिहादी |



और इसके विपरीत भारत केवल ३ सेनाओं पर निर्भर है :- जल ,थल ,नभ ||

हार कहाँ पर और कैसे रहे है हम ??

अपने धर्म से विमुख हो कर और अपने धर्म के प्रति असवेदंशील होने पर ||



शूरा सो पह्चनिए, जो लडे दीन के हेत |

पुर्जा पुर्जा कट मरे, कबहूँ ना छाडे खेत ||



अगर इसी तरह हम नपुंसकों और कायरों की भाँती अपना , अपने धर्म का , अपनी सभ्यता , अपनी संस्कृति , अपनी माँ भारती , और माँ भारती के शूरवीर सपूतों का पतन होते खुली आँखों से देखते रहेगे तो एक दिन हमारा अंत निश्चित हो जाएगा ||



उठो , जागो प्रतिकार करो चुप मत रहो क्योकि तुम्हारा चुप रहना माँ भारती और हिंदुत्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है , इस्लामिक और इसाइयत प्रहार से भी बड़ा खतरा तुम्हारा चुप रहना है ||



इंडियन सेकुलर नहीं सनातनी भारतीय बनो , धर्म बचेगा तो राष्ट्र बचेगा नहीं तो भारत में कंही मुग्लिस्तान तो कंही दूसरा पाकिस्तान बनेगा ||



यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||



इस मन्त्र को आत्मसात करो और भगवान् श्री कृष्ण से प्रेरणा लेकर अर्जुन बनो और हर धर्म युद्ध में विजयी होने के लिए अधर्मी , लोभी और सत्ता के दलालों का सर्वनाश करो उनको सही मार्ग पर लाओ भले ही वो तुम्हारे अपने सेकुलर हिन्दू हो या विधर्मी पाकिस्तान परस्त मुस्लिम ||



उठो जवान देश की वसुंधरा पुकारती

देश है पुकारता पुकारती माँ भारती

रगों में तेरे बह रहा है खून राम श्याम का

जगदगुरु गोविंद और राजपूती शान का

तू चल पड़ा तो चल पड़ेगी साथ तेरे भारती

देश है पुकारता पुकारती माँ भारती ||

उठा खडग बढा कदम कदम कदम बढाए जा

कदम कदम पे दुश्मनो के धड़ से सर उड़ाए जा

उठेगा विश्व हांथ जोड़ करने तेरी आरती

देश है पुकारता पुकारती माँ भारती ||

तोड़कर ध्ररा को फोड़ आसमाँ की कालिमा

जगा दे सुप्रभात को फैला दे अपनी लालिमा

तेरी शुभ कीर्ति विश्व संकटों को तारती

देश है पुकारता पुकारती माँ भारती ||

है शत्रु दनदना रहा चहूँ दिशा में देश की

पता बता रही हमें किरण किरण दिनेश की

ओ चक्रवती विश्वविजयी मात्र-भू निहारती

देश है पुकारता पुकरती माँ भारती ||





सार्थक और सकरात्मक सोचो किन्तु नकरात्मक दृष्टि को ताक पर रखकर नहीं क्योकि नकरात्मक दृष्टि ही सकरात्मक सोच को जन्म देती है || जो होने वाला है उसे रोकने के लिए अभी से तैयारी करनी होगी | अन्यथा आगे जाकर देर हो चुकी होगी और पुनः भारत माँ के आँचल के टुकड़े होकर विधर्मियों के पैरों टेल रोंधे जायेगे ||



आगे आओ हे हिन्दू वीरों तुम शूरवीर हो ,, तुम भगवान् श्री राम कृष्ण के वंशज हो , तुम मंगल पांडे , आज़ाद , भगत सिंह ,राजगुरु , सुखदेव के वंसज हो | अपने ऊपर से जयचंद , मानसिंह ,गाँधी , नेहरू और शोभा सिंह जैसे कुकर्मी , अधर्मी और राष्ट्रद्रोही पूर्वजों का कलंक धो डालो ||



उठो आगे बढ़ो ,, माँ भारती तुम्हे पुकार रही है , तुम्हे निहार रही है , तुम्हे ललकार रही है उसकी रक्षा हेतु अपने धर्म का पालन करो , सनातनी बन कर भारत को अखंड भारत में बदल हुतात्मा नाथूराम गोडसे जी की पावन अस्थियों को सिन्धु के जल में प्रवाहित कर सम्पूर्ण ब्रह्मांड को गौर्वान्तित करा दो , बता दो भारत विश्व गुरु था , है और सदैव रहेगा ||

क्यों रखना चाहिए सावन सोमवार के व्रत?


क्यों रखना चाहिए सावन सोमवार के व्रत?
हिन्दू धर्म में सोमवार के दिन व्रत रखने का महत्व बताया गया है। यह शिव उपासना से कामनासिद्धि के लिए प्रसिद्ध है। खासतौर पर शिव भक्ति के विशेष काल सावन माह के सोमवार साल भर के सोमवार व्रतों का पुण्य देने वाले माने गए हैं। किंतु सोमवार व्रत रखने की एक ओर खास वजह भी है, जानिए -
ज्योतिष विज्ञान के मुताबिक यह दिन कुण्डली में चंद्र ग्रह के बुरे योग से जीवन में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए भी अहम है। दरअसल, चंद्र मानव जीवन और प्रकृति पर असर डालता है और चंद्र के बुरे प्रभाव को कम करने के लिए ही सोमवार को चंद्र पूजा और व्रत का महत्व बताया गया है। डालिए चंद्रमा के होने वाले प्रभावों पर एक नजर -
विज्ञान के मुताबिक पृथ्वी समेत अन्य सभी ग्रह सूर्य के चक्कर लगाते हैं। वहीं चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है, क्योंकि वह ग्रह न होकर एक उपग्रह है। व्यावहारिक जीवन म...ें भी हम देखते हैं कि चन्द्रमा मानव जीवन के साथ-साथ साथ-साथ पूरे जगत पर ही प्रभाव डालता है। इसका प्रमाण है पूर्णिमा की रात जब चन्द्रमा पूर्ण आकार में दिखाई देता है, तब समुद्र में आता है ज्वार। वहीं जब अमावस्या के आस-पास चन्द्रमा अदृश्य होता है, तब समुद्र पूरी तरह शांत रहता है। इस प्रकार आकाश में चन्द्रमा के आकार घटने-बढऩे के साथ-साथ पानी और अन्य तरल पदार्थों में हलचल भी कम-ज्यादा होने लगती है।
ज्योतिष विज्ञान कहता है कि चन्द्रमा हमारी पृथ्वी के सबसे नजदीक है और अपनी निकटता के कारण ही हमारे जीवन के हर कार्य व्यवहार पर सबसे अधिक असर डालता है। यही वजह है कि जिन लोगों में जल तत्व की प्रधानता होती है, वे पूर्णिमा ,के आस-पास, अधिक आक्रामक, क्रोधित, और उद्दण्ड, बने रहते हैं। जबकि, अमावस्या ,के आस-पास एकदम, शांत और, गंभी,र देखे जाते हैं।
खासतौर पर जलतत्व राशि जैसे मीन, कर्क, वृश्चिक वाले स्त्री-पुरुषों को सोमवार का व्रत और चन्द्रदेव का पूजन तो जरूर करना ही चाहिए। मानसिक शांति, मन की चंचलता को रोकने और दिमाग को संतुलित रखने के लिए तो चन्द्रदेव के निमित्त किए जाने वाला सोमवार का व्रत ही श्रेष्ठ उपाय है। चंद्रदोष शांत के लिए स्फटिक की माला पहनना तथा मोती का धारण करना शुभ होता है।
धार्मिक दृष्टि से चूंकि शास्त्रों में भगवान शिव चन्द्रमौलेश्वर यानी दूज के चांद को मस्तक पर धारण करने वाले बताए गए हैं। शिव कृपा से ही चंद्रदेव ने फिर से सौंदर्य को पाया। इसलिए सोमवार को व्रत रख शिव पूजा से चंद्र पूजा होने के साथ चंद्र दोष और रोग भी दूर हो जाते हैं। 

Sunday, July 15, 2012


नाडी परीक्षा नाडी परीक्षा के बारे में शारंगधर
संहिता ,भावप्रकाश ,योगरत्नाकर
आदि ग्रंथों में वर्णन है .महर्षि सुश्रुत
अपनी योगिक शक्ति से समस्त शरीर
की सभी नाड़ियाँ देख सकते थे .ऐलोपेथी में
तो पल्स सिर्फ दिल की धड़कन का पता लगाती है ; पर ये इससे कहीं अधिक
बताती है .आयुर्वेद में पारंगत वैद्य
नाडी परीक्षा से रोगों का पता लगाते है . इससे
ये पता चलता है की कौनसा दोष शरीर में
विद्यमान है .ये बिना किसी महँगी और
तकलीफदायक डायग्नोस्टिक तकनीक के बिलकुल सही निदान करती है . जैसे
की शरीर में कहाँ कितने साइज़ का ट्यूमर है ,
किडनी खराब है या ऐसा ही कोई भी जटिल
से जटिल रोग का पता चल जाता है .दक्ष वैद्य
हफ्ते भर पहले क्या खाया था ये भी बता देतें
है .भविष्य में क्या रोग होने की संभावना है ये भी पता चलता है . - महिलाओं का बाया और पुरुषों का दाया हाथ
देखा जाता है . - कलाई के अन्दर अंगूठे के नीचे जहां पल्स
महसूस होती है तीन उंगलियाँ रखी जाती है . - अंगूठे के पास की ऊँगली में वात , मध्य
वाली ऊँगली में पित्त और अंगूठे से दूर
वाली ऊँगली में कफ महसूस
किया जा सकता है . - वात की पल्स अनियमित और मध्यम तेज
लगेगी . - पित्त की बहुत तेज पल्स महसूस होगी . - कफ की बहुत कम और धीमी पल्स महसूस
होगी . - तीनो उंगलियाँ एक साथ रखने से हमें ये
पता चलेगा की कौनसा दोष अधिक है . - प्रारम्भिक अवस्था में ही उस दोष को कम
कर देने से रोग होता ही नहीं . - हर एक दोष की भी ८ प्रकार की पल्स
होती है ; जिससे रोग का पता चलता है , इसके
लिए अभ्यास की ज़रुरत होती है . - कभी कभी २ या ३ दोष एक साथ हो सकते है . - नाडी परीक्षा अधिकतर सुबह उठकर आधे
एक घंटे बाद करते है जिससरे हमें
अपनी प्रकृति के बारे में पता चलता है . ये भूख-
प्यास , नींद , धुप में घुमने , रात्री में टहलने
से ,मानसिक स्थिति से , भोजन से , दिन के
अलग अलग समय और मौसम से बदलती है . - चिकित्सक को थोड़ा आध्यात्मिक और
योगी होने से मदद मिलती है . सही निदान
करने वाले नाडी पकड़ते ही तीन सेकण्ड में दोष
का पता लगा लेते है .वैसे ३० सेकण्ड तक
देखना चाहिए . - मृत्यु नाडी से कुशल वैद्य भावी मृत्यु के बारे में
भी बता सकते है . - आप किस प्रकृति के है ? --वात प्रधान ,
पित्त प्रधान या कफ प्रधान या फिर
मिश्र ? खुद कर के देखे या किसी वैद्य(B.A.M.S DOCTOR) से
पता कर देखिये 

