Thursday, May 31, 2012

निर्जला एकादशी

एकादशी व्रत हिन्दू जाति में सबसे अधिक प्रचलित व्रत माना जाता है। हिन्दू जाति में वर्ष में चौबीस एकादशियाँ आती हैं, किन्तु इन सब एकादशियों में ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी सबसे बढ़कर फल देने वाली समझी जाती है क्योंकि इस एक एकादशी का व्रत रखने से वर्ष भर की एकादशियों के व्रत का फल प्राप्त होता है। निर्जला-एकादशी का व्रत अत्यन्त संयम साध्य है। इस युग में यह व्रत सम्पूर्ण सुख़ भोग और अन्त में मोक्ष कहा गया है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों पक्षों की एकादशी में अन्न खाना वर्जित है।

महत्त्व

हिन्दू माह के ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को निर्जला एकादशी का व्रत किया जाता है। निर्जला यानि यह व्रत बिना जल ग्रहण किए और उपवास रखकर किया जाता है। इसलिए यह व्रत कठिन तप और साधना के समान महत्त्व रखता है। हिन्दू पंचाग अनुसार वृषभ और मिथुनसंक्रांति के बीच शुक्ल पक्ष की एकादशी निर्जला एकादशी कहलाती है। इस व्रत को भीमसेन एकादशी या पांडव एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक मान्यता है कि भोजन संयम न रखने वाले पाँच पाण्डवों में एक भीमसेन ने इस व्रत का पालन कर सुफल पाए थे। इसलिए इसका नाम भीमसेनी एकादशी भी हुआ।
हिन्दू धर्म में एकादशी व्रत का मात्र धार्मिक महत्त्व ही नहीं है, इसका मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के नज़रिए से भी बहुत महत्त्व है। एकादशी का व्रत भगवान विष्णु की आराधना को समर्पित होता है। इस दिन जल कलश, गौ का दान बहुत पुण्य देने वाला माना गया है। यह व्रत मन को संयम सिखाता है और शरीर को नई ऊर्जा देता है। यह व्रत पुरुष और महिलाओं दोनों द्वारा किया जा सकता है। वर्ष में अधिकमास की दो एकादशियों सहित 26 एकादशी व्रत का विधान है। जहाँ साल भर की अन्य 25 एकादशी व्रत में आहार संयम का महत्त्व है। वहीं निर्जला एकादशी के दिन आहार के साथ ही जल का संयम भी जरुरी है। इस व्रत में जल ग्रहण नहीं किया जाता है यानि निर्जल रहकर व्रत का पालन किया जाता है।
ऐसी धार्मिक मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति मात्र निर्जला एकादशी का व्रत करने से साल भर की पच्चीस एकादशी का फल पा सकता है। यहाँ तक कि अन्य एकादशी के व्रत भंग होने के दोष भी निर्जला एकादशी के व्रत से दूर हो जाते हैं। कुछ व्रती इस दिन एक भुक्त व्रत भी रखते हैं यानि सांय दान-दर्शन के बाद फलाहार और दूध का सेवन करते हैं।

एकादशी व्रत की कथा

निर्जला एकादशी व्रत का पौराणिक महत्त्व और आख्यान भी कम रोचक नहीं है। जब सर्वज्ञ वेदव्यास ने पांडवों को चारों पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाले एकादशी व्रत का संकल्प कराया था।
युधिष्ठिर ने कहा- जनार्दन! ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी पड़ती हो, कृपया उसका वर्णन कीजिये ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हे राजन् ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन व्यासजी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ और वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान हैं ।
तब वेदव्यासजी कहने लगे- कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों पक्षों की एकादशी में अन्न खाना वर्जित है। द्वादशी के दिन स्नान करके पवित्र हो और फूलों से भगवान केशव की पूजा करे। फिर नित्य कर्म समाप्त होने के पश्चात् पहले ब्राह्मणों को भोजन देकर अन्त में स्वयं भोजन करे।
यह सुनकर भीमसेन बोले- परम बुद्धिमान पितामह! मेरी उत्तम बात सुनिये। राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुननकुल और सहदेव ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि भीमसेन एकादशी को तुम भी न खाया करो परन्तु मैं उन लोगों से यही कहता हूँ कि मुझसे भूख नहीं सही जायेगी ।
भीमसेन की बात सुनकर व्यासजी ने कहा- यदि तुम नरक को दूषित समझते हो और तुम्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति अभीष्ट है और तो दोनों पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन नहीं करना।
भीमसेन बोले महाबुद्धिमान पितामह ! मैं आपके सामने सच कहता हूँ। मुझसे एक बार भोजन करके भी व्रत नहीं किया जा सकता, तो फिर उपवास करके मैं कैसे रह सकता हूँ। मेरे उदर में वृक नामक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है, अत: जब मैं बहुत अधिक खाता हूँ, तभी यह शांत होती है। इसलिए महामुनि ! मैं पूरे वर्षभर में केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ । जिससे स्वर्ग की प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करने से मैं कल्याण का भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये। मैं उसका यथोचित रूप से पालन करुँगा ।
व्यासजी ने कहा- भीम! ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि पर हो या मिथुन राशि पर, शुक्लपक्ष में जो एकादशी हो, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो। केवल कुल्ला या आचमन करने के लिए मुख में जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर किसी प्रकार का जल विद्वान पुरुष मुख में न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है। एकादशी को सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्योदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो यह व्रत पूर्ण होता है। तदनन्तर द्वादशी को प्रभातकाल में स्नान करके ब्राह्मणों को विधिपूर्वक जल और सुवर्ण का दान करे। इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणों के साथ भोजन करे। वर्षभर में जितनी एकादशियाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशी के सेवन से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान केशव ने मुझसे कहा था कि ‘यदि मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाय और एकादशी को निराहार रहे तो वह सब पापों से छूट जाता है।’
एकादशी व्रत करनेवाले पुरुष के पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दण्ड पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते। अंतकाल में पीताम्बरधारी, सौम्य स्वभाव वाले, हाथ में सुदर्शन धारण करने वाले और मन के समान वेगशाली विष्णुदूत आख़िर इस वैष्णव पुरुष को भगवान विष्णु के धाम में ले जाते हैं। अत: निर्जला एकादशी को पूर्ण यत्न करके उपवास और श्रीहरि का पूजन करो। स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरु पर्वत के बराबर भी महान पाप किया हो तो वह सब इस एकादशी व्रत के प्रभाव से भस्म हो जाता है। जो मनुष्य उस दिन जल के नियम का पालन करता है, वह पुण्य का भागी होता है। उसे एक-एक प्रहर में कोटि-कोटि स्वर्णमुद्रा दान करने का फल प्राप्त होता सुना गया है। मनुष्य निर्जला एकादशी के दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है, यह भगवान श्रीकृष्ण का कथन है। निर्जला एकादशी को विधिपूर्वक उत्तम रीति से उपवास करके मानव वैष्णवपद को प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, वह पाप का भोजन करता है। इस लोक में वह चाण्डाल के समान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है।
जो ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके दान करेंगे, वे परम पद को प्राप्त होंगे। जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, वे ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जाते हैं ।
कुन्तीनन्दन! निर्जला एकादशी के दिन श्रद्धालु स्त्री पुरुषों के लिए जो विशेष दान और कर्त्तव्य विहित हैं, उन्हें सुनो- उस दिन जल में शयन करने वाले भगवान विष्णु का पूजन और जलमयी धेनु का दान करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घृतमयी धेनु का दान उचित है। पर्याप्त दक्षिणा और भाँति-भाँति के मिष्ठानों द्वारा यत्नपूर्वक ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करना चाहिए। ऐसा करने से ब्राह्मण अवश्य संतुष्ट होते हैं और उनके संतुष्ट होने पर श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं। जिन्होंने शम, दम, और दान में प्रवृत हो श्रीहरि की पूजा और रात्रि में जागरण करते हुए इस ‘निर्जला एकादशी’ का व्रत किया है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढ़ियों को और आनेवाली सौ पीढ़ियों को भगवान वासुदेव के परम धाम में पहुँचा दिया है। निर्जला एकादशी के दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शैय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिए। जो श्रेष्ठ तथा सुपात्र ब्राह्मण को जूता दान करता है, वह सोने के विमान पर बैठकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। जो इस एकादशी की महिमा को भक्तिपूर्वक सुनता अथवा उसका वर्णन करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है। चतुर्दशीयुक्त अमावस्या को सूर्यग्रहण के समय श्राद्ध करके मनुष्य जिस फल को प्राप्त करता है, वही फल इसके श्रवण से भी प्राप्त होता है। पहले दन्तधावन करके यह नियम लेना चाहिए कि "मैं भगवान केशव की प्रसन्नता के लिए एकादशी को निराहार रहकर आचमन के सिवा दूसरे जल का भी त्याग करुँगा।" द्वादशी को देवेश्वर भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। गन्ध, धूप, पुष्प और सुन्दर वस्त्र से विधिपूर्वक पूजन करके जल के घड़े के दान का संकल्प करते हुए निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करे।
संसारसागर से तारनेवाले हे देवदेव ह्रषीकेश ! इस जल के घड़े का दान करने से आप मुझे परम गति की प्राप्ति कराइये। 
भीमसेन! ज्येष्ठ मास में शुक्लपक्ष की जो शुभ एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिए। उस दिन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को शक्कर के साथ जल के घड़े दान करने चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य भगवान विष्णु के समीप पहुँचकर आनन्द का अनुभव करता है। तत्पश्चात् द्वादशी को ब्राह्मण भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करे। जो इस प्रकार पूर्ण रूप से पापनाशिनी एकादशी का व्रत करता है, वह सब पापों से मुक्त हो आनंदमय पद को प्राप्त होता है । यह सुनकर भीमसेन ने भी इस शुभ एकादशी का व्रत आरम्भ कर दिया । तबसे यह लोक में ‘पाण्डव द्वादशी’ के नाम से विख्यात हुई ।

