Friday, August 10, 2012
Thursday, August 9, 2012
‘‘माधुर्य के अकेले अवतार कर्मयोगी श्रीकृष्ण ’’
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एक प्रसिद्ध कहावत है ‘महापुरुष जन्म से नहीं कर्म से होते हैं’। जन्म लेते समय मनुष्य एक साधारण सा मानव होता है किन्तु धीरे धीरेसंस्कार, शिक्षा, उच्च चारित्र बल एवं पूर्वकृत अच्छे पुण्योद्वय के कारण अपने व्यंिक्तत्व को विकसित ओर प्रभावशाली बनाता हुआ एक दिन मानव से महामानव बन जाता है। वह कंठ धन्य है जिसमें श्री प्रभु का मंगलमय नाम लिया जाता है, वे कान
धन्य है जो श्री प्रभु की महिमा का श्रवण करते हैं।
श्री प्रभु का एक दिव्य स्वरुप हैभगवान् श्रीकृष्ण। जिनके जन्म लेते ही धरती पर आनंद और सुख की लहरें उठी। भय, आतंक से पीड़ित प्रजा में आशा कि एक किरण फूटी कि हमारा ‘तारणहार’ आ गया। वैदिक परम्परा में श्रीकृश्ण भगवान् विष्णु के पूर्व अवतार माने जाते हैं। जैन परम्परा के अनुसार भी त्रेसठ (63) शलाका पुरुषों में एकशलाका पुरुष श्रीकृष्ण ‘वासुदेव’ के नाम से विख्यात है।
धरती पर माधुर्य के अवतार अकेले श्रीकृष्ण ही तो हुए। वे ऐसे पुरुष हुए जिन्होंने अपने जीवन में न कभी जप किया, न तप किया, न जंगलों में जाकर साधना की लेकिन फिर भी वे धरती के भगवान् स्वीकारकिए गए। जन्म से लेकर निर्वाण तक एक भी माला नहीं जपी ओर न ही किसी तरह की साधना की। प्रेम ही उनकी साधना थी और आत्मविष्वास ही उनकी आराधना थी। श्रीकृष्ण की मुरली एवं उनका सुदर्षन चक्र भी मानवता के लिए अमृत वरदान था। चक्र द्वारा मानवता के लिए कलंक बन चुके आतताइयों और आतंकवादियों कासफाया किया ओर समग्र मानवता को प्रेम का सन्देष दिया जिससे सम्पूर्ण मानवता का एक धरातल पर प्रतिष्ठापन हुआ।
श्रीकृश्ण का जीवन ज्ञान एवं कर्म का समन्वित जीवन था। जो उपदेश उन्होंने दूसरों के लिए दिये उसी उपदेश को स्वयं के जीवन में भी चरितार्थ किया। पापियों के संहारक ओर भक्तों के तारक दोनोरुप श्रीकृष्ण के है। श्रीकृष्ण की गीता आत्म विष्वास का शास्त्र है। 18 अध्यायों की गीता उनकी अनुपम देन है। गीता तो धरती का वह अनुपम षिखर है जिससे सारे विश्व को जीवन जीने की कला और समृद्धि की फिजाऐं मिली है।
गीता ही धरती का वह परम शास्त्र है जो मनुष्य को अधिकारों के संरक्षण का विश्वास देता है। आज जिन मानवाधिकारों की रक्षा की बात की जाती है अगर उनकी रक्षा के लिए धरती पर सबसे पहला शंखनाद किसी ने किया तो वह है श्रीमद् भगवद् गीता। कर्मयोग ही गीता का मूल सन्देश है, कर्म आपके कामधेनुकी तरह है, वही व्यक्ति वही देश आगे बढ़ रहे हैं जिन्होंने ऊँचे लक्ष्य के साथ ऊँचा प्रयत्न किया है।
इस धरा पर किसी व्यक्ति ने गऊओं की सेवा के लिए अपने ईष्वरत्व को भी समर्पित किया तो धरती पर वह अकेलाशख्स केवल कर्मयोगी श्रीकृष्ण ही हुए। जिस नारी के प्रति इंसानी नज़रिया हमेशा गलत रहा उसके प्रति अगर आध्यात्मिक प्रेम का, ईष्वरीय प्रेम का संगानअगरकिसी ने किया तो वह भी श्रीकृष्ण ही हुए। श्रीकृष्ण का तो एक एक कण अपने आप में प्रेम ओर माधुर्य से ओत प्रोत है।