Saturday, July 14, 2012

कामिका एकादशी

आज श्रावण महीने के कृष्ण पक्ष की ग्यारहवीं तिथि है , इसे कामिका एकादशी कहते हैं , आज के व्रत की कथा इस प्रकार है :-


युधिष्ठिर ने पूछा: गोविन्द ! वासुदेव ! आपको मेरा नमस्कार है ! श्रावण के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? कृपया उसका वर्णन कीजिये ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले: राजन् ! सुनो । मैं तुम्हें एक पापनाशक उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसे पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नारदजी के पूछने पर कहा था ।

नारदजी ने प्रश्न किया: हे भगवन् ! हे कमलासन ! मैं आपसे यह सुनना चाहता हूँ कि श्रवण के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? उसके देवता कौन हैं तथा उससे कौन सा पुण्य होता है? प्रभो ! यह सब बताइये ।

ब्रह्माजी ने कहा: नारद ! सुनो । मैं सम्पूर्ण लोकों के हित की इच्छा से तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ । श्रावण मास में जो कृष्णपक्ष की एकादशी होती है, उसका नाम ‘कामिका’ है । उसके स्मरणमात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है । उस दिन श्रीधर, हरि, विष्णु, माधव और मधुसूदन आदि नामों से भगवान का पूजन करना चाहिए ।

भगवान श्रीकृष्ण के पूजन से जो फल मिलता है, वह गंगा, काशी, नैमिषारण्य तथा पुष्कर क्षेत्र में भी सुलभ नहीं है । सिंह राशि के बृहस्पति होने पर तथा व्यतीपात और दण्डयोग में गोदावरी स्नान से जिस फल की प्राप्ति होती है, वही फल भगवान श्रीकृष्ण के पूजन से भी मिलता है ।

जो समुद्र और वनसहित समूची पृथ्वी का दान करता है तथा जो ‘कामिका एकादशी’ का व्रत करता है, वे दोनों समान फल के भागी माने गये हैं ।

जो ब्यायी हुई गाय को अन्यान्य सामग्रियों सहित दान करता है, उस मनुष्य को जिस फल की प्राप्ति होती है, वही ‘कामिका एकादशी’ का व्रत करनेवाले को मिलता है । जो नरश्रेष्ठ श्रावण मास में भगवान श्रीधर का पूजन करता है, उसके द्वारा गन्धर्वों और नागों सहित सम्पूर्ण देवताओं की पूजा हो जाती है ।

अत: पापभीरु मनुष्यों को यथाशक्ति पूरा प्रयत्न करके ‘कामिका एकादशी’ के दिन श्रीहरि का पूजन करना चाहिए । जो पापरुपी पंक से भरे हुए संसार समुद्र में डूब रहे हैं, उनका उद्धार करने के लिए ‘कामिका एकादशी’ का व्रत सबसे उत्तम है । अध्यात्म विधापरायण पुरुषों को जिस फल की प्राप्ति होती है, उससे बहुत अधिक फल ‘कामिका एकादशी’ व्रत का सेवन करनेवालों को मिलता है ।
‘कामिका एकादशी’ का व्रत करनेवाला मनुष्य रात्रि में जागरण करके न तो कभी भयंकर यमदूत का दर्शन करता है और न कभी दुर्गति में ही पड़ता है ।

लालमणि, मोती, वैदूर्य और मूँगे आदि से पूजित होकर भी भगवान विष्णु वैसे संतुष्ट नहीं होते, जैसे तुलसीदल से पूजित होने पर होते हैं । जिसने तुलसी की मंजरियों से श्रीकेशव का पूजन कर लिया है, उसके जन्मभर का पाप निश्चय ही नष्ट हो जाता है ।

या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी
रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्तान्तकत्रासिनी ।
प्रत्यासत्तिविधायिनी भगवत: कृष्णस्य संरोपिता
न्यस्ता तच्चरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नम: ॥

‘जो दर्शन करने पर सारे पापसमुदाय का नाश कर देती है, स्पर्श करने पर शरीर को पवित्र बनाती है, प्रणाम करने पर रोगों का निवारण करती है, जल से सींचने पर यमराज को भी भय पहुँचाती है, आरोपित करने पर भगवान श्रीकृष्ण के समीप ले जाती है और भगवान के चरणों मे चढ़ाने पर मोक्षरुपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवी को नमस्कार है ।’

जो मनुष्य एकादशी को दिन रात दीपदान करता है, उसके पुण्य की संख्या चित्रगुप्त भी नहीं जानते । एकादशी के दिन भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख जिसका दीपक जलता है, उसके पितर स्वर्गलोक में स्थित होकर अमृतपान से तृप्त होते हैं । घी या तिल के तेल से भगवान के सामने दीपक जलाकर मनुष्य देह त्याग के पश्चात् करोड़ो दीपकों से पूजित हो स्वर्गलोक में जाता है ।’

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: युधिष्ठिर ! यह तुम्हारे सामने मैंने ‘कामिका एकादशी’ की महिमा का वर्णन किया है । ‘कामिका’ सब पातकों को हरनेवाली है, अत: मानवों को इसका व्रत अवश्य करना चाहिए । यह स्वर्गलोक तथा महान पुण्यफल प्रदान करनेवाली है । जो मनुष्य श्रद्धा के साथ इसका माहात्म्य श्रवण करता है, वह सब पापों से मुक्त हो श्रीविष्णुलोक में जाता है ।ॐ ॐ

वायु मुद्रा



परिचय-

संसार में किसी भी प्राणी को अगर कुछ दिन तक भोजन या पानी न दिया जाए तो वो कुछ भी करके कुछ दिन तक ज़िंदा रह सकता है। लेकिन अगर संसार में हवा न हो तो किसी भी प्राणी के लिए एक मिनट भी सांस लेना मुश्किल होता है। आयुर्वेद के मुताबिक वात, पित्त और कफ अगर शरीर में संतुलित रहता है तो शरीर बिल्कुल स्वस्थ रहता है जैसे ही ये तीनों असंतुलित होते है तो शरीर में रोग पैदा हो जाते हैं। जब वायु शरीर में समा जाती है तब ही शरीर स्वस्थ रहता है। अच्छे स्वास्थ्य और शांति के लिए शरीर के अंदर वायु का संतुलन होना जरूरी है। आयुर्वेद के मुताबिक शरीर के अंदर 84 तरह की वायु है। वायु चंचलता की निशानी है। वायु की विकृति मन की चंचलता को बढ़ाती है। मन को एक ही जगह स्थिर रखने में वायु-मुद्रा का इस्तेमाल किया जाता है।

मुद्रा बनाने का तरीका-

अपने हाथ की तर्जनी उंगली को मोड़कर अंगूठे की जड़ में लगाने से वायु मुद्रा बन जाती है। हाथ की बाकी सारी उंगलियां बिल्कुल सीधी रहनी चाहिए।

आसन-

वायु-मुद्रा में वज्रासन की तरह दोनों पैरों के घुटनों को मोड़कर बैठ जाएं। लेकिन रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी रहनी चाहिए और दोनो पैर अंगूठे के आगे से मिले रहने चाहिए। एड़िया सटी रहें। नितम्ब का भाग एड़ियों पर टिकाना लाभकारी होता है। जिन लोगों को भोजन न पचने का या गैस का रोग हो उनको भोजन करने के बाद 5 मिनट तक आसन के साथ इस मुद्रा को करना चाहिए।

लाभकारी-

वायु मुद्रा का इस्तेमाल करने से ध्यान में मन की चंचलता कम होती है। प्राण वायु सुषुम्णा नाड़ी में बहने लगती है।
इस मुद्रा को करने से गठिया, साइटिका, गैस का दर्द और लकवा आदि रोग दूर होते हैं।
वायु मुद्रा के रोजाना इस्तेमाल से शरीर में गैस के कारण होने वाला दर्द समाप्त हो जाता है।
इस मुद्रा को करने से घुटनों और जोड़ों में होने वाला दर्द समाप्त हो जाता है। कमर, रीढ़ और शरीर के दूसरे भागों में होने वाला दर्द भी धीरे-धीरे दूर हो जाता है।
वायु मुद्रा से गर्दन में होने वाला दर्द कुछ ही समय में चला जाता है।
वायु मुद्रा के और अच्छे परिणाम पाने के लिए इसको करने के बाद प्राणायाम करें।

विशेष-

एक्यूप्रेशर चिकित्सा के मुताबिक हाथ की तर्जनी उंगली में रीढ़ की हड्डी के खास दाब बिंदु है। इनको दबाने से रीढ़ की हड्डी के सारे रोग दूर हो जाते है और रीढ़ की हड्डी मजबूत हो जाती है। अंगूठें की जड़ में जहां तर्जनी उंगली को रखतें है वहां गले के खास भागों के संवादी बिंदु है। इनके दबाव से पूरा शरीर संतुलित और स्वस्थ होता है। इसके असर से व्यक्ति की पर्सनेलटी में चमक आती है।

सावधानियां-

इस मुद्रा को करने से शरीर का दर्द कम हो जाता है इसलिए व्यक्ति सोचता है कि इस मुद्रा को ज्यादा से ज्यादा करें लेकिन इसको ज्यादा करने से लाभ की बजाय हानि हो सकती है।
वायु मुद्रा को करने से जब दर्द हल्का हो जाए या वायु कम हो जाए तो इस मुद्रा को करना बंद कर देना चाहिए।

प्राण मुद्रा एक अत्यधिक महत्वूर्ण मुद्रा है| रहस्यमय है जिसके संबंध में ऋषि-मुनियों ने अनन्तकाल तक तप, स्वाध्याय एवं आत्मसाधना करते हुए कई महत्वपूर्ण अनुसंधान किए हैं| इसका अभ्यास प्रारंभ करते ही मानो शरीर में प्राण शक्ति को तीव्रता से उत्पन्न करनेवाला डायनमो चलने लगता है| फिर ज्यों-ज्यों प्राण शक्ति रूपी बिजली शरीर की बैटरी को चार्ज करने लगता है, त्यों-त्यों चेतना का अनुभव होने लगता है| प्राण शक्ति का संचार करनेवाली इस मुद्रा के अभ्यास से व्यक्ति शारीरिक व मानसिक दृष्टि से शक्तिशाली बन जाता है|

• ज्योतिष के हिसाब से सूर्य की अंगुली अनामिका समस्त विटामिन और प्राण शक्ति का केंद्र मानी जाती है| बुध की उंगली कनिष्ठिका युवा शक्ति व कुमारावस्था का प्रतिनिधित्व करती है अर्थात् इस मुद्रा में सूर्य-बुध की उंगलियों का अग्नि (तेज) के प्रतीक अंगूठे के साथ महत्वपूर्ण प्रयोग है| इस मुद्रा के अभ्यास से जीवन और बुध रेखा के दोष दूर होते हैं| शुक्र के अविकसित पर्वत का विकास होने लगता है|

इस मुद्रा में पृथ्वी तत्व के प्रतीक अनामिका व जल तत्व की प्रतीक कनिष्ठिका का अंगूठे अर्थात् अग्नि तत्व से मिलन होता है| इसके परिणामस्वरूप न केवल शरीर में प्राण शक्ति का संचार तेज होता है बल्कि रक्त संचार उन्नत होने से रक्त नलिकाओं की रुकावट होती है तन-मन में नवस्फूर्ति, आशा एवं उत्साह उत्पन्न होता है| यदि योग-साधना या महीनों लम्बी तपस्या के दौरान अन्न-जल न लेने से अत्यंत कृशता या कमजोरी महसूस हो रही हो तो ऐसी स्थिति में प्राण मुद्रा करने से साधक को भूख-प्यास की तीव्रता नहीं सताती| कुल मिलाकर यह मुद्रा समस्त गड़बड़ियां दूर करके शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास में सहायता करनेवाली है|

आरती क्यों और कैसे?

