गंगा जैसे हमारी आत्मा का प्रतीक हो गई है। क्या
कारण होगा गंगा के गहरे प्रतीक बन जाने का कि हजारों वर्ष पहले कृष्ण भी
कहते हैं कि नदियों में मैं गंगा हूं?
गंगा
कोई नदियों में विशेष उस अर्थ में नहीं है। गंगा से बड़ी विशाल नदियां
पृथ्वी पर हैं। गंगा कोई लंबाई में, विशालता में, चौड़ाई में किसी दृष्टि
से कोई बहुत बड़ी गंगा नहीं है। ब्रह्माुत्र है, और अमेजन है, और हृंगहो
है, और सैकड़ों नदियां है, जिनके सामने गंगा फीकी पड़ जाए।
पर
गंगा के पास कुछ और है, जो पृथ्वी पर किसी भी नदी के पास नहीं है। और उस
कुछ और के कारण भारतीय मन ने गंगा के साथ एक ताल-मेल बना लिया। एक तो बहुत
मजे की बात है कि पूरी पृथ्वी पर गंगा सबसे ज्यादा जीवंत नदी है, अलाइव।
सारी नदियों का पानी आप बोतल में भरकर रख दें, सभी नदियों का पानी सड़
जाएगा, गंगा भर का नहीं सड़ेगा।
गंगा में
इतनी लाशें हम फेंकते हैं। गंगा में हमने हजारों-हजारों वर्षों से लाशें
बहाई हैं। अकेले गंगा के पानी में, सब कुछ लीन हो जाता है, हड्डी भी।
दुनिया की किसी नदी में वैसी क्षमता नहीं है। हड्डी भी पिघलकर लीन हो जाती
है और बह जाती है और गंगा को अपवित्र नहीं कर पाती। गंगा सभी को आत्मसात कर
लेती है, हड्डी को भी। गंगा अछूती बहती रहती है। उस पर कोई प्रभाव नहीं
पड़ता।
लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि जो
नदी गंगा में नहीं मिली, उस वक्त उसके पानी का गुणधर्म और होता है और गंगा
में मिल जाने के बाद उस पानी का गुणधर्म और हो जाता है! क्या होगा कारण?
केमिकल तो कुछ पता नहीं चल पाता। वैज्ञानिक रूप से इतना तो पता चलता है कि
विशेषता है और उसके पानी में खनिज और केमिकल्स का भेद है। लेकिन एक और भेद
है, वह भेद विज्ञान के ख्याल में आज नहीं तो कल आना शुरू हो जाएगा। और वह
भेद है, गंगा के पास लाखों-लाखों लोगों का जीवन की परम अवस्था को पाना।
पानी,
जब भी कोई व्यक्ति, अपवित्र व्यक्ति पानी के पास बैठता है- अंदर जाने की
तो बात अलग- पानी के पास भी बैठता है, तो पानी प्रभावित होता है। और पानी
उस व्यक्ति की तरंगों से आच्छादित हो जाता है। लाखों-वर्ष से भारत के मनीषी
गंगा के किनारे बैठकर प्रभु को पाने की चेष्टा करते रहे हैं। और जब भी कोई
एक व्यक्ति ने गंगा के किनारे प्रभु को पाया है, तो गंगा उस उपलब्धि से
वंचित नहीं रही, गंगा भी आच्छादित हो गई है।
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