आज जन्माष्टमी का पवित्र दिवस है। आज देश में लाखों करोड़ों श्रीकृष्ण के भक्त है जो मन्दिरों में जाकर दर्शन करके अपने आपको धन्य मानते हैं पर क्याकिसी भक्त के दिल में दया नहीं आती कि श्रीकृष्ण की गौमाता जो हैउसकी हालत क्या हो रही है? लाखों गायें प्रतिदिन कत्लखानों में काटी जा रही है। श्रीकृष्ण की जन्म कर्म स्थली इस भारत भूमि पर लाखों करोड़ों छोटे बड़े कत्लखाने है। इस देश में हिंसा कामहाताण्डव श्रीकृश्ण के भक्तों एवं शान्ति के पुजारियों के लिए दिल दहलाने वाला है। अगर इस देष में कृष्ण भक्त एवं इसके अलावा जोभी श्रद्धालु श्रीकृष्ण को दिल में बसाकर यह प्रण ले कि मैं एक गाय का पालन पोषण करुंगा तो इस देष से बहुत जल्दी कत्लखानों मे गायें कटना बंद हो जाएगी।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन दिवस पर मेरा यही कहना है कि आप व्रत रखकर, मन्दिरों में पूजा प्रसाद चढ़ाकर श्रीकृष्ण का जन्मदिवस मनाते हैं तो मनाएँ परन्तु श्रीकृष्ण के आदर्श चरित्र ओर उनके नैतिक उपदेशों के एक एक सूत्र को जीवन में धारण करने के साथ साथ गौमाता रक्षण के लिए आगे आये, गौमाता की सेवा करेंगे तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाना सार्थक होगा। अंत में इतनी ही.....
संकट में है आज वो धरती, जिस पर तूने जन्म लिया।
पूरा कर दे आज वचन वो, गीता में जो तूने दिया।।
श्री प्रभु का एक दिव्य स्वरुप हैभगवान् श्रीकृष्ण। जिनके जन्म लेते ही धरती पर आनंद और सुख की लहरें उठी। भय, आतंक से पीड़ित प्रजा में आशा कि एक किरण फूटी कि हमारा ‘तारणहार’ आ गया। वैदिक परम्परा में श्रीकृश्ण भगवान् विष्णु के पूर्व अवतार माने जाते हैं। जैन परम्परा के अनुसार भी त्रेसठ (63) शलाका पुरुषों में एकशलाका पुरुष श्रीकृष्ण ‘वासुदेव’ के नाम से विख्यात है।
धरती पर माधुर्य के अवतार अकेले श्रीकृष्ण ही तो हुए। वे ऐसे पुरुष हुए जिन्होंने अपने जीवन में न कभी जप किया, न तप किया, न जंगलों में जाकर साधना की लेकिन फिर भी वे धरती के भगवान् स्वीकारकिए गए। जन्म से लेकर निर्वाण तक एक भी माला नहीं जपी ओर न ही किसी तरह की साधना की। प्रेम ही उनकी साधना थी और आत्मविष्वास ही उनकी आराधना थी। श्रीकृष्ण की मुरली एवं उनका सुदर्षन चक्र भी मानवता के लिए अमृत वरदान था। चक्र द्वारा मानवता के लिए कलंक बन चुके आतताइयों और आतंकवादियों कासफाया किया ओर समग्र मानवता को प्रेम का सन्देष दिया जिससे सम्पूर्ण मानवता का एक धरातल पर प्रतिष्ठापन हुआ।
श्रीकृश्ण का जीवन ज्ञान एवं कर्म का समन्वित जीवन था। जो उपदेश उन्होंने दूसरों के लिए दिये उसी उपदेश को स्वयं के जीवन में भी चरितार्थ किया। पापियों के संहारक ओर भक्तों के तारक दोनोरुप श्रीकृष्ण के है। श्रीकृष्ण की गीता आत्म विष्वास का शास्त्र है। 18 अध्यायों की गीता उनकी अनुपम देन है। गीता तो धरती का वह अनुपम षिखर है जिससे सारे विश्व को जीवन जीने की कला और समृद्धि की फिजाऐं मिली है।