Wednesday, May 30, 2012

गंगा दशहरा



गंगा दशहरा हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। ज्येष्ठ शुक्ला दशमी को दशहरा कहते हैं। इसमें स्नान, दान, रूपात्मक व्रत होता है। स्कन्द पुराण में लिखा हुआ है कि, ज्येष्ठ शुक्ला दशमी संवत्सरमुखी मानी गई है इसमें स्नान और दान तो विशेष करके करें। किसी भी नदी पर जाकर अर्ध्य (पू‍जादिक) एवम् तिलोदक (तीर्थ प्राप्ति निमित्तक तर्पण) अवश्य करें। ऐसा करने वाला महापातकों के बराबर के दस पापों से छूट जाता है। ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष, दशमी को गंगावतरण का दिन मन्दिरों एवं सरोवरों में स्नान कर पवित्रता के साथ मनाया जाता है। 


गंगाजी का जन्मदिन

सबसे पवित्र नदी गंगा के पृथ्वी पर आने का पर्व है- गंगा दशहरा। मनुष्यों को मुक्ति देने वाली गंगा नदी अतुलनीय हैं। संपूर्ण विश्व में इसे सबसे पवित्र नदी माना जाता है। राजा भगीरथ ने इसके लिए वर्षो तक तपस्या की थी। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा धरती पर आई। इससे न केवल सूखा और निर्जीव क्षेत्र उर्वर बन गया, बल्कि चारों ओर हरियाली भी छा गई थी। गंगा-दशहरा पर्व मनाने की परंपरा इसी समय से आरंभ हुई थी। राजा भगीरथ की गंगा को पृथ्वी पर लाने की कोशिशों के कारण इस नदी का एक नाम भागीरथी भी है।


महिमा भविष्य पुराण में लिखा हुआ है कि जो मनुष्य गंगा दशहरा के दिन गंगा के पानी में खड़ा होकर दस बार ओम नमो भगवती हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय स्वाहा। इस स्तोत्र को पढ़ता है, चाहे वो दरिद्र हो, असमर्थ हो वह भी गंगा की पूजा कर पूर्ण फल को पाता है।



संवत्सर का मुख

यह दिन संवत्सर का मुख माना गया है। इसलिए गंगा स्नान करके दूध, बताशा, जल, रोली, नारियल, धूप, दीप से पूजन करके दान देना चाहिए। इस दिन गंगा, शिवब्रह्मासूर्य देवता,भागीरथी तथा हिमालय की प्रतिमा बनाकर पूजन करने से विशेष फल प्राप्त होता है। इस दिन गंगा आदि का स्नान, अन्न-वस्त्रादि का दान, जप-तप, उपासना और उपवास किया जाता है। इससे दस प्रकार के पापों से छुटकारा मिलता है। यदि इस दिन दस योग
  • ज्येष्ठ मास
  • शुक्ल पक्ष
  • बुधवार
  • हस्त नक्षत्र
  • गर
  • आनंद
  • व्यतिपात
  • कन्या का चंद्र
  • वृषभ
  • सूर्य
हो तो यह अपूर्व योग है और महाफलदायक होता है। यदि ज्येष्ठा अधिकमास हो तो स्नान, दान, तप, व्रतादि मलमास में करने से ही अधिक फल प्राप्त होता है। इन दस योगों में मनुष्य स्नान करके सब पापों से छूट जाता है।

मान्यता

ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को सोमवार तथा हस्त नक्षत्र होने पर यह तिथि घोर पापों को नष्ट करने वाली मानी गई है। हस्त रक्षत्र में बुधवार के दिन गंगावतरण हुआ था, इसलिए यह तिथि अधिक महत्त्वूपर्ण है। गंगाजी की मान्यता हिन्दू ग्रंथों में बहुत है और यह भारतवर्ष की परम पवित्र लोकपावनी नदी मानी जाती है। इस दिन लाखों लोग दूर-दूर से आकर गंगा की पवित्र जलधारा में स्नान करते हैं बहुत से स्थानों में इस दिन शर्बत की प्याऊ लगाई जाती है, जहाँ हज़ारों नर-नारी शीतल शर्बत पीकर ग्रीष्म ऋतु में अपने हृदय को शीतल करते हैं।

  • आज के दिन गंगाजी के विभिन्न तटों और घाटों पर तो बड़े-बड़े मेले लगते ही हैं, अन्य पवित्र पदियों में भी लाखों व्यक्ति स्नान करते हैं। सम्पूर्ण भारत में पवित्र नदियों में स्नान के विशिष्ट पर्व के रूप में मनाया जाता है यह गंगा दशहरा।
  • आज के दिन दान देने का भी विशिष्ट महत्त्व है। यह मौसम भरपूर गर्मी का होता है, अत: छतरी, वस्त्र, जूते-चप्पल आदि दान में दिए जाते हैं।
  • आज के दिन यदि गंगाजी अथवा अन्य किसी पवित्र नदी पर सपरिवार स्नान हेतु जाया जा सके तब तो सर्वश्रेष्ठ है, यदि संभव न हो तब घर पर ही गंगाजली को सम्मुख रखकर गंगाजी की पूजा-आराधरा कर ली जाती है। *इस दिन जप-तप, दान, व्रत, उपवास और गंगाजी की पूजा करने पर सभी पाप जड़ से कट जाते हैं- ऐसी मान्यता है।
  • अनेक परिवारों में दरवाजे पर पाँच पत्थर रखकर पाँच पीर पूजे जाते हैं। इसी प्रकार परिवार के प्रत्येक व्यक्ति के हिसाब से सवा सेर चूरमा बनाकर साधुओं, फ़कीरों और ब्राह्मणों में बांटने का भी रिवाज है। ब्राह्मणों को बड़ी मात्रा में अनाज को दान के रूप में आज के दिन दिया जाता है। आज ही के दिन आम खाने और आम दान करने को भी विशिष्ट महत्त्व दिया जाता है।
  • दशहरा के दिन दशाश्वमेध में दस बार स्नान करके शिवलिंग का दस संख्या के गंध, पुष्प, दीप, नैवेद्य और फल आदि से पूजन करके रात्रि को जागरण करने से अनंत फल प्राप्त होता है। इसी दिन गंगा पूजन का भी विशिष्ट महत्त्व है। इस दिन विधि-विधान से गंगाजी का पूजन करके दस सेर तिल, दस सेर जौ और दस सेर गेंहू दस ब्राह्मणों को दान दें। परदारा और परद्रव्यादि से दूर रहें तथा ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ करके दशमी तक एकोत्तर-वृद्धि से दशहरा स्रोत का पाठ करें। इससे सब प्रकार के पापों का समूल नाश हो जाता है और दुर्लभ सम्पत्ति प्राप्त होती है।




Friday, May 25, 2012

गंगा


गंगा जैसे हमारी आत्मा का प्रतीक हो गई है। क्या कारण होगा गंगा के गहरे प्रतीक बन जाने का कि हजारों वर्ष पहले कृष्ण भी कहते हैं कि नदियों में मैं गंगा हूं?
गंगा कोई नदियों में विशेष उस अर्थ में नहीं है। गंगा से बड़ी विशाल नदियां पृथ्वी पर हैं। गंगा कोई लंबाई में, विशालता में, चौड़ाई में किसी दृष्टि से कोई बहुत बड़ी गंगा नहीं है। ब्रह्माुत्र है, और अमेजन है, और हृंगहो है, और सैकड़ों नदियां है, जिनके सामने गंगा फीकी पड़ जाए।
पर गंगा के पास कुछ और है, जो पृथ्वी पर किसी भी नदी के पास नहीं है। और उस कुछ और के कारण भारतीय मन ने गंगा के साथ एक ताल-मेल बना लिया। एक तो बहुत मजे की बात है कि पूरी पृथ्वी पर गंगा सबसे ज्यादा जीवंत नदी है, अलाइव। सारी नदियों का पानी आप बोतल में भरकर रख दें, सभी नदियों का पानी सड़ जाएगा, गंगा भर का नहीं सड़ेगा।
गंगा में इतनी लाशें हम फेंकते हैं। गंगा में हमने हजारों-हजारों वर्षों से लाशें बहाई हैं। अकेले गंगा के पानी में, सब कुछ लीन हो जाता है, हड्डी भी। दुनिया की किसी नदी में वैसी क्षमता नहीं है। हड्डी भी पिघलकर लीन हो जाती है और बह जाती है और गंगा को अपवित्र नहीं कर पाती। गंगा सभी को आत्मसात कर लेती है, हड्डी को भी। गंगा अछूती बहती रहती है। उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि जो नदी गंगा में नहीं मिली, उस वक्त उसके पानी का गुणधर्म और होता है और गंगा में मिल जाने के बाद उस पानी का गुणधर्म और हो जाता है! क्या होगा कारण? केमिकल तो कुछ पता नहीं चल पाता। वैज्ञानिक रूप से इतना तो पता चलता है कि विशेषता है और उसके पानी में खनिज और केमिकल्स का भेद है। लेकिन एक और भेद है, वह भेद विज्ञान के ख्याल में आज नहीं तो कल आना शुरू हो जाएगा। और वह भेद है, गंगा के पास लाखों-लाखों लोगों का जीवन की परम अवस्था को पाना।
पानी, जब भी कोई व्यक्ति, अपवित्र व्यक्ति पानी के पास बैठता है- अंदर जाने की तो बात अलग- पानी के पास भी बैठता है, तो पानी प्रभावित होता है। और पानी उस व्यक्ति की तरंगों से आच्छादित हो जाता है। लाखों-वर्ष से भारत के मनीषी गंगा के किनारे बैठकर प्रभु को पाने की चेष्टा करते रहे हैं। और जब भी कोई एक व्यक्ति ने गंगा के किनारे प्रभु को पाया है, तो गंगा उस उपलब्धि से वंचित नहीं रही, गंगा भी आच्छादित हो गई है।  