आरती क्यों और कैसे?

पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।

एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7]में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।

कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।

यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।

जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।

नारियल- आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।

सोना- ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है।

यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है।

तांबे का पैसा- तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।

सप्तनदियोंका जल-गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरीऔर नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी। सुपारी और पान- यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देते हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेलभी कहते हैं।

नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।

तुलसी-आयुर्र्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।

Thursday, July 12, 2012

अण्डा जहर है




भारतीय जनता की संस्कृति और स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने का यह एक विराट षडयंत्र है। अंडे के भ्रामक प्रचार से आज से दो-तीन दशक पहले जिन परिवारों को रास्ते पर पड़े अण्डे के खोल के प्रति भी ग्लानि का भाव था, इसके विपरीत उन परिवारों में आज अंडे का इस्तेमाल सामान्य बात हो गयी है।

अंडे अपने अवगुणों से हमारे शरीर के जितने ज़्यादा हानिकारक और विषैले हैं उन्हें प्रचार माध्यमों द्वारा उतना ही अधिक फायदेमंद बताकर इस जहर को आपका भोजन बनानो की साजिश की जा रही है।

अण्डा शाकाहारी नहीं होता लेकिन क्रूर व्यावसायिकता के कारण उसे शाकाहारी सिद्ध किया जा रहा है। मिशिगन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने पक्के तौर पर साबित कर दिया है कि दुनिया में कोई भी अण्डा चाहे वह सेया गया हो या बिना सेया हुआ हो, निर्जीव नहीं होता। अफलित अण्डे की सतह पर प्राप्त इलैक्ट्रिक एक्टिविटी को पोलीग्राफ पर अंकित कर वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया है कि अफलित अण्डा भी सजीव होता है। अण्डा शाकाहार नहीं, बल्कि मुर्गी का दैनिक (रज) स्राव है।

यह सरासर गलत व झूठ है कि अण्डे में प्रोटीन, खनिज, विटामिन और शरीर के लिए जरूरी सभी एमिनो एसिडस भरपूर हैं और बीमारों के लिए पचने में आसान है।

शरीर की रचना और स्नायुओं के निर्माण के लिए प्रोटीन की जरूरत होती है। उसकी रोजाना आवश्यकता प्रति कि.ग्रा. वजन पर 1 ग्राम होती है यानि 60 किलोग्राम वजन वाले व्यक्ति को प्रतिदिन 60 ग्राम प्रोटीन की जरूरत होती है जो 100 ग्राम अण्डे से मात्र 13.3 ग्राम ही मिलता है। इसकी तुलना में प्रति 100 ग्राम सोयाबीन से 43.2 ग्राम, मूँगफली से 31.5 ग्राम, मूँग और उड़द से 24, 24 ग्राम तथा मसूर से 25.1 ग्राम प्रोटीन प्राप्त होता है। शाकाहार में अण्डा व मांसाहार से कहीं अधिक प्रोटीन होते हैं। इस बात को अनेक पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने प्रमाणित किया है।

केलिफोर्निया के डियरपार्क में सेंट हेलेना हॉस्पिटल के लाईफ स्टाइल एण्ड न्यूट्रिशन प्रोग्राम के निर्देशक डॉ. जोन ए. मेक्डूगल का दावा है कि शाकाहार में जरूरत से भी ज्यादा प्रोटीन होते हैं।

1972 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के ही डॉ. एफ. स्टेर ने प्रोटीन के बारे में अध्ययन करते हुए प्रतिपादित किया कि शाकाहारी मनुष्यों में से अधिकांश को हर रोज की जरूरत से दुगना प्रोटीन अपने आहार से मिलता है। 200 अण्डे खाने से जितना विटामिन सी मिलता है उतना विटामिन सी एक नारंगी (संतरा) खाने से मिल जाता है। जितना प्रोटीन तथा कैल्शियम अण्डे में हैं उसकी अपेक्षा चने, मूँग, मटर में ज्यादा है।

ब्रिटिश हेल्थ मिनिस्टर मिसेज एडवीना क्यूरी ने चेतावनी दी कि अण्डों से मौत संभावित है क्योंकि अण्डों में सालमोनेला विष होता है जो कि स्वास्थ्य की हानि करता है। अण्डों से हार्ट अटैक की बीमारी होने की चेतावनी नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकन डॉ. ब्राउन व डॉ. गोल्डस्टीन ने दी है क्योंकि अण्डों में कोलेस्ट्राल भी बहुत पाया जाता है.

डॉ. पी.सी. सेन, स्वास्थ्य मंत्रालय, भारत सरकार ने चेतावनी दी है कि अण्डों से कैंसर होता है क्योंकि अण्डों में भोजन तंतु नहीं पाये जाते हैं तथा इनमें डी.डी.टी. विष पाया जाता है।

जानलेवा रोगों की जड़ हैः अण्डा। अण्डे व दूसरे मांसाहारी खुराक में अत्यंत जरूरी रेशातत्त्व (फाईबर्स) जरा भी नहीं होते हैं। जबकि हरी साग, सब्जी, गेहूँ, बाजरा, मकई, जौ, मूँग, चना, मटर, तिल, सोयाबीन, मूँगफली वगैरह में ये काफी मात्रा में होते हैं।

अमेरिका के डॉ. राबर्ट ग्रास की मान्यता के अनुसार अण्डे से टी.बी. और पेचिश की बीमारी भी हो जाती है। इसी तरह डॉ. जे. एम. विनकीन्स कहते हैं कि अण्डे से अल्सर होता है।

मुर्गी के अण्डों का उत्पादन बढ़े इसके लिये उसे जो हार्मोन्स दिये जाते हैं उनमें स्टील बेस्टेरोल नामक दवा महत्त्वपूर्ण है। इस दवावाली मुर्गी के अण्डे खाने से स्त्रियों को स्तन का कैंसर, हाई ब्लडप्रैशर, पीलिया जैसे रोग होने की सम्भावना रहती है। यह दवा पुरूष के पौरूषत्व को एक निश्चित अंश में नष्ट करती है। वैज्ञानिक ग्रास के निष्कर्ष के अनुसार अण्डे से खुजली जैसे त्वचा के लाइलाज रोग और लकवा भी होने की संभावना होती है।

अण्डे के गुण-अवगुण का इतना सारा विवरण पढ़ने के बाद बुद्धिमानों को उचित है कि अनजानों को इस विष के सेवन से बचाने का प्रयत्न करें। उन्हें भ्रामक प्रचार से बचायें। संतुलित शाकाहारी भोजन लेने वाले को अण्डा या अन्य मांसाहारी आहार लेने की कोई जरूरत नहीं है। शाकाहारी भोजन सस्ता, पचने में आसान और आरोग्य की दृष्टि से दोषरहित होता है। कुछ दशक पहले जब भोजन में अण्डे का कोई स्थान नहीं था तब भी हमारे बुजुर्ग तंदरूस्त रहकर लम्बी उम्र तक जीते थे। अतः अण्डे के उत्पादकों और भ्रामक प्रचार की चपेट में न आकर हमें उक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर ही अपनी इस शाकाहारी आहार संस्कृति की रक्षा करनी होगी।

आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः।

1981 में जामा पत्रिका में एक खबर छपी थी। उसमें कहा गया था कि शाकाहारी भोजन 60 से 67 प्रतिशत हृदयरोग को रोक सकता है। उसका कारण यह है कि अण्डे और दूसरे मांसाहारी भोजन में चर्बी ( कोलेस्ट्राल) की मात्रा बहुत ज्यादा होती है।

केलिफोर्निया की डॉ. केथरीन निम्मो ने अपनी पुस्तक हाऊ हेल्दीयर आर एग्ज़ में भी अण्डे के दुष्प्रभाव का वर्णन किया गया है।

वैज्ञानिकों की इन रिपोर्टों से सिद्ध होता है कि अण्डे के द्वारा हम जहर का ही सेवन कर रहे हैं। अतः हमको अपने-आपको स्वस्थ रखने व फैल रही जानलेवा बीमारीयों से बचने के लिए ऐसे आहार से दूर रहने का संकल्प करना चाहिए व दूसरों को भी इससे बचाना चाहिए।

Wednesday, July 11, 2012

विद्यार्थी-जीवनमें प्रार्थनाका महत्त्व

बालको, विद्यार्थी-जीवनमें प्रार्थनाका महत्त्व समझ लें !