गीता ही धरती का वह परम शास्त्र है जो मनुष्य को अधिकारों के संरक्षण का विश्वास देता है। आज जिन मानवाधिकारों की रक्षा की बात की जाती है अगर उनकी रक्षा के लिए धरती पर सबसे पहला शंखनाद किसी ने किया तो वह है श्रीमद् भगवद् गीता। कर्मयोग ही गीता का मूल सन्देश है, कर्म आपके कामधेनुकी तरह है, वही व्यक्ति वही देश आगे बढ़ रहे हैं जिन्होंने ऊँचे लक्ष्य के साथ ऊँचा प्रयत्न किया है।
इस धरा पर किसी व्यक्ति ने गऊओं की सेवा के लिए अपने ईष्वरत्व को भी समर्पित किया तो धरती पर वह अकेलाशख्स केवल कर्मयोगी श्रीकृष्ण ही हुए। जिस नारी के प्रति इंसानी नज़रिया हमेशा गलत रहा उसके प्रति अगर आध्यात्मिक प्रेम का, ईष्वरीय प्रेम का संगानअगरकिसी ने किया तो वह भी श्रीकृष्ण ही हुए। श्रीकृष्ण का तो एक एक कण अपने आप में प्रेम ओर माधुर्य से ओत प्रोत है।
आज जन्माष्टमी का पवित्र दिवस है। आज देश में लाखों करोड़ों श्रीकृष्ण के भक्त है जो मन्दिरों में जाकर दर्शन करके अपने आपको धन्य मानते हैं पर क्याकिसी भक्त के दिल में दया नहीं आती कि श्रीकृष्ण की गौमाता जो हैउसकी हालत क्या हो रही है? लाखों गायें प्रतिदिन कत्लखानों में काटी जा रही है। श्रीकृष्ण की जन्म कर्म स्थली इस भारत भूमि पर लाखों करोड़ों छोटे बड़े कत्लखाने है। इस देश में हिंसा कामहाताण्डव श्रीकृश्ण के भक्तों एवं शान्ति के पुजारियों के लिए दिल दहलाने वाला है। अगर इस देष में कृष्ण भक्त एवं इसके अलावा जोभी श्रद्धालु श्रीकृष्ण को दिल में बसाकर यह प्रण ले कि मैं एक गाय का पालन पोषण करुंगा तो इस देष से बहुत जल्दी कत्लखानों मे गायें कटना बंद हो जाएगी।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन दिवस पर मेरा यही कहना है कि आप व्रत रखकर, मन्दिरों में पूजा प्रसाद चढ़ाकर श्रीकृष्ण का जन्मदिवस मनाते हैं तो मनाएँ परन्तु श्रीकृष्ण के आदर्श चरित्र ओर उनके नैतिक उपदेशों के एक एक सूत्र को जीवन में धारण करने के साथ साथ गौमाता रक्षण के लिए आगे आये, गौमाता की सेवा करेंगे तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाना सार्थक होगा। अंत में इतनी ही.....
संकट में है आज वो धरती, जिस पर तूने जन्म लिया।
पूरा कर दे आज वचन वो, गीता में जो तूने दिया।।
Tuesday, August 7, 2012
कालगणना-१
कालगणना-१ : काल का खगोल से सम्बंध ---------------------------
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इस सृष्टि की उत्पति कब हुई तथा यह सृष्टि कब तक रहेगी यह प्रश्न मानव मन
को युगों से मथते रहे हैं। इनका उत्तर पाने के लिए लिए सबसे पहले काल को
समझना पड़ेगा। काल जिसके द्वारा हम घटनाओं-परिवर्तनों को नापते हैं, कबसे
प्रारंभ हुआ?