संस्कृत के बारे में कुछ खास


संस्कृत के बारे में कुछ खास

1. नासा वैज्ञानिको की एक रिपोर्ट के संस्थान छठवीं और सातवीं पीढ़ी के सुपर कंप्यूटर संस्कृत भाषा पर आधारित बना रहा है। जिससे सुपर कंप्यूटर अपनी अधिकतम सीमा तक उपयोग किया जा सके। परियोजना की समय सीमा 2025 (6 पीढ़ी के लिए) और 2034 (7 वीं पीढ़ी के लिए) है। इसके बाद मुमकिन है कि दुनिया भर में संस्कृत सीखने के लिए एक भाषा क्रांति हो।

2- नासा के पास 60,000 ताड़ के पत्ते की पांडुलिपियों हैं। इनके अध्ययन से नए नए निष्कर्ष सामने आ रहे हैं। इनमें पाणिनी के माहेश्वर सूत्र के अनुसार कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में काफी कामयाबी मिली है।

3. कंप्यूटर में इस्तेमाल के लिए सबसे अच्छी भाषा। (संदर्भ- फोर्ब्स पत्रिका 1987)

4. सबसे अच्छे प्रकार का कैलेंडर जो इस्तेमाल किया जा रहा है, हिंदू कैलेंडर है (जिसमें नया साल सौर प्रणाली के भूवैज्ञानिक परिवर्तन के साथ शुरू होता है) (संदर्भ- जर्मन स्टेट यूनिवर्सिटी.)

5. दुनिया की सभी भाषाएँ (97) प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस भाषा से प्रभावित है। (संदर्भ यूनेस्को की वार्षिक रिपोर्ट 2004)

6. विश्व स्वास्थ्य संगठन के डॉ लारेन हेस्टिंग्ज केअऩुसार संस्कृत का उपयोग इलाज में भी किया जा सकता है। अर्थात संस्कृत में बात करने से व्यक्ति को ब्लड प्रेशर, मधुमेह, मस्तिष्क रोग से जूझने में सहायता मिलती है। कोलेस्ट्रॉल कम होने के तो प्रमाण भी मिसे हैं। संस्कृत में बात करने से तंत्रिका तंत्र सक्रिय रहता है

7. संस्कृत वह भाषा है जो अपनी पुस्तकों वेद, उपनिषदों, श्रुति, स्मृति, पुराणों, महाभारत, रामायण आदि में सबसे उन्नत प्रौद्योगिकी रखती है।
(संदर्भ- रशियन स्टेट यूनिवर्सिटी.)

Wednesday, May 23, 2012

ककड़ी के फ़ायदे


ककड़ी के फ़ायदे

  • कच्ची ककड़ी में आयोडीन पाया जाता है। ककड़ी बेल पर लगने वाला फल है। गर्मी में पैदा होने वाली ककड़ी स्वास्थ्यवर्ध्दक तथा वर्षा व शरद ऋतु की ककड़ी रोगकारक मानी जाती है। ककड़ी स्वाद में मधुर, मूत्रकारक, वातकारक, स्वादिष्ट तथा पित्त का शमन करने वाली होती है।
  • उल्टी, जलन, थकान, प्यास, रक्तविकार, मधुमेह में ककड़ी फ़ायदेमंद हैं। ककड़ी के अत्यधिक सेवन से अजीर्ण होने की शंका रहती है, परन्तु भोजन के साथ ककड़ी का सेवन करने से अजीर्ण का शमन होता है।
  • ककड़ी की ही प्रजाति खीरा व कचरी है। ककड़ी में खीरे की अपेक्षा जल की मात्रा ज़्यादा पायी जाती है। ककड़ी के बीजों का भी चिकित्सा में प्रयोग किया जाता है।
  • ककड़ी का रस निकालकर मुंह, हाथ व पैर पर लेप करने से वे फटते नहीं हैं तथा मुख सौंदर्य की वृध्दि होती है।
  • ककड़ी काटकर खाने या ककड़ी व प्याज का रस मिलाकर पिलाने से शराब का नशा उतर जाता है।
  • बेहोशी में ककड़ी काटकर सुंघाने से बेहोशी दूर होती है।
  • ककड़ी के बीजों को ठंडाई में पीसकर पीने से ग्रीष्म ऋतु में गर्मीजन्य विकारों से छुटकारा प्राप्त होता है।
  • ककड़ी के बीज पानी के साथ पीसकर चेहरे पर लेप करने से चेहरे की त्वचा स्वस्थ व चमकदार होती है।
  • ककड़ी के रस में शक्कर या मिश्री मिलाकर सेवन करने से पेशाब की रुकावट दूर होती है।
  • ककड़ी की मींगी मिश्री के साथ घोंटकर पिलाने से पथरी रोग में लाभ पहुंचता है।

Tuesday, May 22, 2012

तरबूज़



तरबूज़ एक गर्मी के मौसम का फल है। तरबूज़ का रंग हरा होता है। लेकिन तरबूज़ अंदर से लाल रंग का होता है। तरबूज़ पानी से भरपूर एवं मीठा फल है। तरबूज़ गर्मियों के मौसम का आकर्षक और आवश्यक फल है, क्योंकि यह शरीर में पानी की कमी को पूरा करता है। तरबूज़ की खेती सम्पूर्ण भारत में की जाती है, लेकिन उत्तरी भारत में इसको अधिक महत्त्व दिया जाता है। तरबूज़ शरीर को ठंडक पहुँचाने के साथ-साथ ऊर्जा भी देता है। तरबूज़ में प्रचुर मात्रा में विटामिन ए, बी, सी और आयरन के अलावा मैग्नीशियम औरपोटैशियम भी पाया जाता है। यह ख़ून साफ करने के साथ पथरी, हृदय रोग और कैंसर जैसी बीमारियों के खतरे से बचाता है। इसमें पानी की मात्रा 92 प्रतिशत जबकि कैलोरी की मात्रा शून्य होती है।



तरबूज़ के फ़ायदे

जैसा कि कहा जाता है कि 'आम के आम और गुठलियों के भी दाम' उसी प्रकार तरबूज़ का सेवन तो हमारे स्वास्थ्य और सौंदर्य दोनों के लिए फ़ायदेमंद होता है परंतु साथ ही इसके बीज भी बहुत गुणकारी होते हैं।
  • तरबूज़ आकर्षक और स्वास्थ्यवर्धक फल है। तरबूज़ खाना इसलिए आवश्यक है क्योंकि यह शरीर में पानी की कमी को पूरा करता है। हमें वही फल ज़्यादा खाने चाहिए जो शरीर में पानी की आपूर्ति भी करते रहें।
  • तरबूज़ रक्तचाप को संतुलित रखता है और कई बीमारियाँ दूर करता है। इसके और भी फायदे हैं जैसे: खाना खाने के उपरांत तरबूज़ का रस पीने से भोजन शीघ्र पच जाता है। इससे नींद भी अच्छी आती है।
  • इसके रस से लू लगने का भय भी नहीं रहता। मोटापा कम करने वालों के लिए यह उत्तम आहार है।
  • पोलियो रोगियों को तरबूज़ का सेवन करना बहुत लाभकारी रहता है, क्योंकि यह ख़ून को बढ़ाता है और उसे साफ भी करता है।
  • त्वचा रोगों के लिए भी यह फ़ायदेमंद है, तपती धूप में जब सिरदर्द होने लगे तो तरबूज़ के रस को आधा गिलास पानी में मिलाकर पीना चाहिए।
  • पेशाब में जलन हो तो ओस या बर्फ़ में रखे हुए तरबूज़ का रस निकालकर सुबह शक्कर मिलाकर पीने से लाभ होता है।