‘प्रार्थना, अर्थात देवताकी शरण जाकर अपनी कामनापूर्तिके लिए याचना करना । प्रार्थनासे देवताके आशीर्वाद, शक्ति एवं चैतन्यका लाभ मिलता है । प्रार्थनाके कारण चिंताएं न्यून होती हैं, देवताके प्रति श्रद्धा बढती है तथा मन एकाग्र होता है । प्रार्थनासे अनिष्ट शक्तियोंसे रक्षा भी होती है ।
प्रार्थनाओंके कुछ उदाहरण
प्रात: समय की जानेवाली प्रार्थना
करदर्शन : दोनों हाथोंकी अंजुलि बनाकर उसपर मन एकाग्र कर निम्न श्लोक बोलें -
कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती ।
करमूले तु गोविंदः प्रभाते करदर्शनम् ।।
अर्थ : हाथके अग्रभागमें लक्ष्मी वास करती हैं । हाथके मध्यभागमें सरस्वती हैं एवं मूल भागमें गोविंद हैं; इसलिए सुबह उठते ही हाथोंके दर्शन लें ।
उपरोक्त श्लोक बोलनेके उपरांत धरती मांको निम्न प्रकारसे प्रार्थना कर भूमिपर चरण रखें ।
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमंडले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ।।
अर्थ : समुद्ररूपी वस्त्र धारण करनेवाली, पर्वतरूपी स्तनयुक्त एवं भगवान श्रीविष्णुकी पत्नी, हे पृथ्वीदेवी, मैं आपको नमस्कार करता हूं । आपको मेरे पैरोंका स्पर्श होगा, इसलिए आप मुझे क्षमा करें ।
भूमिको प्रार्थना कर, ‘समुद्रवसने देवी...’ श्लोक बोलकर भूमिपर पैर रखनेसे रात्रिके समय तमोगुणसे दूषित देहमें प्रवाहित कष्टदायक स्पंदनोंका भूमिमें विसर्जन होनेमें सहायता होती है ।’
स्नानसे पूर्व जलदेवतासे की जानेवाली प्रार्थना
हे जलदेवता, आपके पवित्र जलसे मेरे स्थूलदेहके चारों ओर आया रज-तमका काला आवरण नष्ट होने दें । बाह्यशुद्धि समान मेरा अंतर्मन भी स्वच्छ एवं निर्मल होने दें ।
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिंधु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ।।
अर्थ : हे गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु एवं कावेरी, आप समस्त नदियां मेरे स्नानके जलमें आएं ।
भोजन करते समय निम्न प्रकारसे प्रार्थना कर श्लोक बोलें -
प्रार्थना : ‘हे भगवान, इस अन्नको मैं आपका प्रसाद मानकर ही ग्रहण कर रहा / रही हूं । इस प्रसादसे मुझे शक्ति एवं चैतन्य मिलने दें ।’
अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकरप्राणवल्लभे ।
ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति ।।
अर्थ : अन्नसे पूर्ण, सदा परिपूर्ण रहनेवाली, शंकरको प्रिय, हे पार्वतीमाता, ज्ञान, वैराग्य एवं सिद्धिके लिए हमें भिक्षा दो ।
सायंकालमें की जानेवाली प्रार्थना
सायंकालमें पूजाघर, देवता एवं तुलसीके समीप दीपक जलाकर श्लोक बोलें ।
‘शुभं करोतु कल्याणं आरोग्यं सुखसंपदाम् ।
मम बुद्धिप्रकाशं च दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते ।।’
अर्थ : हमारा शुभ करनेवाली, कल्याण करनेवाली, हमें आरोग्य एवं सुखसंपदा प्रदान कर, बुद्धिको शुद्ध करनेवाली हे दीपज्योति, आपको हमारा नमस्कार है ।
इस श्लोकद्वारा दीपककी स्तुतिसे अनिष्ट शक्तियोंको भगानेका कार्य किया जाता है ।’
स्तोत्रपाठसे निर्माण होनेवाले सात्त्विक स्पदंनोंसे घरकी शुद्धि होती है । इससे अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट भी न्यून होता है ।
रात्रि सोनेसे पूर्व की जानेवाली प्रार्थना
संपूर्ण दिनमें किए समस्त कर्मोंको ईश्वरको अर्पण कर, उनके चरणोंमें कृतज्ञता व्यक्त करें । इसीके साथ अनिष्ट शक्तियोंसे संरक्षणहेतु अपने चारों ओर सुरक्षाकवच निर्माण होनेके लिए प्रार्थना करें ।
पढाई करते समय की जानेवाली प्रार्थना
पढाई आरंभ करनेसे पूर्व मन ही मन श्रीगणेश-वंदना एवं प्रार्थना करें, ‘हे श्रीगणेश, आप विघ्नहर्ता एवं बुद्धिदाता हैं । मेरी पढाईमें सर्व प्रकारकी बाधाओं को दूर करनेकी कृपा करें । मेरी पढाई अच्छी होनेके लिए आप मुझे सुबुद्धि एवं शक्ति प्रदान करें ।’
तदुपरांत मन ही मन श्री सरस्वती-वंदना एवं प्रार्थना करें, ‘श्री शारदादेवी, आप साक्षात विद्याकी देवी हैं । मेरी पढाई अच्छी होनेके लिए आप मेरा मार्गदर्शन करें ।
पढाई पूर्ण होनेपर कृतज्ञता व्यक्त करें - ‘हे ईश्वर आपकी कृपासे ही पढाई योग्य ढंगसे हो पाई ।

Tuesday, July 10, 2012

भगवान श्री राम के वंश का विवरण :


भगवान श्री राम के वंश का विवरण :

हिंदू धर्म में राम को विष्णु का सातवाँ अवतार माना जाता है। वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे - इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था। जैन धर्म के तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे। मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र, रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी। रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है:

ब्रह्माजी से मरीचि हुए.
मरीचि के पुत्र कश्यप हुए.
कश्यप के पुत्र विवस्वान थे.
विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए. वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था.
वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।
इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए.
कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था.
विकुक्षि के पुत्र बाण हुए.
बाण के पुत्र अनरण्य हुए.
अनरण्य से पृथु हुए.
पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ.
त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए.
धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था.
युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए.
मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ.
सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित.
ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए।
भरत के पुत्र असित हुए.
असित के पुत्र सगर हुए.
सगर के पुत्र का नाम असमंज था.
असमंज के पुत्र अंशुमान हुए.
अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए.
दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतरा था.
भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे.
ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए. रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब राम के कुल को रघुकुल भी कहा जाता है।
रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए.
प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे.
शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए.
सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था.
अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए.
शीघ्रग के पुत्र मरु हुए.
मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे.
प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए.
अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था.
नहुष के पुत्र ययाति हुए.
ययाति के पुत्र नाभाग हुए.
नाभाग के पुत्र का नाम अज था.
अज के पुत्र दशरथ हुए.
दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए. इस प्रकार ब्रम्हा की उन्चालिसवी पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ ll