इस सृष्टि की उत्पति कब हुई तथा यह सृष्टि कब तक रहेगी यह प्रश्न मानव मन को युगों से मथते रहे हैं।
आधुनिक काल के प्रख्यात ब्रह्माण्ड विज्ञानी स्टीफन हॉकिन्स ने इस पर एक
पुस्तक लिखी - brief history of time (समय का संक्षिप्त इतिहास)। उस पुस्तक
में वह लिखता है कि समय कब से प्रारंभ हुआ। वह लिखता है कि सृष्टि और समय
एक साथ प्रारंभ हुए जब ब्रह्माण्डोत्पति की कारणीभूत घटना आदिद्रव्य में
बिग बैंग (महाविस्फोट) हुआ और इस विस्फोट के साथ ही अव्यक्त अवस्था से
ब्रह्माण्ड व्यक्त अवस्था में आने लगा। इसी के साथ समय भी उत्पन्न हुआ। अत:
सृष्टि और समय एक साथ प्रारंभ हुए और समय कब तक रहेगा, तो जब तक यह सृष्टि
रहेगी, तब तक रहेगा, उसके लोप के साथ लोप होगा। दूसरा प्रश्न कि सृष्टि के
पूर्व क्या था? इसके उत्तर में हॉकिन्स कहता है कि वह आज अज्ञात है। पर
इसे जानने का एक साधन हो सकता है। कोई तारा जब मरता है तो उसका र्इंधन
प्रकाश और ऊर्जा के रूप में समाप्त होने लगता है। तब वह सिकुड़ने लगता है।
और भारतवर्ष में ऋषियों ने इस पर चिंतन किया, साक्षात्कार किया। ऋग्वेद के
नारदीय सूक्त में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति का वर्णन करते हुए
कहा गया कि तब न सत् था न असत् था, न परमाणु था न आकाश, तो उस समय क्या था?
तब न मृत्यु थी, न अमरत्व था, न दिन था, न रात थी। उस समय स्पंदन शक्ति
युक्त वह एक तत्व था।
सृष्टि पूर्व अंधकार से अंधकार ढंका हुआ था और तप की शक्ति से युक्त एक तत्व था। सर्वप्रथम
हमारे यहां ऋषियों ने काल की परिभाषा करते हुए कहा है "कलयति सर्वाणि
भूतानि", जो संपूर्ण ब्रह्माण्ड को, सृष्टि को खा जाता है। साथ ही कहा कि
यह ब्रह्माण्ड एक बार बना और नष्ट हुआ, ऐसा नहीं होता। अपितु उत्पत्ति और
लय पुन: उत्पत्ति और लय यह चक्र चलता रहता है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति,
परिवर्तन और लय के रूप में विराट कालचक्र चल रहा है। काल के इस सर्वग्रासी
रूप का वर्णन भारत में और पश्चिम में अनेक कवियों ने किया है। हमारे यहां
इसको व्यक्त करते हुए महाकवि क्षेमेन्द्र कहते हैं-
अहो कालसमुद्रस्य न लक्ष्यन्ते तिसंतता:।
मज्जन्तोन्तरनन्तस्य युगान्ता: पर्वता इव।।
अर्थात्-काल के महासमुद्र में कहीं संकोच जैसा अन्तराल नहीं, महाकाय
पर्वतों की तरह बड़े-बड़े युग उसमें समाहित हो जाते हैं। पश्चिम में 1990 में
नोबल पुरस्कार प्राप्त कवि आक्टोवियो पाज अपनी कविता Into the matter में
काल के सर्वभक्षी रूप का वर्णन निम्न प्रकार से करते हैं।
A clock strikes the time
now its time
it is not time now, not it is now
now it is time to get rid of time
now it is not time
it is time and not now