तरबूज़
  • तरबूज़ के बीजों को छीलकर अंदर की गिरी खाने से शरीर में ताकत आती है। मस्तिष्क की कमज़ोर नसों को बल मिलता है, टखनों के पास की सूजन भी ठीक हो जाती है।
  • तरबूज़ के बीजों की गिरी में मिश्री, सौंफ, बारीक पीसकर मिलाकर खाने से गर्भ में पल रहे शिशु का विकास अच्छा होता है।
  • बीजों को चबा-चबाकर चूसने से दाँतों के पायरिया रोग में लाभ होता है। यह शरीर में पानी की कमी को पूरा करता है।
  • प्रतिदिन तरबूज़ का रस पीने से शरीर को शीतलता मिलती है। तरबूज़ खाने से प्यास लगना कम होता है।
  • तरबूज़ के रस का सेवन करने से लू लगने का ख़तरा कम हो रहता है। तरबूज़ में वसा नहीं पाया जाता इसलिए इससे वजन नहीं बढ़ता।
  • सिरदर्द होने पर आधा गिलास तरबूज़ के रस में मिश्री मिलाकर पीने से आराम मिलेगा। तरबूज़ दिल की बीमारियों को होने से रोकता है।
  • तरबूज़ की फांक पर काला नमक व काली मिर्च डालकर खाने से खट्टी डकारें आना बंद हो जाती हैं।
  • ख़ून की कमी होने पर तरबूज़ खाना फ़ायदेमंद होता है। तरबूज़ पीलिया जैसी बीमारी में खाना काफ़ी फ़ायदेमंद होता है, तथा सूखी खांसी में तरबूज़ खाने से खांसी आनी बंद हो जाती है।
  • तरबूज़ में लाइकोपिन पाया जाता है। लाइकोपिन हमारी त्वचा को जवान बनाए रखता है। ये हमारे शरीर में कैंसर को होने से भी रोकता है।
  • विटामिन सी हमारे शरीर के प्रतिरक्षा तन्त्र को मज़बूत बनाता है, और विटामिन ए हमारे आँखों के स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी होता है।
  • तरबूज़ मोटापे को कम करने में भी बहुत सहायक होता है।
  • जो लोग काम के तनाव में अधिक रहते हैं उनके लिए तरबूज़ बहुत फ़ायदेमंद होता है। तरबूज़ खाने से दिमाग शांत और खुश रहता है। जिन लोगों को गुस्सा अधिक आता है तरबूज़ खाने से उनको अपना गुस्सा शांत करने में बहुत मदद मिलती है।

तरबूज़ से होने वाले नुक़सान

  • तरबूज़ खाकर तुरंत पानी या दूध-दही या बाज़ार के पेय नहीं पीने चाहिए।
  • तरबूज़ खाने के 2 घंटे पूर्व तथा 3 घंटे बाद तक चावल का सेवन न करें।
  • गर्म या कटा बासी तरबूज़ सेवन न करें। इससे कई बीमारियाँ फैलने की आशंका रहती है।
  • दमा के मरीज़ों को तरबूज़ का रस नहीं पीना चाहिए।

Tuesday, May 15, 2012

ठहाके लगाओ, स्वस्थ रहो


ठहाके लगाओ, स्वस्थ रहो
हँसी हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। ठहाके लगाकर हँसने से शरीर में एण्डोर्फिन नामक रसायन की वृद्धि होती है, जो दर्दनाशक का काम करता है। खुलकल हँसने से शरीर-तंत्र में अंतःस्रावी ग्रंथि सक्रिय होकर रोगों का समूल नाश कर देती है। हँसी दबाने से काम नहीं चलेगा। ठहाके लगायें, खुलकर हँसें, फिर देखें रोगप्रतिरोधक शक्ति कितनी बढ़ती है इन्सुलिन का स्राव उचित मात्रा में होने से मधुमेह में कमी आती है। रक्तचाप ठीक-ठाक रहने से रक्त-संचरण सामान्य रहता है। स्नायुओं का समुचित व्यायाम हो जाने से शरीर की कार्यशक्ति बढ़ती है, स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है और शरीर की जकड़न तथा मानसिक तनावों से मुक्ति मिलती है।
मानसिक तनाव से शरीर में स्टिरॉइड तत्त्व पैदा होने लगते हैं, जिससे जीवनीशक्ति में काफी कमी आती है। हँसने से खून के श्वेत कण सक्रिय हो जाते हैं और बीमारी पर चारों ओर से आक्रमण करके उसका समूल नाश कर देते हैं।
खुलकर हँसना स्नायुओं की उत्कृष्ट कसरत है, जिससे शारीरिक थकान व मानसिक तनाव का तुरंत उपचार हो जाता है। और इसके साथ भगवत्प्रीति को भी जोड़ा जाय तो कहना ही क्या पूज्य बापू जी द्वारा प्रदत्त ʹदेव-मानव हास्य-प्रयोगʹ मानव-जाति के लिए आशीर्वादरूप है। बापू जी कहते हैं- "इस प्रयोग से प्रसन्नता, खुशी तुम्हारे अपने घर की खेती हो जायेगी। स्वर्ग का फरिश्ता भी मिले और तुम्हारी मुस्कान पर रोक लगाता हो तो उसको भी ठुकरा दो।"
अब तो देश-विदेश के वैज्ञानिक, चिकित्सक भी हास्य पर अध्ययन कर रहे हैं। डॉ. कर्नल चोपड़ा के अनुसार, "हास्य चाहे कृत्रिम हो या स्वाभाविक, वह हमारे शरीर पर अपना पूरा असर करता है और हमारी जीवनशक्ति, दर्द सहने की क्षमता एवं रोगप्रतिरोधक शक्ति की वृद्धि करने में निर्णायक भूमिका प्रस्तुत करता है।"
डॉ. विलियम फ्राई ने कहा हैः "ठहाके लगाने से दर्द, विशेष रूप से शिरःशूल में कमी आती है। ठहाके लगाने से पाचन-संस्थान एवं फेफड़ों की बहुत कारगर कसरत हो जाती है और ये अंग स्व्स्थ बने रहते हैं।

Sunday, May 13, 2012

Mother's Day



मां को खुशियाँ और सम्मान देने के लिए पूरी ज़िंदगी भी कम होती है। फिर भी विश्व में मां के सम्मान में मातृ दिवस (Mother's Day) मनाया जाता है। मातृ दिवस विश्व के अलग - अलग भागों में अलग - अलग तरीकों से मनाया जाता है। परन्तु मई माह के दूसरेरविवार को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है। हालांकि भारत के कुछ भागों में इसे 19 अगस्त को भी मनाया जाता है, परन्तु अधिक महत्ता अमरीकी आधार पर मनाए जाने वाले मातृ दिवस की है, अमेरिका में यह दिन इतना महत्त्वपूर्ण है कि यह एकदम से उत्सव की तरह मनाया जाता है।[1]

इतिहास

मातृदिवस का इतिहास सदियों पुराना एवं प्राचीन है। यूनान में बंसत ऋतु के आगमन पर रिहा परमेश्वर की मां को सम्मानित करने के लिए यह दिवस मनाया जाता था। 16वीं सदी में इंग्लैण्ड का ईसाई समुदाय ईशु की मां मदर मेरी को सम्मानित करने के लिए यह त्योहार मनाने लगा। `मदर्स डे' मनाने का मूल कारण समस्त माओं को सम्मान देना और एक शिशु के उत्थान में उसकी महान भूमिका को सलाम करना है। इस को आधिकारिक बनाने का निर्णय पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति वूडरो विलसन ने 8 मई1914 को लिया। 8 मई, 1914 में अन्ना की कठिन मेहनत के बाद तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाने और मां के सम्मान में एक दिन के अवकाश की सार्वजनिक घोषणा की। वे समझ रहे थे कि सम्मान, श्रद्धा के साथ माताओं का सशक्तीकरण होना चाहिए, जिससे मातृत्व शक्ति के प्रभाव से युद्धों की विभीषिका रुके। तब से हर वर्ष मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाता है।[1]
  • मदर्स डे की शुरुआत अमेरिका से हुई। वहाँ एक कवयित्री और लेखिका जूलिया वार्ड होव ने 1870 में 10 मई को माँ के नाम समर्पित करते हुए कई रचनाएँ लिखीं। वे मानती थीं कि महिलाओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी व्यापक होनी चाहिए। अमेरिका में मातृ दिवस (मदर्स डे) पर राष्ट्रीय अवकाश होता है। अलग-अलग देशों में मदर्स डे अलग अलग तारीख पर मनाया जाता है। भारत में भी मदर्स डे का महत्व बढ़ रहा है।[2]

माँ से जुड़ी कुछ बातें

  • पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः
  • जब मैं पैदा हुआ, इस दुनिया में आया, वो एकमात्र ऐसा दिन था मेरे जीवन का जब मैं रो रहा था और मेरी मॉं के चेहरे पर एक सन्तोषजनक मुस्कान थी। ये शब्द हैं प्रख्यात वैज्ञानिक और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के। एक माँ हमारी भावनाओं के साथ कितनी खूबी से जुड़ी होती है, ये समझाने के लिए उपरोक्त पंक्तियां अपने आप में सम्पूर्ण हैं।[1]
  • किसी औलाद के लिए 'माँ' शब्द का मतलब सिर्फ पुकारने या फिर संबोधित करने से ही नहीं होता बल्कि उसके लिए मां शब्द में ही सारी दुनिया बसती है, दूसरी ओर संतान की खुशी और उसका सुख ही माँ के लि‍ए उसका संसार होता है। क्या कभी आपने सोचा है कि ठोकर लगने पर या मुसीबत की घड़ी में मां ही क्यों याद आती है क्योंकि वो मां ही होती है जो हमे तब से जानती है जब हम अजन्में होते हैं। बचपन में हमारा रातों का जागना.. जिस वजह से कई रातों तक मां सो भी नहीं पाती थी। जितना मां ने हमारे लिए किया है उतना कोई दूसरा कर ही नहीं सकता। ज़ाहिर है मां के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए एक दिन नहीं बल्कि एक सदी भी कम है।[3]
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः।
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति[4]
अर्थात : पृथ्वी पर जितने भी पुत्रों की मां हैं, वह अत्यंत सरल रूप में हैं। कहने का मतलब कि मां एकदम से सहज रूप में होती हैं। वे अपने पुत्रों पर शीघ्रता से प्रसन्न हो जाती हैं। वह अपनी समस्त खुशियां पुत्रों के लिए त्याग देती हैं, क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो सकता है, लेकिन माता कुमाता नहीं हो सकती।[5]
  • निदा फ़ाज़ली के दोहे
इक पलड़े में प्यार रख, दूजे में संसार,
तोले से ही जानिए, किसमें कितना प्यार[5]
  • सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता

सुभद्रा कुमारी चौहान
...बेटा! कहीं चोट तो नहीं लगी
देश के सुदूर पश्चिम में स्थित अर्बुदांचल की एक जीवंत संस्कृति है, जहां विपुल मात्रा में कथा, बोध कथाएं, कहानियां, गीत, संगीत लोक में प्रचलित है। मां की ममता पर यहां लोक में एक कहानी प्रचलित है, जो अविरल प्रस्तुत किया जाता रहा है। कहते हैं एक बार एक युवक को एक लड़की पर दिल आ गया। प्रेम में वह ऐसा खोया कि वह सबकुछ भुला बैठा। लड़के के शादी का प्रस्ताव रखने पर लड़की ने जवाब दिया कि वह उससे विवाह करने को तैयार तो है, लेकिन वह अपनी सास के रूप में किसी को देखना नहीं चाहती। अत: वह अपनी मां का कत्ल कर उसका कलेजा निकाल लाए, तो वह उससे शादी करेगी। युवक पहले काफ़ी दुविधा में रहा, लेकिन फिर अपनी माशूका के लिए मां का कत्ल कर उसका कलेजा निकाल तेजी से प्रेमिका की ओर बढ़ा। तेजी में जाने की हड़बड़ी में उसे ठोकर लगी और वह गिर पड़ा। इस पर मां का कलेजा गिर पड़ा और कलेजे से आवाज़ आई, बेटा, कहीं चोट तो नहीं लगी...आ बेटा, पट्टी बांध दूं...।[5]
  • दीवार फ़िल्म
"मेरे पास बंगला है, मोटर है, बैंक - बैलेंस है.... ! तुम्हारे पास क्या है ?" पैंतीस साल पहले एक महानायक के भारी-भरकम संवाद पर हावी हो गया था एक छोटा सा वाक्य, "मेरे पास माँ है !" पीढियां बदल गयी लेकिन दीवार फ़िल्म के शशि कपूर के उस डायलोग की तासीर आज भी उतनी ही सिद्दत से महसूस की जा सकती है। सच में, माँ के दूध से बढ़ कर कोई मिठाई और माँ के आँचल से बढ़ कर कोई रजाई नहीं होती। "मातृ देवो भवः !"[6]
  • मां में छिपी है सृष्टि
मां शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। मां के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य किसी शब्दों में नहीं होती। इसका अनुभव भी एक मां ही कर सकती है। मां अपने आप में पूर्ण संस्कारवान, मनुष्यत्व व सरलता के गुणों का सागर है। मां जन्मदाता ही नहीं, बल्कि पालन-पोषण करने वाली भी है।[5]
  • मां है ममता का सागर
मां तो ममता की सागर होती है। जब वह बच्चे को जन्म देकर बड़ा करती है तो उसे इस बात की खुशी होती है, उसके लाड़ले पुत्र-पुत्री से अब सुख मिल जाएगा। लेकिन मां की इस ममता को नहीं समझने वाले कुछ बच्चे यह भूल बैठते हैं कि इनके पालन-पोषण के दौरान इस मां ने कितनी कठिनाइयां झेली होगी।[5]

कैसे बनाएँ इस दिन को यादगार

  • सुबह उठते ही अपनी मां को इस दिन की बधाई दें। यदि आपको उनके हाथ का भोजन बहुत पंसद है, और खाना बनाना उनका शौक़ भी है, तो उन्हें नए और स्वादिष्ट व्‍यंजन की एक किताब व डिनर टेबल गिफ़्ट सेट जैसा कुछ तौफा दें।
  • यदि उन्हें संगीत का शौक़ है, तो उनके पसन्दीदा गानों व संगीत की कोई डीवीडी व कैसेट् उपहार में दें, जिससे व ख़ाली समय में घर का काम करते समय सुन सकें।
  • आए दिन छोटे होते घरों को देखते हुए आप उन्हें एक `होम गार्डन' भी उपहार में दे सकते हैं। ये छोटा बगीचा घर की रौनक भी बढ़ाएगा और आपकी मां को व्यस्त भी रखेगा। सुन्दर पौधे घर में बेहतर वातावरण भी बनाए रखेगा।
  • आपका घर व किचन एक ऐसा स्थान है जहाँ आपकी मां अधिक समय बिताती हैं। तो इस अवसर पर आप ड्राइंग रूम और बेडरूम के साथ साथ किचन को भी अच्छे से सज़ा सकते हैं।
  • उन्हें कहीं बाहर घुमाने ले जाएँ। और यदि किसी नज़दीकी जगह पर घूमने का कार्यक्रम बना सकते हों, तो इससे बेहतर और क्या हो सकता है। मूड़ बदलने के साथ-साथ आपकी पिकनिक ट्रिप उन्हें प्रकृति के क़रीब लाएगी और वे बेहतर महसूस करेगीं।
इस प्रकार आप अपनी मां के लिए ये मातृ दिवस (मदर्स डे) स्पेशल बना सकते हैं। अगाथा क्रिस्टी के शब्दों में, एक शिशु के लिए उसकी मां का लाड़ - प्यार दुनिया की किसी भी वस्तु के सामने अतुलनीय है। इस प्रेम की कोई सीमा नहीं होती और ये किसी क़ानून को नहीं मानता।

Thursday, May 10, 2012

मंदिर में घंटी क्यों लगी होती है ?


अक्सर जब हम मंदिर जाते है तो सबसे पहले घंटी जरुर बजाते है,और घर में भी पूजा करने पर घंटी बजाते है. क्या कभी सोचा है मंदिर में घंटी क्यों लगी होती है ?

मंदिरों से हमेशा घंटी की आवाज आती रहती है. सामान्यत: सभी श्रद्धालु मंदिरों में लगी घंटी अवश्य बजाते हैं. घंटी की आवाज हमें ईश्वर की अनुभूति तो कराती है साथ ही हमारे स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद है. घंटी आवाज से जो कंपन होता है उससे हमारे शरीर पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. घंटी की आवाज से हमारा दिमाग बुरे विचारों से हट जाता है और विचार शुद्ध बनते हैं. इसके पीछे ऋषियों का नाद विज्ञान हैं.

पुरातन काल से ही मंदिरों में घंटियां से लगाई जाती हैं. सुबह-शाम मंदिरों में जब पूजा-आरती की जाती है तो छोटी घंटियों, घंटों के अलाव घडिय़ाल भी बजाए जाते हैं. इन्हें विशेष ताल और गति से बजाया जाता है. इन लय युक्त तरंगौं का प्रभाव व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पडता है ऐसा माना जाता है कि घंटी बजाने से मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति के देवता भी चैतन्य हो जाते हैं, जिससे उनकी पूजा प्रभावशाली तथा शीघ्र फल देने वाली होती है.

पुराणों के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से हमारे कई पाप नष्ट हो जाते हैं. जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद (आवाज) था, वहीं स्वर घंटी की आवाज से निकलती है. यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जाग्रत होता है. घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है. धर्म शास्त्रियों के अनुसार जब प्रलय काल आएगा तब भी इसी प्रकार का नाद प्रकट होगा.स्कंद पुराण के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से मानव के सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं.

मंदिरों में घंटी बजाने का वैज्ञानिक कारण भी है. अधिक भीड़ के समय भक्तों को संक्रामक बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है,जब घंटी बजाई जाती है तो उससे वातावरण में कंपन उत्पन्न होता है जो वायुमंडल के कारण काफी दूर तक जाता है. इस कंपन की सीमा में आने वाले जीवाणु, विषाणु आदि सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं तथा मंदिर का तथा उसके आस-पास का वातावरण शुद्ध बना रहता

Monday, May 7, 2012

विश्व रेडक्रॉस दिवस (8 may)