Monday, July 9, 2012

भोलेनाथ

कल्याण और विश्वास के प्रतीक भोलेनाथ आशुतोष शिव की परम साधना के श्रावण मास की चतुर्दशी को जलाभिषेक का विशेष महत्व है। कांवड़ देश के अनगिनत स्थानों पर स्थित शिवलिंगों पर चढ़ाई जाती है। इसका उद्देश्य देवाधिदेव महादेव को प्रसन्न करना है।
घर से जब कावड़ियाँ संकल्प उठाता है तभी से उसका ‘कावड़’ प्रारम्भ हो जाता है। कई कावड़िये तो गोमुख तक भी जाते है। वहाँ गंगा स्नान करके अपने तन-मन को पवित्र बनाकर, भभूत लपेट कर, पवित्र-घट में संकल्पपूर्वक गंगा-जल भरकर उसकी पूजा करते हैं। फिर ‘हर हर महादेव’ का जयकारा लगाकर ‘कावड़’ उठा लेते हैं। हर कावड़िया एक तपस्वी होता है, अतः उसे तपस्वी के कठोर नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। सबसे पहले भगवान शंकर को ‘कावड़’ किसने चढ़ाया यह तो एक रहस्य ही है। परन्तु पुराणों और लौकिक कथाओं के माध्यम से पता चलता है कि जिस समय सुर-असुर मिलकर उदधि मन्थन कर रहे थे उसी समय महाकाल की ज्वाला जैसा धधकता हुआ हलाहल विष प्रकट हुआ। उस काले कालकूट से हर कोई प्राणी भयभीत हो उठा। देवता तक पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। भगवान विष्णु का तो रंग ही उसकी ज्वाला से काला हो गया और वे श्यामसुन्दर बन गये। तब देवताओं और दानवों की सभा में भयंकर कोलाहल हुआ कि कौन धारण करेगा यह जहर? हर की नज़र हर की नज़र पर थी, लेकिन सब संशंकित थे कि बाबा ने मना कर दिया तो क्या होगा? भगवान विष्णु आगे आये और भोलेनाथ से निवेदन किया – हे भगवन्! लोक कल्याण के लिये यह ‘कल्मष’ आप ही धारण करें। एक तरफ हृषीकेश का आग्रह और दूसरी तरफ पार्वती का निषेध। किसकी मानें और किसको मना करें? भगवान भोलेनाथ ने प्याला उठाया और पी लिया उस जहर को। न बाहर रखा न अंदर जाने दिया। क्योंकि अंदर तो सारा ब्रह्माण्ड है, अंदर जहर जाता तो सारे प्राणी मर जाते। बाहर रहता तो भय और अंदर जाता तो नाश। इसलिए बाबा ने कण्ठ में ही उसे धारण कर लिया और भक्त पुकार उठे – “जय हो नीलकण्ठ महादेव की!” लोकोक्ति है कि उस जहर के ताप से भगवान भोले नाथ भी बावले हो उठे। शिव तो लीलाधारी हैं, कब कैसी लीला करेगें वे ही जानते है। सागर एवं पर्वत मालाओं को लाँघते-लाँघते बाबा हृषीकेश हिमालयखण्ड में आ बैठे। वहीं पर देवताओं ने गंगाजल के द्वारा उनका महाभिषेक किया और तब से नीलकण्ठ महादेव प्रतिष्ठापित हो गये। सबसे पहले देवताओं ने ही महादेव का महाभिषेक और महाश्रृंगार किया। रावण भी भगवान शंकर का अभिषेक गंगाजल से करता था। यहाँ तक कि अभिषेक के लिये अपनी लंका नगरी में उसने गंगाजल का कुण्ड बना दिया था जहां से वह स्वयं जल लाकर शिव का अभिषेक करता था। रामायण में प्रसिद्ध है कि युद्ध के समय भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने शिवजी की प्रसन्नता के लिये शिवलिंग स्थापित कर स्वयं अपने करकमलों से अनेक तीर्थों से लाये गये पवित्र जल के द्वारा ‘रामेश्वर’ ज्योर्तिलिंग का महाभिषेक किया और रावण के ऊपर विजय प्राप्त की। उसी की स्मृति में आज भी लोग गोमुख से रामेश्वरम् तक की कठिन पैदल यात्रा करके गोमुख से लाये गये जल को भगवान ‘रामेश्वर’ को अर्पित कर अपना जीवन धन्य बनाते हैं।
‘कावड़’ के प्रसंग में ही एक प्राचीन कथानक स्मरणीय है—एक बार संत एकनाथ जी गंगोत्री से गंगाजल भरकर यानि ‘कावड़’ उठाकर, रामेश्वर की ओर पैदल यात्रा करते हुये ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ पानी का अत्यन्त अभाव था। उनके साथ में कई संगी-साथी भी थे । उसी रास्ते में बिन पानी के एक गदहा तड़प रहा था। लोग उसे देखते और आगे निकल जाते। एकनाथजी उस रास्ते से जाते समय यह नज़ारा देखकर शास्त्रों की, संतो की यह बात याद करने लगे कि हर प्राणी में शिव का वास है। यह देह ही देवालय है और इस देह में यह चेतन देव ही शिव है। जब गदहे के रुप में यह चेतन देव तड़प रहे हैं तो इन्हें छोड़कर मैं रामेश्वर कैसे जा सकता हूँ? मैं तो अपने शिव को यहीं मनाऊँगा। ऐसा सोचकर वह हर-हर महादेव कहते हुए गंगाजल गदहे के मुँह में डालने लगे। उनके सभी संगी-साथियों ने बहुत समझाया कि अरे! ये तो गदहा है। मर भी जायेगा तो क्या फर्क पड़ जाएगा? लेकिन एकनाथ तो सच्चे संत थे। हर जीव में शिव का दर्शन करते थे। और चमत्कार यह हुआ कि उसी गदहे के मुख में उन्हें भगवान भोलेनाथ का दर्शन हो गया। सारी मनोकामनायें पूर्ण हो गयीं। किसी प्राणी का अपमान करके किया हुआ पूजन कभी सफल नहीं होता है। किसी पीड़ित की उपेक्षा करना शिव का ही अपमान है।
दूसरी कथा है कि प्रसिद्ध संत नामदेव महाराज कावड़ लेकर शिवाभिषेक के लिये प्रस्थान कर चुके थे। आधा रास्ता तय हो चुका था लेकिन बाबा भोलेनाथ बीच में ही परीक्षा लेने लग गये। उन्होंने साँड बनकर गंगाजल के घट को तोड़कर नष्ट कर दिया। जल जमीन पर बिखर गया पर नामदेवजी ने हार नहीं मानी। दूसरी बार जल भरकर फिर उसी रास्ते से आ पड़े और फिर वही लीला हुई। जब बिना क्रोध किये तीसरी बार जल भरने के लिये प्रस्थान करने लगे तो भगवान महेश्वर ने अपने गणों सहित वहीं पर दर्शन देकर नामदेवजी को कृतार्थ किया और उनकी शिवयात्रा शिवसंकल्प-शिव पर जाकर पूर्ण हुई।
हर कल्प में कपाली की कौतुकमयी लीला होती है। हिमाचल में भी भगवान शंकर का ‘नीलकंठ महादेव’ नाम से प्रसिद्ध स्थान है जो मणिकूट, विष्णुकूट और ब्रह्मकूट पर्वत के मध्य तथा मणिभद्रा एवं चन्द्रभद्रा नदी के संगम पर स्थित है। वहाँ भी भगवान वटवृक्ष के मूल में समाधिस्थ होकर विष की विषमता को शमन करते हुये समता अभ्यास कर रहे थे और 40 हजार वर्ष तक देवताओं को इसका पता नही चला। अंत में देवताओं ने महादेव का महाभिषेक सम्पन्न किया। इन समस्त पौराणिक व लौकिक आख्यानों से यह पता चलता है कि ‘कावड़’ चढ़ाने की प्रथा अत्यंत प्राचीन है और हर शिव भक्त जीवन में एक बार बाबा का अवश्य तपपूर्वक अभिषेक करना चाहता है। राजोपचार तो सभी के लिये संभव नहीं है, अतः जल मात्र से ही शंकर संतुष्ट हो जाते हैं।
अस्तु! कावड़ उठाने वाला भक्त शिव-साधक है, शिवयोगी है। शिव के मार्ग पर अपने को समर्पित करने वाला भक्त सामान्य नहीं होता। वह शिव की तरह ही सहनशील होता है। मन-वाणी या कर्म से किसी भी प्राणी का वह अपकार नहीं करता। सबमें एकमात्र सदाशिव का ही दर्शन करता है। वह केवल घट में ही पवित्र जल नहीं भरता है, अपितु अपने काया रूपी घट में जो ऊपरी भाग मस्तिष्क है, उसमें और हृदय में ज्ञान और प्रेम भरकर अपने को परम-पुनीत बनाता है। जब कावड़ के दो घट पूर्ण कर लिये जाते हैं तो उसे एक बाँस की डण्डी में सजा-धजा कर और पूजित करके स्थापित कर दिया जाता है। पहला है ब्रह्मघट और दूसरा है विष्णुघट। रुद्र तो साक्षात् बाँस में ही प्रतिष्ठापित है। वेणुगीत में बाँस की बाँसुरी को साक्षात् रुद्र स्वीकार किया गया है। यानि कावड़ियाँ अपने को साक्षात् ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मक समझकर ही शिव की पूजा करे। कावड़ ले जाते समय शुद्धता का बड़ा ध्यान रखा जाता है। जब तक कावड़ अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच जाये, तब तक धरती पर नहीं रखा जाता। उसे किसी बाँस-बल्ली के आधार (स्टैंड) पर ही रखा जाता है। कावड़ में कन्धा बदलते समय भी यह ध्यान रखा जाता है कि पीछे से न बदलें। उसे आगे से घुमाकर ही दूसरे कन्धे पर लेवें। एक काँवड़ को दूसरे के ऊपर से भी नहीं गुजारते। यह अपराध है। रास्ते में गूलर का पेड़ पड़ जाये तो उसके नीचे से भी नहीं गुजरते क्योंकि वह कर्म का प्रतीक है और साधक ज्ञान की तरफ बढ़ रहा है। नींद आना भी अशुद्धता है, इसलिए सोने के बाद स्नान और प्रार्थनापूर्वक ही काँवड़ उठाया जाता है।

Thursday, July 5, 2012

यज्ञ - हवन

यज्ञ - हवन

कल तक यज्ञ-हवन को आध्यात्मिक बताकर तमाम नास्तिकों द्वारा सिरे से खारिज कर देने वालों को अब स्वस्थ जीवन और प्रदूषणमुक्त वातावरण के लिए यज्ञ और हवन की शरण में जाना ही पड़ेगा। यह अब केवल ऋग्वेद में उल्लिखित प्राचीन सत्य ही नहीं है बल्कि आधुनिक वैज्ञानिकों ने इसे 21वीं शताब्दी में परिक्षण की कसौटी पर कस कर फायदेमंद साबित कर दिखाया है।

एनबीआरआई के वैज्ञानिकों ने इस सत्य के पक्ष में वर्ष 2007 में तथ्य और प्रमाण जुटाए पर अग्निहोत्र के नाम पर बीते छह दशक से आहुतियों के असर का प्रयोग अनवरत जारी है। दूसरी ओर सिद्धार्थनगर जनपद में वेद विद्यापीठ चला रहे तेजमणि त्रिपाठी एक दशक से लोगों को यज्ञ और हवन से लाभ तो दिला ही रहे हैं साथ ही साथ आहुतियों और हवन के असर का अहसास कराने में जुटे हुए हैं ।

लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआई) के वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में काफी काम किया है । हरिद्वार के गुरुकुल काँगड़ी फार्मेसी के सहयोग से उन्होंने बीते साल हरिद्वार में हवन कार्य की सहायता से यह निष्कर्ष जुटाने में कामयाबी पाई है कि वायुमंडल में व्याप्त 94 फीसदी जीवाणुओं को सिर्फ हवन द्वारा नष्ट किया जा सकता है। इतना ही नहीं एक बार हवन करने के बाद तीस दिन तक उसका असर रहता है।

एनबीआरआई के वैज्ञानिक चंद्रशेखर नौटियाल कहते हैं, 'हवन के माध्यम से बीमारियों से छुटकारा पाने का जिक्र ऋग्वेद में भी है। करीब दस हजार साल पहले से भारत के साथ-साथ अन्य देशों में भी हवन की परंपरा चली आ रही है जिसके माध्यम से वातावरण को प्रदूषण मुक्त बनाया जा सकता है।'

एनबीआरआई के दो अन्य वैज्ञानिक पुनीत सिंह चौहान और यशवंत लक्ष्मण नेने ने भी डॉ. नौटियाल के साथ हवन के स्वास्थ्य और वातावरण पर प्रभाव पर शोध किया है। इनके लंबे-चौड़े शोध प्रबंध का छह पेज का सार यह बताता है कि हवन में बेल, नीम और आम की लकड़ी, पलाश का पौधा, कलीगंज, देवदार की जड़, गूलर की छाल और पत्ती, पीपल की छाल और तना, बेर, आम की पत्ती और तना, चंदन की लकड़ी, तिल, जामुन की कोमल पत्ती, अश्वगंधा की जड़, तमाल यानि कपूर, लौंग, चावल, जौ, ब्राम्ही, मुलैठी की जड़, बहेड़ा का फल और हर्रे के साथ-साथ तमाम औषधीय और सुगंधित वनस्पतियों को डालकर बंद कमरे में हवन करने से 94 फीसदी जीवाणु मर जाते हैं।

एनबीआरआई के वैज्ञानिकों ने हवन का प्रभाव भले ही दो वर्ष पहले साबित करने में कामयाबी पाई हो लेकिन तकरीबन छह दशकों से अधिक समय से महाराष्ट्र के शिवपुर जिले के वेद विज्ञान अनुसंधान संस्थान के लोग अग्निहोत्र पात्र में हवन को वातावरण को प्रदूषणमुक्त बनाने के साथ-साथ अच्छी सेहत के लिए जरूरी बताते चले आ रहे हैं।

संस्थान के निदेशक डा. पुरुषोत्तम राजिम वाले ने विशेष बातचीत में कहा, 'साठ-सत्तर देशों में हम लोग हवन के फायदे का प्रचार कर चुके हैं। परमसदगुरु श्री गजानन महाराज ने विश्व भर में हवन का महत्व बताने के लिए यह अभियान शुरू किया था लेकिन अब माइक्रोबायलॉजी से जुड़े तमाम वैज्ञानिक ही नहीं कृषि वैज्ञानिक भी अपने शोधों के माध्यम से यह साबित करने में कामयाब हुए हैं कि हवन से सेहत और वातावरण के साथ-साथ कृषि की उपज को भी बढ़ाया जा सकता है।'

NDND माइक्रोबायलॉजी के वैज्ञानिक डॉ. मोनकर ने हवन के प्रभावों के अध्ययन के बाद यह साबित करने में कामयाबी पाई है कि हवन के बाद जो वातावरण निर्मित होता है उसमें विषैले जीवाणु बहुगुणित नहीं हो पाते और बेअसर हो जाते हैं। एसटाईपी नामक प्राणघातक बैक्टीरिया हवन के बाद के वातावरण में सक्रिय ही नहीं रह पाता।

इतना ही नहीं, वेद विज्ञान अनुसंधान संस्थान के लोगों की मानें तो दिल्ली में रक्षा मंत्रालय के शोध एवं विकास विंग के कर्नल गोनोचा और डॉ. सेलवराज ने भी साबित किया है कि हवन में शामिल लोगों के नशे की लत भी दूर की जा सकती है। मन-मस्तिष्क में सकारात्मक भाव और विचारों का प्रादुर्भाव होता है। पूना विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान के वैज्ञानिक डॉ. भुजबल का कहना है, 'अग्निहोत्र देने से जैविक खेती की उपज बढ़ने के भी प्रमाण मिले हैं।

जब मानसून देरी से आता है या कम होता है तो आधुनिक वैज्ञानिक भी कुछ नहीं कर पाते . पर यज्ञ और हवन से अच्छी वर्षा हो सकती है इस पर अनुसंधान करना ये काले अंग्रेज अपनी शान के खिलाफ समझते है |

गोवर्धन पर्वत


आज जब कभी बारिश कम या कभी बहुत ज़्यादा होती है तो याद आती है श्रीकृष्ण के गोवर्धन पर्वत को उठाने की कथा की . "गोवर्धन" अर्थात जहां गाय पाली पोसी जाती है . जिस तरह से श्रीकृष्ण ने पर्वत को उठाया था वही तरीका गोबर को उठाने का भी होता है .