time eats the now
now its time
windows close
walls closed doors close
the words gøo home
Nowwe are more alone..........1
अर्थात्
"काल यंत्र बताता है काल
आ गया आज, काल।
आज में काल नहीं, काल में आज नहीं,
काल को विदा देने का काल है आज।
काल है, आज नहीं,
काल निगलता है आज को।
आज है वह काल
वातायन बंद हो रहे हैं
दीवार है बंद
द्वार बन्द हो रहे हैं
वैखरी पहुंच रही है स्व निकेत
हम तो अब हैं अकेले"
इस काल को नापने का सूक्ष्मतम और महत्तम माप हमारे यहां कहा गया है।
श्रीमद्भागवत में प्रसंग आता है कि जब राजा परीक्षित महामुनि शुकदेव से
पूछते हैं, काल क्या है? उसका सूक्ष्मतम और महत्तम रूप क्या है? तब इस
प्रश्न का शुकदेव मुनि जो उत्तर देते हैं वह आश्चर्य जनक है, क्योंकि आज के
आधुनिक युग में हम जानते हैं कि काल अमूर्त तत्व है। घटने वाली घटनाओं से
हम उसे जानते हैं। आज से हजारों वर्ष पूर्व शुकदेव मुनि ने कहा- "विषयों का
रूपान्तर" (बदलना) ही काल का आकार है। उसी को निमित्त बना वह काल तत्व
अपने को अभिव्यक्त करता है। वह अव्यक्त से व्यक्त होता है।"
काल गणना
इस काल का सूक्ष्मतम अंश परमाणु है तथा महत्तम अंश ब्राहृ आयु है। इसको विस्तार से बताते हुए शुक मुनि उसके विभिन्न माप बताते हैं:-
2 परमाणु- 1 अणु - 15 लघु - 1 नाड़िका
3 अणु - 1 त्रसरेणु - 2 नाड़िका - 1 मुहूत्र्त
3 त्रसरेणु- 1 त्रुटि - 30 मुहूत्र्त - 1 दिन रात
100 त्रुटि- 1 वेध - 7 दिन रात - 1 सप्ताह
3 वेध - 1 लव - 2 सप्ताह - 1 पक्ष
3 लव- 1 निमेष - 2 पक्ष - 1 मास
3 निमेष- 1 क्षण - 2 मास - 1 ऋतु
5 क्षण- 1 काष्ठा - 3 ऋतु - 1 अयन
15 काष्ठा - 1 लघु - 2 अयन - 1 वर्ष
शुक मुनि की गणना से एक दिन रात में 3280500000 परमाणु काल होते हैं तथा
एक दिन रात में 86400 सेकेण्ड होते हैं। इसका अर्थ सूक्ष्मतम माप यानी 1
परमाणु काल 1 सेकंड का 37968 वां हिस्सा।
महाभारत के मोक्षपर्व में अ. 231 में कालगणना - निम्न है:-
15 निमेष - 1 काष्ठा
30 काष्ठा -1 कला
30 कला- 1 मुहूत्र्त
30 मुहूत्र्त- 1 दिन रात
दोनों गणनाओं में थोड़ा अन्तर है। शुक मुनि के हिसाब से 1 मुहूर्त में 450
काष्ठा होती है तथा महाभारत की गणना के हिसाब से 1 मुहूर्त में 900 काष्ठा
होती हैं। यह गणना की भिन्न पद्धतियों को परिलक्षित करती है।
यह सामान्य गणना के लिए माप है। पर ब्रह्माण्ड की आयु के लिए, ब्रह्माण्ड में होने वाले परिवर्तनों को मापने के लिए बड़ी
कलियुग - 432000 वर्ष
2 कलियुग - द्वापरयुग - 864000 वर्ष
3 कलियुग - त्रेतायुग - 1296000 वर्ष
4 कलियुग - सतयुग - 1728000 वर्ष
चारों युगों की 1 चतुर्युगी - 4320000
71 चतुर्युगी का एक मन्वंतर - 306720000
14 मन्वंतर तथा संध्यांश के 15 सतयुग