विश्व रेडक्रॉस दिवस (WORLD RED CROSS DAY) अन्तर्राष्ट्रीय स्वंयसेवक दिवस के रूप में मनाया जाता है। पिछले 150 वर्षों से पूरे विश्व में रेडक्रॉस के स्वंय सेवक असहाय एवं पीड़ित मानवता की सहायता के लिए काम करते आ रहे हैं। भारत में वर्ष 1920 में पार्लियामेंट्री एक्ट के तहत भारतीय रेडक्रॉस सोसायटी का गठन हुआ, तब से रेडक्रॉस के स्वंय सेवक विभिन्न प्रकार के आपदाओं में निरंतर निस्वार्थ भावना से अपनी सेवाएं दे रहे हैं। अन्तर्राष्ट्रीय रेडक्रॉस ने इस वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय रेडक्रॉस का 'Find the Volunteer in side you' (अपने अन्दर के स्वयं सेवक को पहचानें) का नारा दिया है।
विश्व के लगभग दो सौ देश किसी एक विचार पर सहमत हैं तो वह है रेडक्रॉस के विचार। युद्ध के मैदान में घायल सैनिकों की चिकित्सा के साथ प्रकृति के महाविनाश के बीच फंसे लोगों की मदद के लिए हमेशा डटा रहता है रेडक्रॉस।
पीड़ित मानवता की सेवा बिना भेदभाव के करते रहने का विचार देने वाले तथा रेडक्रॉस अभियान को जन्म देने वाले महान मानवता प्रेमी जीन हेनरी डयूनेन्ट का जन्म 8 मई 1828 में हुआ था। उनके जन्म दिवस 8 मई को विश्व रेडक्रॉस दिवस के रूप में पूरे विश्व में मनाया जाता है। उन्होंने समाज सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया और पूरे विश्व के लोगों को मानवतावादी सेवक के रूप में स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। सेवा कार्य के लिए उनके द्वारा गठित सोसायटी को रेडक्रॉस का नाम दिया गया। वर्तमान में विश्व के 186 देशों में रेडक्रॉस सोसायटी कार्य कर रही है। वर्ष 1901 में हेनरी डयूनेंट को उनके मानव सेवा के कार्यों के लिए पहला नोबेल शांति पुरस्कार मिला।
युद्ध में घायल सैनिकों की स्थिति से विचलित हेनरी डयूनेन्ट ने 9 फरवरी 1863 को जेनेवा में पांच लोगों की एक कमेटी बनाई। हेनरी की इस परिकल्पना का नाम था 'इंटरनेशनल कमेटी फॉर रिलीफ टू द उन्डेड'। उसी वर्ष अक्टूबर में जेनेवा में ही एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। इसमें 18 विभिन्न देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए। इसी में रेडक्रॉस को अमली जामा पहनाने का मसौदा तैयार किया गया।
इस संस्था की पहचान के लिए सफेद पट्टी पर लाल रंग के क्रास चिह्न को मान्यता दी गई। आज यह चिह्न पूरे विश्व में पीड़ित मानवता की सेवा का प्रतीक बन गया है। इसके साथ यह भी अतिमहत्त्वपूर्ण है कि विश्व का पहला ब्लड बैंक रेडक्रॉस की पहल पर अमेरिका में 1937 में खुला। आज विश्व के अधिकांश ब्लड बैंकों का संचालन रेडक्रॉस एवं उसकी सहयोगी संस्थाओं के द्वारा किया जाता है। रेडक्रॉस द्वारा चलाए गए रक्तदान जागरूकता अभियान के कारण ही आज थैलेसिमिया, कैंसर, एनीमिया जैसी अनेक जानलेवा बीमारियों से हजारों लोगों की जान बच रही है।




"अहो! ये देवर्षि नारद हैं, जो वीणा बजाते हैं, हरिगुण गाते, मस्त दशा में तीनों लोकों में घूम कर दु:खी संसार को आनंदित करते हैं।" [1]

खड़ी शिखा, हाथ में वीणा, मुख से 'नारायण' शब्द का जाप, पवन पादुका पर मनचाहे वहाँ विचरण करने वाले नारद से सभी परिचित हैं।श्रीकृष्ण देवर्षियों में नारद को अपनी विभूति बताते हैं [2]। वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियाँ, सभी शास्त्रों में कहीं ना कहीं नारद का निर्देश निश्चित रूप से होता ही है। ऋग्वेद मंडल में 8-9 के कई सूक्तों के दृष्टा नारद हैं। अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण, मैत्रायणी संहिताआदि में नारद का उल्लेख है।

पूर्व कल्प में नारद 'उपबर्हण' नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर अभिमान था। एक बार जब ब्रह्मा की सेवा में अप्सराएँ और गंधर्व गीत और नृत्य से जगत्सृष्टा की आराधना कर रहे थे, उपबर्हण स्त्रियों के साथ श्रृंगार भाव से वंहा आया। उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गये और उन्होंने उसे 'शूद्र योनि' में जन्म लेने का शाप दे दिया। शाप के फलस्वरूप वह 'शूद्रा दासी' का पुत्र हुआ। माता पुत्र साधु संतों की निष्ठा के साथ सेवा करते थे। पाँच वर्ष का बालक संतों के पात्र में बचा हुआ झूठा अन्न खाता था, जिससे उसके हृदय के सभी पाप धुल गये। बालक की सेवा से प्रसन्न हो कर साधुओं ने उसे नाम जाप और ध्यान का उपदेश दिया। शूद्रा दासी की सर्पदंश से मृत्यु हो गयी। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पाँच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े। एक दिन वह बालक एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठा था कि उसके हृदय में भगवान की एक झलक विद्युत रेखा की भाँति दिखायी दी और तत्काल अदृश्य हो गयी। उसके मन में भगवान के दर्शन की व्याकुलता बढ़ गई, जिसे देख कर आकाशवाणी हुई - हे दासीपुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।' समय बीतने पर बालक का शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्म में लीन हो गया।

समय आने पर नारद जी का पांचभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अन्त में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए।

नारद मुनि, हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के 'सात मानस' पुत्रों में से एक हैं । उन्होंने कठिन तपस्या से 'ब्रह्मर्षि' पद प्राप्त किया है । वे भगवान विष्णु के प्रिय भक्तों में से एक माने जाते हैं।




महायोगी नारद जी ब्रह्मा जी के मानसपुत्र हैं। वे प्रत्येक युग में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवन जप 'महती' के नाम से विख्यात है। उससे 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। इनकी गति अव्याहत है। ये ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और अजर–अमर हैं। भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है।

कार्य

नारद के अगणित कार्य हैं। भृगु कन्या लक्ष्मी का विवाह विष्णु के साथ करवाया, इन्द्र को समझा बुझाकर उर्वशी का पुरुरवा के साथ परिणय सूत्र कराया, जालंधर का विनाश करवाया, कंसको आकाशवाणी का अर्थ समझाया और बाल्मीकि को रामायण की रचना करने की प्रेरणा दी। व्यास जी से भागवत की रचना करवायी, प्रह्लाद और ध्रुव को उपदेश देकर महान भक्त बनाया, बृह्स्पति और शुकदेव जैसों को उपदेश दिया और उनकी शंकाओं का समाधान किया, इन्द्र, चन्द्र, विष्णु, शंकर, युधिष्ठिर, राम, कृष्ण आदि को उपदेश देकर कर्तव्याभिमुख किया। भक्ति का प्रसार करते हुए वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों का सहयोग करते रहते हैं। ये भगवान के विशेष कृपापात्र और लीला-सहचर हैं। जब-जब भगवान का आविर्भाव होता है, ये उनकी लीला के लिए भूमिका तैयार करते हैं। लीलापयोगी उपकरणों का संग्रह करते हैं और अन्य प्रकार की सहायता करते हैं इनका जीवन मंगल के लिए ही है। ये स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं।

देवर्षि नारद


देवर्षि नारद, व्यास, बाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव आदि के गुरु हैं। श्रीमद्भागवत, जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ-रत्न है तथा रामायण, जो मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पावन, आदर्श चरित्र से परिपूर्ण है, देवर्षि नारदजी की कृपा से ही हमें प्राप्त हो सकें हैं। इन्होंने ही प्रह्लाद, ध्रुव, राजा अम्बरीष आदि महान भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। येभागवत धर्म के परम-गूढ़ रहस्य को जानने वाले- ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि कपिल, स्वयंभुव मनु आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित भक्तिसूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है। नारदजी को अपनी विभूति बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण श्रीमद् भागवत गीता के दशम अध्याय में कहते हैं- अश्वत्थ: सर्ववूक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।


व्यक्तित्व


नारद श्रुति - स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष, योग आदि अनेक शास्त्रों में पारंगत थे। नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, त्रिकाल ज्ञानी, वीणा द्वारा निरंतर प्रभु भक्ति के प्रचारक, दक्ष, मेधावी, निर्भय, विनयशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, स्थितप्रज्ञ, तपस्वी, चारों पुरुषार्थ के ज्ञाता, परमयोगी, सूर्य के समान, त्रिलोकी पर्यटक, वायु के समान सभी युगों, समाजों और लोकों में विचरण करने वाले, वश में किये हुए मन वाले. नीतिज्ञ, अप्रमादी, आनंदरत, कवि, प्राणियों पर नि:स्वार्थ प्रीति रखने वाले, देव, मनुष्य, राक्षस सभी लोकों में सम्मान पाने वाले देवता तथापि ऋषित्व प्राप्त देवर्षि थे।




एक बार नारद को कामदेव पर विजय प्राप्त करने का गर्व हुआ। उनके इस गर्व का खण्डन करने के लिए भगवान ने उनका मुँह बन्दर जैसा बना दिया। नारद का स्वभाव 'कलहप्रिय' कहा गया है। व्यवहार में खटपटी व्यक्ति को, एक दूसरे के बीच झगड़ा लगाने वाले व्यक्ति को हम नारद कहते हैं। परंतु नारद कलहप्रिय नहीं वरन वृतांतों का वहन करने वाले एक विचारक थे।

नारद के ग्रंथ

नारद पांचरात्र

नारद के भक्तिसूत्र

नारद महापुराण,

बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता-(स्मृतिग्रंथ)

नारद-परिव्राज कोपनिषद

नारदीय-शिक्षा के साथ ही अनेक स्तोत्र भी उपलब्ध होते हैं। देविर्षि नारद के सभी उपदेशों का निचोड़ है -




सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितै: भगवानेव भजनीय:। अर्थात सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए।


भक्त नारद

देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए निरन्तर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्तिसूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है। अब भी ये अप्रत्यक्षरूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिये ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भण्डार, आनन्द के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं। हिन्दू संस्कृति के दो अमूल्य ग्रंथ रामायण और भागवत के प्रेरक नारद का जन्म लोगों को सन्मार्ग पर मोड़ कर भक्ति के मार्ग पर खींचकर, विश्वकल्याण के लिए हुआ था।

Saturday, May 5, 2012

कौन से पुष्प, किस देवता को चढाते है ?