मान्यता है कि पाँच हजार साल पहले गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊँचा था और अब शायद 30 मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋषि के श्राप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। एक बार मुनी पुलस्त्य भ्रमण करते हुए गोवर्धन पर्वत जा पहूँचे, वहां का सुंदर मनोहर नजारा देखकर उनका हृदय प्रसन्न हो गया उनके मन में गिरिराज को अपने साथ ले जाने का विचार उत्पन्न हुआ.

मुनी ने राजा से गोवर्धन ले जाने की बात रखी उन्हों ने कहा की वह जहां से आए हैं वहां पर एक भी सुंदर पर्वत नहीं है अत: आप इस अनमोल रत्न को मुझे सौंप दें. परंतु राजा ने मुनी को कुछ और मांगने को कहा वह उसे नही देना चाहते थे. यह सब बातें गोवर्धन ने सुन ली और मुनी से कहा की मैं आपके साथ जाने के लिए तैयार हूं किंतु मेरी एक शर्त है कि आप मुझे जहां भी रखेगें मै वहीं पर रूक जाऊंगा और वहां से हिलूंगा भी नही.

मुनी ने यह बात स्वीकार कर ली. पुलस्त्य मुनि गोवर्धन को अपने दायें हाथ पर रख कर निकल पडे़. जब मुनी ब्रज से गुजर रहे थे तब मुनी साधना के लिए रूक गए और उन्होंने गोवर्धन को भूल वश वहीं रख दिया तथा जब मुनी की अराधना समाप्त हुई तो उन्होंने पर्वत को उठाना चाहा परंतु गोवर्धन तो वहीं पर स्थिर हो चुका था.

उन्हें गोवर्धन की कही बात याद आई परंतु ऋषि न माने और हठ करने लगे इतने पर भी जब पर्वत अपने स्थान से नही हिला तो उन्हें बहुत क्रोध आया ओर क्रोधवश उन्होंने पर्वत को शाप देते हुए कहा कि गोवर्धन तुम घरती में धसते चले जाओंग ओर एक दिन पूर्ण रुप से धरती के गर्भ में समा जाओगे. इसी कारण गोवर्धन प्रतिदिन नीचे धसते चले जा रहे हैं.


इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी चीटी अँगुली पर उठा लिया था।पौराणिक मान्यता अनुसार श्रीगिरिराजजी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाए थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि जब रामसेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे लेकिन तभी देववाणी हुई की सेतुबंध का कार्य पूर्ण हो गया है तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए। इससे गोवर्धन पर्वत बहुत द्रवित हुए और उन्होंने हनुमान जी से कहा कि मैं श्री राम जी की सेवा और उनके चरण स्पर्श से वंचित रह गया। यह वृतांत हनुमानजी ने श्री राम जी को सुनाया तो राम जी बोले द्वापर युग में मैं इस पर्वत को धारण करुंगा एवं इसे अपना स्वरूप प्रदान करुंगा।


भगवान कृष्ण के काल में यह अत्यन्त हरा-भरा रमणीक पर्वत था। इसमें अनेक गुफ़ा अथवा कंदराएँ थी और उनसे शीतल जल के अनेक झरने झरा करते थे। उस काल के ब्रज-वासी उसके निकट अपनी गायें चराया करते थे, अतः वे उक्त पर्वत को बड़ी श्रद्धा की द्रष्टि से देखते थे।गोवर्धन के महत्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह भगवान कृष्ण के काल का एक मात्र स्थिर रहने वाला चिन्ह है। उस काल का दूसरा चिन्ह यमुना नदी भी है, किन्तु उसका प्रवाह लगातार परिवर्तित होने से उसे स्थाई चिन्ह नहीं कहा जा सकता है। इस पर्वत की पूरी परिक्रमा 7 कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है।मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लौठा, दानघाटी इत्यादि हैं। गोवर्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान कृष्ण के चरण चिह्न हैं।गिरिराज पर्वत के ऊपर गोविंदजी का मंदिर है। कहते हैं कि भगवान कृष्ण यहाँ शयन करते हैं। उक्त मंदिर में उनका शयनकक्ष है। यहीं मंदिर में स्थित गुफा है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह राजस्थान स्थित श्रीनाथद्वारा तक जाती है।परिक्रमा की शुरुआत सामान्यजन मानसी गंगा से करते हैं और पुन: वहीं पहुँच जाते हैं।इस गंगा को कृष्ण ने अपने मन से बाँसुरी से खोदकर प्रकट किया था।
पूर्व काल में ब्रज में भी इंद्र की पूजा की जाती थी। मगर भगवान कृष्ण ने यह तर्क देते हुए कि इंद्र से कोई लाभ नहीं प्राप्त होता जबकि गोवर्धन पर्वत गौधन का संवर्धन एवं संरक्षण करता है, जिससे पर्यावरण भी शुद्ध होता है। इसलिए इंद्र की नहीं गोवर्धन की पूजा की जानी चाहिए। श्रीमद्भागवत में उल्लेख है की कृष्ण ने दाउ को संबोधित कर स्पष्ट कहा है कि गोवर्धन उनके गौ-धन की रक्षा करते है। वृक्ष देते है और ऐसे में हमे उनका पूजन-वंदन करना चाहिए। वह हमारी प्रकृति की रक्षा करते हैं।


अब बात करते हैं पर्वत की स्थिति की। क्या सचमुच ही पिछले पांच हजार वर्ष से यह स्वत: ही रोज एक मुठ्ठी खत्म हो रहा है या कि शहरीकरण और मौसम की मार ने इसे लगभग खत्म कर दिया। आज यह कछुए की पीठ जैसा भर रह गया है।

हालांकि स्थानीय सरकार ने इसके चारों और तारबंदी कर रखी है फिर भी 21 किलोमीटर के अंडाकार इस पर्वत को देखने पर ऐसा लगता है कि मानो बड़े-बड़े पत्‍थरों के बीच भूरी मिट्टी और कुछ घास जबरन भर दी गई हो। छोटी-मोटी झाड़ियां भी दिखाई देती है।

पर्वत को चारों तरफ से गोवर्धन शहर और कुछ गांवों ने घेर रखा है। गौर से देखने पर पता चलता है कि पूरा शहर ही पर्वत पर बसा है, जिसमें दो हिस्से छूट गए है उसे ही गिर्राज (गिरिराज) पर्वत कहा जाता है। इसके पहले हिस्से में जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, पूंछरी का लौठा प्रमुख स्थान है तो दूसरे हिस्से में राधाकुंड, गोविंद कुंड और मानसी गंगा प्रमुख स्थान है।

बीच में शहर की मुख्य सड़क है उस सड़क पर एक भव्य मंदिर हैं, उस मंदिर में पर्वत की सिल्ला के दर्शन करने के बाद मंदिर के सामने के रास्ते से यात्रा प्रारंभ होती है और पुन: उसी मंदिर के पास आकर उसके पास पीछे के रास्ते से जाकर मानसी गंगा पर यात्रा समाप्त होती है।

मानसी गंगा के थोड़ा आगे चलो तो फिर से शहर की वही मुख्य सड़क दिखाई देती है। कुछ समझ में नहीं आता कि गोवर्धन के दोनों और सड़क है या कि सड़क के दोनों और गोवर्धन? ऐसा लगता है कि सड़क, आबादी और शासन की लापरवाही ने खत्म कर दिया है गोवर्धन पर्वत को।

श्रीकृष्ण ने एक तरह से भविष्य के मनुष्य के लिए इशारा किया था की अगर मानव पर्यावरण की ,पर्वतों की , गौ पालन , गायों के लिए पेड़ पौधों , गोचर भूमि की व्यवस्था नहीं रखेगा तो बारिश कभी कम या बहुत ज्यादा होगी . तब उसकी रक्षा करने के लिए कोई पर्वत ना होगा

Wednesday, July 4, 2012

16 संस्कार


16 संस्कार .... आइये जानें हम अपने संस्कारों को
सनातन धर्म के शास्त्रों के अनुसार 16 प्रकार के संस्कारों का उल्लेख पाया जाता है l
16 संस्कार - क्या आप जानते हैं अपने 16 संस्कारों को ???? ???? ???? ????
और 16 में से कितने संस्कारों को अपने जीवन में उतारते हैं हम सब ??

सनातन धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक कुल सोलह संस्कार बताए गये हैं, सभी मनुष्यों के लिए 16 प्रकार के संस्कारों का उल्लेख किया गया है और उन्हें कोई भी धारण कर सकता है l समस्त मनुष्यों को अपना जीवन इन 16 संस्कारो के अनुसार व्यतीत करने की आज्ञा दी गयी है l
संस्कार का अर्थ क्या है ?
हमारे चित, मन पर जो पिछले जन्मो के पाप कर्मो का प्रभाव है उसको हम मिटा दें और अच्छा प्रभाव को बना दे .. उसे संस्कार कहते हैं l

प्रत्येक संस्कार के समय यज्ञ किया जाता है,
भगवान् श्री राम के संस्कार ऋषि वशिष्ठ ने करवाए थे, और भगवन श्री कृष्ण के संस्कार ऋषि संदीपनी ने करवाए थे l

एक अच्छे सभ्य समाज के लिए संस्कार अत्यंत आवश्यक, पुराने समय में जो व्यक्ति के संस्कार न हुए हो उसे अच्छा नहीं माना जाता था

संस्कार हमारे धार्मिक और सामाजिक जीवन की पहचान होते हैं।
यह न केवल हमें समाज और राष्ट्र के अनुरूप चलना सिखाते हैं बल्कि हमारे जीवन की दिशा भी तय करते हैं।
भारतीय संस्कृति में मनुष्य को राष्ट्र, समाज और जनजीवन के प्रति जिम्मेदार और कार्यकुशल बनाने के लिए जो नियम तय किए गए हैं उन्हें संस्कार कहा गया है। इन्हीं संस्कारों से गुणों में वृद्धि होती है। हिंदू संस्कृति में प्रमुख रूप से 16 संस्कार माने गए हैं जो गर्भाधान से शुरू होकर अंत्येष्टी पर खत्म होते हैं। व्यक्ति पर प्रभाव संस्कारों से हमारा जीवन बहुत प्रभावित होता है। संस्कार के लिए किए जाने वाले कार्यक्रमों में जो पूजा, यज्ञ, मंत्रोच्चरण आदि होता है उसका वैज्ञानिक महत्व साबित किया जा चुका है।

कुछ जगह ४८ संस्कार भी बताए गए हैं।
महर्षि अंगिरा ने २५ संस्कारों का उल्लेख किया है।
वर्तमान में महर्षि वेद व्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार १६ संस्कार प्रचलित हैं।
ये है भारतीय संस्कृति के 16 संस्कार गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार, सीमन्तोन्नयन संस्कार, जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, निष्क्रमण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, मुंडन संस्कार, कर्णवेध संस्कार, उपनयन संस्कार, विद्यारंभ संस्कार, केशांत संस्कार, समावर्तन संस्कार, विवाह संस्कार, विवाहाग्नि संस्कार, अंत्येष्टि संस्कार।

आइये अपने 16 संस्कारों के बारे में जानें ....