का एक कल्प यानी - 4320000000 वर्ष
एक कल्प यानी ब्रह्मा का एक दिन, उतनी ही बड़ी उनकी रात इस प्रकार 100 वर्ष
तक एक ब्रह्मा की आयु। और जब एक ब्रह्मा मरता है तो भगवान विष्णु का एक
निमेष (आंख की पलक झपकने के काल को निमेष कहते हैं) होता है और विष्णु के
बाद रुद्र का काल आरम्भ होता है, जो स्वयं कालरूप है और अनंत है, इसीलिए
कहा जाता है कि काल अनन्त है।
शुकदेव महामुनि द्वारा वर्णित इस
वर्णन को पढ़कर मन में प्रश्न आ सकता है कि ये सब वर्णन कपोलकल्पना है,
बुद्धिविलास है। आज के वैज्ञानिक युग में इन बातों की क्या अहमियत है।
परन्तु ये सब वर्ण कपोलकल्पना नहीं अपितु इसका सम्बंध खगोल के साथ है।
भारतीय कालगणना खगोल पिण्डों की गति के सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर
प्रतिपल, प्रतिदिन होने वाले उसके परिवर्तनों, उसकी गति के आधार पर यानी
ठोस वैज्ञानिक सच्चाईयों के आधार पर निर्धारित हुई है। जबकि आज विश्व में
प्रचलित ईसवी सन् की कालगणना में केवल एक बात वैज्ञानिक है कि उसका वर्ष
पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा करने में लगने वाले समय पर आधारित है। बाकी
उसमें माह तथा दिन का दैनंदिन खगोल गति से कोई सम्बंध नहीं है। जबकि भारतीय
गणना का प्रतिक्षण, प्रतिदिन, खगोलीय गति से सम्बंध है।
Saturday, August 4, 2012
पंचवटी वाटिका
पीपल, बेल, वट, आंवला व अशोक ये पांचो वृक्ष
पंच्वटी कहे गये हैं। इनकी स्थापना पांच दिशाऒं में करनी चाहिए। पीपल पूर्व
दिशा में, बेल उत्तर दिशा में, वट (बरगद) पश्चिम दिशा में, आंवला दक्षिण
दिशा में तपस्या के लिए स्थापना करनी चाहिए । पांच वर्षों के पश्चात चार
हाथ की सुन्दर वेदी की स्थापना बीच मॆं करनी चाहिए । यह अनन्त फलों कॊ देने
वाली व तपस्या का फल देने प्रदान करने वाली है।
यदि अधिक जगह उपलब्ध हो तो वृह्द पंचवटी की स्थापना करें । सर्व प्रथम केन्द्र
के चारो ऒर 5 मी० त्रिज्या 10 मी० त्रिज्या, 20 मी० त्रिज्या, 25 मी० त्रिज्या, एवं 30 मी० त्रिज्या, का पांच वृत्त बनाऎ । अन्दर के प्रथम 5 मी० त्रिज्या के वृत पर चारॊ दिशाऒं में चार बेल के वृक्षॊ का स्थापना करॆं। इसके बाद 10 मी० त्रिज्या के द्वीतीय वृत पर चारो कॊनॊं पर चार बरगद का वृक्ष स्थापित करें। 20 मी० त्रिज्या के त्रीतीय वृत की परिधि पर समान दूरी पर ( लगभग 5 मी० ) के अन्तराल पर 25 अशॊक के वृक्ष का रोपण करें। चतुर्थ वृत जिसकी त्रिज्या 25 मी० हॆ के परिधि पर दक्षिण दिशा के लम्ब से 5-5 मी० पर दोनों तरफ दक्षिण दिशा में आंवला के दो वृक्ष चित्रानिसार स्थापित करने का विधान है। आंवला के दो वृक्षॊं की परस्पर दूरी 10 मी० रहेगी । पंचवे अौर अंतिम 30 मी० त्रिज्या के वृत के परधि पर चरो दिशऒं में पीपल के चर वृक्ष का रोपण करें। इस प्रकार कुल उन्तालिस वृक्ष की स्थापना होगी । जिसमें चार वृक्ष बेल, चार बरगद, 25 वृक्ष अशोक, दो वृक्ष आंवला एवं चार वृक्ष पीपल के होंगे।