फूल सुंदरता के प्रतीक हैं, जो जीवन में उत्साह, उल्लास ओर उमंग भरते हैं। फूलों की सुगंध और सौंदर्य से देवी-देवता प्रसन्न होते हैं ऐसी मान्यता है कि भगवान के प्रिय पुष्प अर्पित करने से वे जल्दी प्रसन्न होते हैं और भक्तों को मनावांछित फल प्रदान करते हैं।यही वजह है कि पूजा-अर्चना, व्रत-उपवास या विभिन्न पर्वों पर अपने-अपने इष्ट को पुष्प अर्पित करने का विधान है।

भगवान की पूजा-अर्चना में फूल अर्पित करना अति आवश्यक माना गया है। सभी मांगलिक कार्य और पूजन कर्म में फूलों का विशेष स्थान होता है। सभी देवी-देवताओं को अलग-अलग फूल प्रिय हैं। साथ ही कुछ फूल ऐसे है जो नहीं चढ़ाएं जाते। इसी वजह से बड़ी सावधानी से पूजा आदि के लिए फूलों का चयन करना चाहिए।

१. श्रीगणेश - पद्मपुराण, आचार रत्न में लिखा है कि 'न तुलस्या गणाधिपम्‌' अर्थात गणेशजी को तुलसी छोड़कर सभी पत्र-पुष्प प्रिय हैं! गणपतिजी को दूर्वा अधिक प्रिय है। अतः सफेद या हरी दूर्वा चढ़ाना चाहिए। दूर्वा की फुनगी में तीन या पाँच पत्ती होना चाहिए। भगवान गणेश को गुड़हल का लाल फूल विशेष रूप से प्रिय होता है। इसके अलावा चाँदनी, चमेली या पारिजात के फूलों की माला बनाकर पहनाने से भी गणेश जी प्रसन्न होते हैं।

२. शंकरजी- भगवान शंकर को धतूरे के पुष्प, हरसिंगार, व नागकेसर के सफेद पुष्प, सूखे कमल गट्टे, कनेर, कुसुम, आक, कुश आदि के पुष्प चढ़ाने का विधान है।शिवजी की पूजा में मालती, कुंद, चमेली, केवड़ा के फूल वर्जित किए गए हैं।भगवान शंकर पर फूल चढ़ाने का बहुत अधिक महत्व है। तप, शील, सर्वगुण संपन्न वेद में निष्णात किसी ब्राह्मण को सौ सुवर्ण दान करने पर जो फल प्राप्त होता है, वह शिव पर सौ फूल चढ़ा देने से प्राप्त हो जाता है।

जैसे दस सुवर्ण दान का फल एक आक के फूल को चढ़ाने से मिलता है, उसी प्रकार हजार आक के फूलों का फल एक कनेर से और हजार कनेर के बराबर एक बिल्व पत्र से मिलता है। समस्त फूलों में सबसे बढ़कर नीलकमल होता है।

३. सूर्य नारायण- इनकी उपासना कुटज के पुष्पों से की जाती है। इसके अलावा कनेर, कमल, चंपा, पलाश, आक, अशोक आदि के पुष्प भी प्रिय हैं। सूर्य उपासना में अगस्त्य के फूलों का उपयोग नहीं करना चाहिए।

४. भगवती गौरी- शंकर भगवान को चढऩे वाले पुष्प मां भगवती को भी प्रिय हैं। इसके अलावा बेला, सफेद कमल, पलाश, चंपा के फूल भी चढ़ाए जा सकते हैं।

५. श्रीकृष्ण-
 अपने प्रिय पुष्पों का उल्लेख महाभारत में युधिष्ठिर से करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं- मुझे कुमुद, करवरी, चणक, मालती, नंदिक, पलाश व वनमाला के फूल प्रिय हैं।

६. लक्ष्मीजी-
 इनका सबसे अधिक प्रिय पुष्प "कमल" है।पुष्पों में कमल का विशेष स्थान है। कमल का फूल सभी देवी-देवताओं को अतिप्रिय है। कमल की सुंदरता की महिमा इसी बात से सिद्ध होती है कि भगवान के नेत्रों की तुलना कमल के फूल से की जाती है।

कमल कीचड़ में उगता है और उससे ही पोषण लेता है, लेकिन हमेशा कीचड़ से अलग ही रहता है। कमल का फूल पूर्ण विकास दर्शाता है. सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन किस प्रकार जिया जाए. संसाररूपी कीचड़ में रहते हुए भी हमें किस तरह रहना चाहिए यह शिक्षा हम कमल से ले सकते हैं।

कमल की आठ पंखुडिय़ां मनुष्य के अलग-अलग 8 गुणों की प्रतीक हैं, ये गुण हैं दया, शांति, पवित्रता, मंगल, निस्पृहता, सरलता, ईर्ष्या का अभाव और उदारता। इसका आशय यही है कि मनुष्य जब इन गुणों को अपना लेता है तब वह भी ईश्वर को कमल के फूल के समान प्रिय हो जाता है।

७. विष्णुजी-
 इन्हें कमल, मौलसिरी, जूही, कदम्ब, केवड़ा, चमेली, अशोक, मालती, वासंती, चंपा, वैजयंती के पुष्प विशेष प्रिय हैं।

 प्रात: काल स्नानादि के बाद भी देवताओं पर चढ़ाने के लिए पुष्प तोड़ें या चयन करें। ऐसा करने पर भगवान प्रसन्न होते हैं।

                                             भगवान को कौन से पुष्प नहीं चढ़ाये 

विष्णु और भगवान शिव को केवल केतकी (केवड़े) का निषेध है।  सूर्य और श्रीगणेश के अतिरिक्त सभी देवी-देवताओं को बिल्व पत्र चढ़ाएं जा सकते हैं। सूर्य और श्री गणेश को बिल्व पत्र न चढ़ाएं। 'गणेश तुलसी पत्र दुर्गा नैव तु दूर्वाया' अर्थात गणेशजी की तुलसी पत्र और दुर्गाजी की दूर्वा से पूजा न करें।

                                        किस तरह के फूल पूजा में नहीं चढाने चाहिये?
कीड़े लगे फूल, बासी फूल भगवान को न चढ़ाएं।

* बिखरे या पेड़ से जमीन पर गिरे फूल भी देव पूजा में ना चढ़ाएं।

* कली या अधखिले फूल भी अर्पित न करें।

* भगवान पर चढ़ा, उल्टे हाथ में रखा, धोती के पल्ले में बांधकर लाया और पानी से धोया फूल भी न चढ़ाएं।

पौधे पर जिस स्थिति में फूल खिलता है, उसी स्थिति में सीधे हाथ से भगवान को चढ़ाएं।

फूलों को किसी टोकरी में तोड़कर लाएं।

* सूखे फूल न चढ़ाएं।.

बिना नहाए पूजा के लिए फूल कभी ना तोड़े।किसी भी देवता के पूजन में केतकी के पुष्प नहीं चढ़ाए जाते।  
एक अन्य बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है और वह यह कि कमल और कुमुद के पुष्प ग्यारह से पंद्रह दिन तक भी बासी नहीं होते। चंपा की कली के अलावा किसी भी पुष्प की कली देवताओं को अर्पित नहीं की जाती। केतकी के पुष्प किसी भी पूजन में अर्पित नहीं किए जाते। कुशा से मूर्ति पर जल न छिड़के।

                                                                     सार
सबसे महत्व की बात यह है हम जो भी चढ़ाये उसमे भाव हो, बिना भाव के कोई भी चीज करना बेकार है. "पत्रं पुष्पं फलं , तोयम , माय भक्त्या प्रयाच्चाती इअदहम भक्त्य्पर्हत्म्श्नामी प्रयात्मनाह" जो भी मुझे प्रेम  से फूल, फल, जल अर्पित करता है मैं उसे स्वीकारता हूँ. और हमारा सुन्दर मन ही सुमन अर्थात पुष्प है. इसी सुन्दर मन को हम बड़े भाव से परमात्मा को अर्पित करे.भगवान इस सुमन से सबसे ज्यादा प्रसन्न होते है.


सात्विक भोजन क्यों जरुरी है ?

कहते है जैसा अन्न वैसा मन,अर्थात हम जो कुछ भी खाते है वैसा ही हमारा मन बन जाता है.जैसा हमारा मन होगा.अन्न चरित्र निर्माण करता है.इसलिए हम क्या खा रहे है इस बात को सदा ध्यान रखना चाहिये.

अक्सर देखा जाता है कि लोग भोजन के समय टीवी देखते रहते हैं या अखबार पढ़ते रहते हैं या कुछ और करते रहते हैं लेकीन ऐसा करना उचित नहीं,क्योंकि मन में दो चीजे एक साथ नहीं बसती , मन एक समय में एक विषय को पकड़ता है और हम सम्पूर्ण संसार को एक साथ भरना चाहते हैं जो संभव नहीं और यहीं हम भूल कर जाते हैं.छोटी-छोटी बातें हैं जो गंभीर असर हम सब के जीवन पर डालती हैं.