1.गर्भाधान संस्कार -
ये सबसे पहला संस्कार है l
बच्चे के जन्म से पहले माता -पिता अपने परिवार के साथ गुरुजनों के साथ यज्ञ करते हैं और इश्वर को प्रार्थना करते हैं की उनके घर अच्छे बचे का जन्म हो, पवित्र आत्मा, पुण्यात्मा आये l जीवन की शुरूआत गर्भ से होती है। क्योंकि यहां एक जिन्दग़ी जन्म लेती है। हम सभी चाहते हैं कि हमारे बच्चे, हमारी आने वाली पीढ़ी अच्छी हो उनमें अच्छे गुण हो और उनका जीवन खुशहाल रहे इसके लिए हम अपनी तरफ से पूरी पूरी कोशिश करते हैं।
ज्योतिषशास्त्री कहते हैं कि अगर अंकुर शुभ मुहुर्त में हो तो उसका परिणाम भी उत्तम होता है। माता पिता को ध्यान देना चाहिए कि गर्भ धारण शुभ मुहुर्त में हो।
ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि गर्भधारण के लिए उत्तम तिथि होती है मासिक के पश्चात चतुर्थ व सोलहवीं तिथि (Fourth and Sixteenth Day is very Auspicious for Garbh Dharan)। इसके अलावा षष्टी, अष्टमी, नवमी, दशमी, द्वादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमवस्या की रात्रि गर्भधारण के लिए अनुकूल मानी जाती है।

गर्भधारण के लिए उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, मृगशिरा, अनुराधा, हस्त, स्वाती, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र बहुत ही शुभ और उत्तम माने गये हैं l

ज्योतिषशास्त्र में गर्भ धारण के लिए तिथियों पर भी विचार करने हेतु कहा गया है। इस संस्कार हेतु प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, द्वादशी, त्रयोदशी तिथि को बहुत ही अच्छा और शुभ कहा गया है l
गर्भ धारण के लिए वार की बात करें तो सबसे अच्छा वार है बुध, बृहस्पतिवार और शुक्रवार। इन वारों के अलावा गर्भधारण हेतु सोमवार का भी चयन किया जा सकता है, सोमवार को इस कार्य हेतु मध्यम माना गया है।

ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार गर्भ धारण के समय लग्न शुभ होकर बलवान होना चाहिए तथा केन्द्र (1, 4 ,7, 10) एवं त्रिकोण (5,9) में शुभ ग्रह व 3, 6, 11 भावों में पाप ग्रह हो तो उत्तम रहता है। जब लग्न को सूर्य, मंगल और बृहस्पति देखता है और चन्द्रमा विषम नवमांश में होता है तो इसे श्रेष्ठ स्थिति माना जाता है।

ज्योतिषशास्त्र कहता है कि गर्भधारण उन स्थितियों में नहीं करना चाहिए जबकि जन्म के समय चन्द्रमा जिस भाव में था उस भाव से चतुर्थ, अष्टम भाव में चन्द्रमा स्थित हो। इसके अलावा तृतीय, पंचम या सप्तम तारा दोष बन रहा हो और भद्रा दोष लग रहा हो।
ज्योतिषशास्त्र के इन सिद्धान्तों का पालन किया जाता तो कुल की मर्यादा और गौरव को बढ़ाने वाली संतान घर में जन्

2. पुंसवन संस्कार -
पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है।
पुंसवन संस्कार गर्भस्थ बालक के लिए किया जाता है, इस संस्कार में गर्भ की स्थिरता के लिए यज्ञ किया जाता है l

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार-
यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्च सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। भक्त प्रह्लाद और अभिमन्यु इसके उदाहरण हैं। इस संस्कार के अंतर्गत यज्ञ में खिचडी की आहुति भी दी जाती है l

4. जातकर्म संस्कार-
बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से गर्भस्त्रावजन्य दोष दूर होते हैं।
नालछेदन के पूर्व अनामिका अंगूली (तीसरे नंबर की) से शहद, घी और स्वर्ण चटाया जाता है।
जब नवजात शिशु जन्म लेता है तब 1% घी, 4% शहद से शिशु की जीभ पर ॐ लिखते हैं ..

5. नामकरण संस्कार-
जन्म के बाद 11वें या सौवें या 101 वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है।
सपरिवार और गुरुजनों के साथ मिल कर यज्ञ किया जाता है तथा ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष आधार पर बच्चे का नाम तय किया जाता है।
बच्चे को शहद चटाकर सूर्य के दर्शन कराए जाते हैं।
उसके नए नाम से सभी लोग उसके स्वास्थ्य व सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।
वेद मन्त्रों में जो भगवान् के नाम दिए गए हैं, जैसे नारायण, ब्रह्मा, शिव - शंकर, इंद्र, राम - कृष्ण, लक्ष्मी, देव - देवी आदि ऐसे समस्त पवित्र नाम रखे जाते हैं जिससे बच्चे में इन नामों के गुण आयें तथा बड़े होकर उनको लगे की मुझे मेरे नाम जैसा बनना है l


6. निष्क्रमण संस्कार-
जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं।
निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना ... बच्चे को पहली बार घर से बाहर खुली और शुद्ध हवा में लाया जाता है

7. अन्नप्राशन संस्कार-
गर्भ में रहते हुए बच्चे के पेट में गंदगी चली जाती है, उसके अन्नप्राशन संस्कार बच्चे को शुद्ध भोजन कराने का प्रसंग होता है। बच्चे को सोने-चांदी के चम्मच से खीर चटाई जाती है। यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात ६-७ महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है, इससे पहले बच्चा अन्न को पचाने की अवस्था में नहीं रहता l


8. चूडाकर्म या मुंडन संस्कार-
बच्चे की उम्र के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं और यज्ञ किया जाता है जिसे वपन क्रिया संस्कार, मुंडन संस्कार या चूड़ाकर्म संस्कार कहा जाता है। इससे बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है।

9. कर्णभेद या कर्णवेध संस्कार-
कर्णवेध संस्कार इसका अर्थ है- कान छेदना। परंपरा में कान और नाक छेदे जाते थे। यह संस्कार जन्म के छह माह बाद से लेकर पांच वर्ष की आयु के बीच किया जाता था। यह परंपरा आज भी कायम है। इसके दो कारण हैं,
एक- आभूषण पहनने के लिए।
दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है।
इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है।
वर्तमान समय में वैज्ञानिकों ने भी कर्णभेद संस्कार का पूर्णतया समर्थन किया है और यह प्रमाणित भी किया है की इस संस्कार से कान की बिमारियों से भी बचाव होता है l
सभी संस्कारों की भाँती कर्णभेद संस्कार को भी वेद मन्त्रों के अनुसार जाप करते हुए यज्ञ किया जाता है l

10. उपनयन संस्कार -
उप यानी पास और नयन यानी ले जाना।
गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार।
उपनयन संस्कार बच्चे के 6 - 8 वर्ष की आयु में किया जाता है, इसमें यज्ञ करके बच्चे को एक पवित्र धागा पहनाया जाता है, इसे यज्ञोपवीत या जनेऊ भी कहते हैं l बालक को जनेऊ पहनाकर गुरु के पास शिक्षा अध्ययन के लिए ले जाया जाता था। आज भी यह परंपरा है।
जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं।
फिर हर सूत्र के तीन-तीन सूत्र होते हैं। ये सब भी देवताओं के प्रतीक हैं। आशय यह कि शिक्षा प्रारंभ करने के पहले देवताओं को मनाया जाए। जब देवता साथ होंगे तो अच्छी शिक्षा आएगी ही।

अब बच्चा द्विज कहलाता है, द्विज का अर्थ होता है जिसका दूसरा जन्म हुआ हो, अब बच्चे को पढाई करने के लिए गुरुकुल भेजा जाता है l
पहला जन्म तो हमारे माता पिता ने दिया लेकिन दूसरा जन्म हमारे आचार्य, ऋषि, गुरुजन देते हैं, उनके ज्ञान को पाकर हम एक नए मनुष्य बनते हैं इसलिए इसे द्विज या दूसरा जन्म लेना कहते हैं l
यज्ञोपवीत पहनना गुरुकुल जाने, ज्ञानी होने, संस्कारी होने का प्रतीक है l

कुछ लोगों को ग़लतफहमी है की यज्ञोपवीत का धागा केवल ब्राह्मण लोग ही धारण अक्र्ते हैं, वास्तब में आज कल केवल ब्राह्मण ही रह गए हैं जो सनातन परम्पराओं को पूर्णतया निभा रहे हैं, जबकि पुराने समय में सभी लोग गुरुकुल में प्रवेश के समय ये यज्ञोपवीत पवित्र धागा पहनते थे..... यानी की जनेऊ धारण करते थे l

11. वेदाररंभ या विद्यारंभ संस्कार
जीवन को सकारात्मक बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। शिक्षा का शुरू होना ही विद्यारंभ संस्कार है। गुरु के आश्रम में भेजने के पहले अभिभावक अपने पुत्र को अनुशासन के साथ आश्रम में रहने की सीख देते हुए भेजते थे।
ये संस्कार भी उपनयन संस्कार जैसा ही है, इस संस्कार के बाद बच्चों को वेदों की शिक्षा मिलना आरम्भ किया जाता है गुरुकुल में
वर्तमान समय में हम जैसा अधिकाँश लोगों ने गुरुकुल में शिक्षा नहीं पायी है इसलिए हमे अपने ही धर्म के बारे में बहुत बड़ी ग़लतफ़हमियाँ हैं, और ना ही वर्तमान समय में हमारे माता-पिता को अपनी संस्कृति के बारे में पूर्ण ज्ञान है की वो हमको हमारे धर्म के बारे में बता सकें, इसलिए हमारे प्रश्न मन में ही रह जाते हैं l अधिकाँश अभिभावक तो बस कभी कभी मन्दिर जाने को ही "धर्म" कह देते हैं