पंचवटी का महत्व
1 औषधीय महत्व
इन पांच वृक्षों में अद्वितीय औषधीय गुण है । आंवला विटामिन "c" का सबसे सम्रध स्त्रोत ह एवं शरीर को रोग प्रतिरोधी बनाने की महऔषधि है। बरगद का दूध बहुत बलदायी होता है। इसके प्रतिदिन ईस्तेमाल से शरीर का कायाकल्प हो जाता है। पीपल रक्त विकार दूर करने वाला वेदनाशामक एवं शोथहर होता है। बेल पेट सम्बन्धी बीमारियों का अचूक औषधि है तो अशोक स्त्री विकारों को दूर करने वाला औषधीय वृक्ष है।
इस वृक्ष समुह में फलों के पकने का समय इस प्रकार निर्धारित है कि किसी न किसी वृक्ष पर वर्ष भर फल विधमान रहता है। जो मौसमी रोगों के निदान हेतु सरलता से उपलब्ध होता है। गर्मी में जब पाचन सम्बन्धी विकारों की प्रबलता होती है तो बेल है। वर्षाकाल में चर्म रोगों की अधिकता एवं रक्त विकारों में अशॊक परिपक्व होता है। शीत ऋतु में शरीर के ताप एवं उर्जा की आवश्यकता को आंवला पूरा करता है
2 पार्यावरणीय महत्व
बरगद शीतल छाया प्र्दान करने वाला एक विशाल वृक्ष है। गर्मी के दिनों में अपरान्ह में जब सुर्य की प्रचन्ड किरणें असह्य गर्मी प्रदान करत हैं एवं तेज लू चलता है तो पचवटी में पश्चिम के तरफ़ स्थित वट वृक्ष सघन छाया उत्पन्न कर पंचवटी को ठ्न्डा करत है।
पीपल प्रदुषण शोषण करने वाला एवं प्राण वायु उत्पन्न करन वाला सर्वोतम वृक्ष है
अशोक सदाबहार वृक्ष है यह कभी पर्ण रहित नहीं रहता एवं सदॆव छाया प्रदान करत है।
बेल की पत्तियों, काष्ठ एवं फल में तेल ग्रन्थियां होती है जो वातावरण को सुगन्धित रखती हैं।
पछुआ एवं पुरुवा दोनों की तेज हवाऒं से वातावरण में धूल की मात्रा बढती है जिसकॊ पुरब व पश्चिम में स्थित पीपल व बरगद के विशाल पेड अवशोशित कर वातावरण को शुद्ध रखते हैं।
3 धार्मिक महत्व
बेल पर भगवान शंकर का निवास माना गया है तो पीपल पर विष्णु एवं वट वृक्ष पर ब्रह्मा का। इस प्रकार प्रमुख त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश का पंचवटी में निवास है एवं एक ही स्थल पर तीनो के पूजन का लाभ मेलता है।
4 जैव विविधता संरक्षण
पंचवटी में निरन्तर फल उपलब्ध होने से पक्षियों एवं अन्य जीव जन्तुऒं के लिए सदैव भोजन उपलब्ध रहता है एवं वे इस पर स्थाई निवास करते हैं। पीपल व बरगद कोमल काष्टीय वृक्ष है जो पक्षियॊं के घोसला बनाने के उपयुक्त है
यदि अधिक जगह उपलब्ध हो तो वृह्द पंचवटी की स्थापना करें । सर्व प्रथम केन्द्र