प्रकृति से हम जो कुछ भी ग्रहण करते हैं जैसे  भोज्य पदार्थ, पेय पदार्थ, वायु , पांच ज्ञानेन्द्रियों से जो कुछ भी हमारा मन प्राप्त करता है, कर्म इन्द्रियों से हम जो कुछ भी प्राप्त करते हैं,और मन में संगृहीत सूचनाओं के मनन से जैसा भाव मन में उठता है. इन सब से हमारे अंदर का गुण समीकरण बदलता है और गुण समीकरण में आया परिवर्तन ही हमारे वर्तमान को चलाता है.

जैसा गुण समीकरण अन्दर होगा ,वैसे विचार मन-बुद्धि में उठेंगे, जैसे बिचार उठते हैं वैसे हम कर्म करते हैं,जैसे हम कर्म करते हैं, वैसा फल हमें मिलता है , और कर्म के आधार पर हमारा अगला जन्म भी आधारित होता है, भोजन बनाना, भोजन सामग्री, भोजन बनानें वाले और करनें वाले की मन की स्थितियां ऎसी कुछ बातें हैं जिनको हमें ध्यान रखना चाहिए.

भोजन के स्वाद 
भोजन के छै: स्वाद होते है.

१. - मधुर स्वाद २. - खट्‌टा स्वाद ३. -नमकीन स्वाद ४. - तीखा स्वाद ५. - कड़वा स्वाद ६. - कसैला स्वाद

१.- मधुर स्वाद  - मधुर स्वाद वाले खाद पदार्थ सर्वाधिक पुष्टिकर माने जाते हैं ।वे शरीर से उन महत्वपूर्ण विटामिनों एवं खनिज-लवणों को ग्रहण करते हैं जिसका प्रयोग शर्करा को पचाने के लिये किया जाता है । इस श्रेणी में आने वाले खाद पदार्थों में समूचे अनाज के कण, रोटी, पास्ता, चावल, बीज एवं बादाम हैं.
२. - खट्‌टा स्वाद - छाछ, खट्‌टी मलाई, दही एवं पनीर है अधिकांश अधपके फल भी खट्‌टे होते हैं । खट्‌टे खाद्पदार्थ का सेवन करने से हमारी भूख बढ़ती है यह आपके लार एवं पाचक रसों का प्रवाह तेज करती है । खट्‌टे भोजन का अति सेवन करने से हमारे शरीर में दर्द तथा ऐंठन की अधिक सम्भावना रहती है.
३. - नमकीन स्वाद - नमक आदि 
४. - तीखा स्वाद - प्याज, अदरक, सरसों, लाल मिर्च.
५. - कड़वा स्वाद -  हरी सब्जियों, चाय,काफी आदि. 
६. - कसैला स्वाद- अजवाइन, खीरा, बैंगन,सेव, रूचिरा, झड़बेरी, अंगूर एवं नाशपाती भी कसैले होते हैं.

भोजन के प्रकार

भोजन तीन प्रकार के हो सकते हैं - "सात्विक", "राजसिक" एवं "तामसिक". 
१. सात्विक - सात्विक भोजन सदा ही ताज़ा पका हुआ, सादा, रसीला, शीघ्र पचने वाला, पोषक, चिकना, मीठा एवं स्वादिष्ट होता है. यह मस्तिष्क की उर्जा में वृद्धि करता है और मन को प्रफुल्लित एवं शांत रखता है, सोचने-समझने की शक्ति को और भी स्पष्ट बनाता है. सात्विक भोजन शरीर और मन को पूर्ण रूप से स्वस्थ रखने में बहुत अधिक सहायक है.जो अपने अच्छे-बुरे स्वास्थ्य के लिए अच्छे और मध्यम भोजन को चुनना चाहते हैं अर्थात जो आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक तीनो प्रकार से अच्छा स्वास्थ्य पाना चाहते हैं उन्हे सात्विक भोजन करना चाहिए।

बादाम, शहद ताजे फल, दूध, गाय का दूध, घी, पके हुए ताजे फल, बादाम, खजूर, सभी अंकुरित अन्न व दालें, टमाटर, परवल, तोरई, करेला जैसी सब्जियां, पत्तेदार साग सात्विक मानी गयीं हैं. घर में सामान्यतः प्रयोग किये जाने वाले मसाले जैसे हल्दी, अदरक, इलाइची, धनिया, सौंफ और दालचीनी सात्विक होते हैं.

२. राजसिक - जो लोग चाहते हैं कि वो सिर्फ मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ बने उन्हे राजसिक भोजन करना चाहिए।कड़वा, खट्टा, नमकीन, तेज़, चरपरा और सूखा होता है. पूरी, पापड़, बिजौड़ी जैसे तले हुए पदार्थ , तेज़ स्वाद वाले मसाले, मिठाइयाँ, दही, बैंगन, गाजर-मूली, उड़द, नीबू, मसूर, चाय-कॉफी, पान राजसिक भोजन के अर्न्तगत आते हैं.

३. तामसिक - जो लोग चाहते हैं कि भोजन करने से सिर्फ उनका शरीर ताकतवर और मजबूत बने उन लोगों को तामसिक भोजन करना चाहिए। बासी, जूठा, ठंडा, अधपका, गंधयुक्त आहार लेगा पुराने, पुन: पकाये हुए, कृत्रिम, अति तले हुए, चर्बीदार या भारी भोजन जैसे - मांस, मछली और अन्य सी-फ़ूड, वाइन, लहसुन, प्याज और तम्बाकू, पेस्ट्री, पिज्जा, बर्गर, ब्रेड, चॉकलेट, सॉफ्ट ड्रिंक, तंदूरी रोटी, रुमाली रोटी, नान, बेकरी उत्पाद, तम्बाकू, शराब, डिब्बाबंद व फ्रोज़न फ़ूड, ज़रूरत से ज्यादा चाय-कॉफी, केक, अंडे, जैम, कैचप, नूडल्स, चिप्स समेत सभी तले हुए पदार्थ होते हैं।  ये शरीर में गरमी पैदा करते हैं. इसलिए इन्हें तामसिक भोजन की श्रेणी में रखा गया है। 

कई धर्मो में वैष्णवजन प्याज लहसुन का उपयोग नहीं करते. प्याज शरीर को लाभ पहुंचाने के हिसाब से चाहे कितना ही लाभकारी और गुणकारी क्यों न हो लेकिन मानसिक और आध्यात्मिक नज़रिये से यह एक तेज और निचले दर्जे का तामसिक भोजन का पदार्थ है।दोनों ही अपना असर गरमी के रूप में दिखाते हैं, शरीर को गरमी देते हैं जिससे व्यक्ति की काम वासना में बढ़ोतरी होते है। ऐसे में उसका मन अध्यात्म से भटक जाता है।इनकी तासीर या गुणों के कारण ही इनका त्याग किया गया है.इसी तरह से मांस खाने से शरीर में मांस भले ही बढ़ जाए लेकिन उससे मानसिक ओर आध्यात्मिक स्वास्थ्य की आशा कभी नही करनी चाहिए।

राजसी एवं तामसी खादपदार्थ दोनों में एक संतुलित, एक समान मन-शरीर अनुभव को अवलंबित करने की क्षमता नहीं है.|भोजन जितना बासी और ठंडा होगा उतना ही पचने में देर लगेगी. तामसिक भोजन अतिक्रियाशीलता, आलस्य एवं अति निद्रा उत्पन्न करता है. इसलिए इन्द्रियों को सुस्त करते हैं एवं आवेग को तीव्र तथा प्रभावशून्य रखते हैं. 

हमेशा गर्म और ताजा भोजन करने पर जोर दिया जाता है क्योकि अगर भोजन गरम हो तो भोजन की गर्मी और पेट की गर्मी मिलकर उसे जल्दी पचा देती है. इसलिए पेट की अग्नि को हम ‘जठराग्नि’ कहते है और इसीलिए कहा जाता है कि गर्म भोजन करो.क्योंकि भोजन अगर ठंडा हो तो पेट की अकेली गर्मी के आधार पर ही उसका पाचन होता है, तो जो भोजन छः घंटे में पचना होता है वह बारह घंटे में पचेगा और पचने में जितनी देर लगती है उतनी ही ज्यादा देर तक नींद आएगी क्योंकि जब तक भोजन न पच जाये तब तक मस्तिष्क को उर्जा नहीं मिलती क्योंकि मस्तिष्क जो है वह लक्जरी है. अतः सारी उर्जा, सारी शक्ति पहले भोजन को पचाने में लगती है और यही कारण है कि भोजन के बाद नींद मालूम पड़ती है क्योंकि मस्तिष्क को जितनी शक्ति मिलनी चाहिए वह नहीं मिलती.
तामसी भोजन आलस्य बढ़ाता है, राजसी भोजन क्रोध बढ़ाता है और सात्विक भोजन प्रेम बढ़ाता है . शरीर भोजन से ही बना है, इसलिए बहुत कुछ भोजन पर ही निर्भर है.  तामसी प्रेम नहीं कर सकता, वह प्रेम की मांग करता है. उसकी शिकायत है कि उससे कोई प्रेम नहीं करता.सत्व प्रेम देता है.