ये हमारा 11वां संस्कार है, अब जब गुरुकुल में बच्चे पढने जा रहे हैं और वो वहां पर वेदों को पढ़ना आरम्भ करेंगे तो बहुत ही आश्चर्य की बात है की हम वेदों को सनातन धर्म के धार्मिक ग्रन्थ मानते हैं और गुरुकुल में बच्चों को यदि धार्मिक ग्रन्थ की शिक्षा दी जाएगी तो वो इंजीनियर, डाक्टर, वैज्ञानिक, अध्यापक, सैनिक आदि कैसे बनेंगे ?
वास्तव में हम लोगों को यह नहीं पता की जैसे अंग्रेजी डाक्टर होते हैं वैसे ही हमारे भारत वर्ष में भी वैद्य हैं l जैसे आजकल के डाक्टर रसायनों के अनुसार दवाइयां देते हैं खाने के लिए उसी प्रकार हमारे आचार्य और वैद्य शिरोमणी जड़ी बूटियों की औषधियां बनाते थे, जो की विश्व की सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति है..... आयुर्वेद हमारे वेदों का ही एक अंश है l
ऐसे ही वेद के अनेक अंश हैं जैसे ... "शस्त्र-शास्त्र" ...जो भारत की युद्ध कलाओं पर आधारित हैं l
गन्धर्व-वेद ... संगीत पर आधारित है l

ये सब उपवेद कहलाते हैं l

हम सबको थोड़े अपने सामान्य ज्ञान या व्यवहारिक ज्ञान के अनुसार भी सोचना चाहिए की भारत में पुरानी संस्कृति जो भी थीं....
क्या वो बिना किसी समाज, चिकित्सक, इंजिनियर, वैज्ञानिक, अध्यापक, सैनिक आदि के बिना रह सकती थी क्या ...? बिलुल भी नहीं .... वेदों में समाज के प्रत्येक भाग के लिए ज्ञान दिया गया है l

केशांत संस्कार- केशांत संस्कार का अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करे।


12. समवर्तन संस्कार -
समवर्तन का अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम में शिक्षा प्राप्ति के बाद ब्रह्मचारी को फिर दीन-दुनिया में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षो के लिए तैयार करना।
जब बच्चा (लडका या लड़की ) गुरुकुल में अपनी शिक्षा पूरी कर लेते हैं, अर्थान उनको वेदों के अनुसार विज्ञान, संगीत, तकनीक, युद्धशैली, अनुसन्धान, चिकित्सा और औषधी, अस्त्रों शस्त्रों के निर्माण, अध्यात्म, धर्म, राजनीति, समाज आदि की उचित और सर्वोत्तम शिक्षा मिल जाती है उसके बाद यह संस्कार किया जाता है l
समवर्तन संस्कार में ऋषि, आचार्य, गुरुजन आदि शिक्षा पूर्ण होने के पच्चात अपने शिष्यों से गुरु दक्षिणा भी मांगते हैं l
वर्तमान समय में इस संस्कार का एक विदूषित रूप देखने को मिलता है जिसे Convocation Ceremony कहा जाता है l

13. विवाह संस्कार-
विवास का अर्थ है पुरुष द्वारा स्त्री को विशेष रूप से अपने घर ले जाना। सनातन धर्म में विवाह को समझौता नहीं संस्कार कहा गया है। यह धर्म का साधन है। दोनों साथ रहकर धर्म के पालन के संकल्प के साथ विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।
ये संस्कार बहुत ही महत्वपूर्ण संस्कार है, ये भी यज्ञ करते हुए और वेदों पर आधारित मन्त्रों को पढ़ते हुए किया जाता है, वेद-मन्त्रों में पति और पत्नी के लिए कर्तव्य दिए गए हैं और इन को ध्यान में रखते हुए अग्नि के 7 फेरे लिए जाते हैं l

जैसे हमारे माता पिता ने हमको जन्म दिया वैसे ही हमारा कर्तव्य है की हम कुल परम्परा को आगे बाधाएं, अपने बच्चों को सनातन संस्कार दें और धर्म की सेवा करें l
विवाह संस्कार बहुत आवश्यक है ... हमारे समस्त ऋषियों की पत्नी हुआ करती थीं, ये महान स्त्रियाँ आध्यात्मिकता में ऋषियों के बराबर थीं l

14. वानप्रस्थ संस्कार

अब 50 वर्ष की आयु में मनुष्य को अपने परिवार की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर जंगल में चले जाना चाहिए और वहां पर वेदों की 6 दर्शन यानी की षट-दर्शन में से किसी 1 के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, ये संस्कार भी यज्ञ करते हुए किया जाता है और संकल्प किया जाता है की अब मैं इश्वर के ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करेंगे l

15. सन्यास संस्कार-
वानप्रस्थ संस्कार में जब मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसके बाद वो सन्यास लेता है, वास्तव में सन्यास पूरे समाज के लिए लिया जाता है , प्रत्येक सन्यासी का धर्म है की वो सारे संसार के लोगों को भगवान् के पुत्र पुत्री समझे और अपना बचा हुआ समय सबके कल्याण के लिए दे दे l
सन्यासी को कभी 1 स्थान पर नही रहना चाहिए उसे घूम घूम कर साधना करते हुए लोगो के काम आना चाहिए, अब सारा विश्व ही सन्यासी का परिवार है, कोई पराया नही है l

सन्यास संस्कार 75 की वर्ष की आयु में होता है पर अगर इस संसार से वैफाग्य हो जाए तो किसी भी आयु में सन्यास लिया जा सकता है l
सन्यासी का धर्म है की वो धर्म के ज्ञान को लोगों को बांटे, ये उसकी सेवा है, सन्यास संस्कार करते समय भी यज्ञ किया जाता है वेद मन्त्र पढ़ते हुए और सृष्टि के कल्याण हेतु बाकी जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा की जाती है l

16. अंत्येष्टि संस्कार-
इसका अर्थ है अंतिम यज्ञ। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। मृत्यु के साथ ही व्यक्ति स्वयं इस अंतिम यज्ञ में होम हो जाता है। हमारे यहां अंत्येष्टि को इसलिए संस्कार कहा गया है कि इसके माध्यम से मृत शरीर नष्ट होता है। इससे पर्यावरण की रक्षा होती है।
अन्त्येष्टी संस्कार के समय भी वेद मन्त्र पढ़े जाते हैं, पुराने समय में "नरमेध यज्ञ" जिसका वास्तविक अर्थ अन्त्येष्टी संस्कार था.. उसका गलत अर्थ निकाल कर बलि मान लिया गया था l

सावन की विशेषता

भारत के सभी शिवालयों में श्रावण सोमवार पर हर-हर महादेव और बोल बम बोल की गूँज सुनाई देगी। श्रावण मास में शिव-पार्वत‍ी का पूजन बहुत फलदायी होता है। इसलिए सावन मास का बहुत महत्व है।

क्यों है सावन की विशेषता? :- हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन महीने को देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि जब सनत कुमारों ने महादेव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो महादेव भगवान शिव ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था।

अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया।

सावन में शिवशंकर की पूजा :- सावन के महीने में भगवान शंकर की विशेष रूप से पूजा की जाती है। इस दौरान पूजन की शुरूआत महादेव के अभिषेक के साथ की जाती है। अभिषेक में महादेव को जल, दूध, दही, घी, शक्कर, शहद, गंगाजल, गन्ना रस आदि से स्नान कराया जाता है। अभिषेक के बाद बेलपत्र, समीपत्र, दूब, कुशा, कमल, नीलकमल, ऑक मदार, जंवाफूल कनेर, राई फूल आदि से शिवजी को प्रसन्न किया जाता है। इसके साथ की भोग के रूप में धतूरा, भाँग और श्रीफल महादेव को चढ़ाया जाता है।

महादेव का अभिषेक :- महादेव का अभिषेक करने के पीछे एक पौराणिक कथा का उल्लेख है कि समुद्र मंथन के समय हलाहल विष निकलने के बाद जब महादेव इस विष का पान करते हैं तो वह मूर्च्छित हो जाते हैं। उनकी दशा देखकर सभी देवी-देवता भयभीत हो जाते हैं और उन्हें होश में लाने के लिए निकट में जो चीजें उपलब्ध होती हैं, उनसे महादेव को स्नान कराने लगते हैं। इसके बाद से ही जल से लेकर तमाम उन चीजों से महादेव का अभिषेक किया जाता है।



बेलपत्र और समीपत्र :- भगवान शिव को भक्त प्रसन्न करने के लिए बेलपत्र और समीपत्र चढ़ाते हैं। इस संबंध में एक पौराणिक कथा के अनुसार जब 89 हजार ऋषियों ने महादेव को प्रसन्न करने की विधि परम पिता ब्रह्मा से पूछी तो ब्रह्मदेव ने बताया कि महादेव सौ कमल चढ़ाने से जितने प्रसन्न होते हैं, उतना ही एक नीलकमल चढ़ाने पर होते हैं। ऐसे ही एक हजार नीलकमल के बराबर एक बेलपत्र और एक हजार बेलपत्र चढ़ाने के फल के बराबर एक समीपत्र का महत्व होता है।

बेलपत्र ने दिलाया वरदान : बेलपत्र महादेव को प्रसन्न करने का सुलभ माध्यम है। बेलपत्र के महत्व में एक पौराणिक कथा के अनुसार एक भील डाकू परिवार का पालन-पोषण करने के लिए लोगों को लूटा करता था। सावन महीने में एक दिन डाकू जंगल में राहगीरों को लूटने के इरादे से गया। एक पूरा दिन-रात बीत जाने के बाद भी कोई शिकार नहीं मिलने से डाकू काफी परेशान हो गया।

इस दौरान डाकू जिस पेड़ पर छुपकर बैठा था, वह बेल का पेड़ था और परेशान डाकू पेड़ से पत्तों को तोड़कर नीचे फेंक रहा था। डाकू के सामने अचानक महादेव प्रकट हुए और वरदान माँगने को कहा। अचानक हुई शिव कृपा जानने पर डाकू को पता चला कि जहाँ वह बेलपत्र फेंक रहा था उसके नीचे शिवलिंग स्थापित है। इसके बाद से बेलपत्र का महत्व और बढ़ गया।

विशेष सजावट : सावन मास में शिव मंदिरों में विशेष सजावट की जाती है। शिवभक्त अनेक धार्मिक नियमों का पालन करते हैं। साथ ही महादेव को प्रसन्न करने के लिए किसी ने नंगे पाँव चलने की ठानी, तो कोई पूरे सावन भर अपने केश नहीं कटाएगा। वहीं कितनों ने माँस और मदिरा का त्याग कर दिया है।

काँवरिए चले शिव के धाम : सावन का महीना शिवभक्तों के लिए खास होता है। शिवभक्त काँवरियों में जल लेकर शिवधाम की ओर निकल पड़ते हैं। शिवालयों में जल चढ़ाने के लिए लोग बोल बम के नारे लगाते घरों से निकलते हैं। भक्त भगवा वस्त्र धारण कर शिवालयों की ओर कूच करते हैं।