के चारो ऒर 5 मी० त्रिज्या 10 मी० त्रिज्या, 20 मी० त्रिज्या, 25 मी० त्रिज्या, एवं 30 मी० त्रिज्या, का पांच वृत्त बनाऎ । अन्दर के प्रथम 5 मी० त्रिज्या के वृत पर चारॊ दिशाऒं में चार बेल के वृक्षॊ का स्थापना करॆं। इसके बाद 10 मी० त्रिज्या के द्वीतीय वृत पर चारो कॊनॊं पर चार बरगद का वृक्ष स्थापित करें। 20 मी० त्रिज्या के त्रीतीय वृत की परिधि पर समान दूरी पर ( लगभग 5 मी० ) के अन्तराल पर 25 अशॊक के वृक्ष का रोपण करें। चतुर्थ वृत जिसकी त्रिज्या 25 मी० हॆ के परिधि पर दक्षिण दिशा के लम्ब से 5-5 मी० पर दोनों तरफ दक्षिण दिशा में आंवला के दो वृक्ष चित्रानिसार स्थापित करने का विधान है। आंवला के दो वृक्षॊं की परस्पर दूरी 10 मी० रहेगी । पंचवे अौर अंतिम 30 मी० त्रिज्या के वृत के परधि पर चरो दिशऒं में पीपल के चर वृक्ष का रोपण करें। इस प्रकार कुल उन्तालिस वृक्ष की स्थापना होगी । जिसमें चार वृक्ष बेल, चार बरगद, 25 वृक्ष अशोक, दो वृक्ष आंवला एवं चार वृक्ष पीपल के होंगे।
पंचवटी का महत्व
1 औषधीय महत्व
इन पांच वृक्षों में अद्वितीय औषधीय गुण है । आंवला विटामिन "c" का सबसे सम्रध स्त्रोत ह एवं शरीर को रोग प्रतिरोधी बनाने की महऔषधि है। बरगद का दूध बहुत बलदायी होता है। इसके प्रतिदिन ईस्तेमाल से शरीर का कायाकल्प हो जाता है। पीपल रक्त विकार दूर करने वाला वेदनाशामक एवं शोथहर होता है। बेल पेट सम्बन्धी बीमारियों का अचूक औषधि है तो अशोक स्त्री विकारों को दूर करने वाला औषधीय वृक्ष है।
इस वृक्ष समुह में फलों के पकने का समय इस प्रकार निर्धारित है कि किसी न किसी वृक्ष पर वर्ष भर फल विधमान रहता है। जो मौसमी रोगों के निदान हेतु सरलता से उपलब्ध होता है। गर्मी में जब पाचन सम्बन्धी विकारों की प्रबलता होती है तो बेल है। वर्षाकाल में चर्म रोगों की अधिकता एवं रक्त विकारों में अशॊक परिपक्व होता है। शीत ऋतु में शरीर के ताप एवं उर्जा की आवश्यकता को आंवला पूरा करता है
2 पार्यावरणीय महत्व
बरगद शीतल छाया प्र्दान करने वाला एक विशाल वृक्ष है। गर्मी के दिनों में अपरान्ह में जब सुर्य की प्रचन्ड किरणें असह्य गर्मी प्रदान करत हैं एवं तेज लू चलता है तो पचवटी में पश्चिम के तरफ़ स्थित वट वृक्ष सघन छाया उत्पन्न कर पंचवटी को ठ्न्डा करत है।
पीपल प्रदुषण शोषण करने वाला एवं प्राण वायु उत्पन्न करन वाला सर्वोतम वृक्ष है
अशोक सदाबहार वृक्ष है यह कभी पर्ण रहित नहीं रहता एवं सदॆव छाया प्रदान करत है।
बेल की पत्तियों, काष्ठ एवं फल में तेल ग्रन्थियां होती है जो वातावरण को सुगन्धित रखती हैं।
पछुआ एवं पुरुवा दोनों की तेज हवाऒं से वातावरण में धूल की मात्रा बढती है जिसकॊ पुरब व पश्चिम में स्थित पीपल व बरगद के विशाल पेड अवशोशित कर वातावरण को शुद्ध रखते हैं।
3 धार्मिक महत्व
बेल पर भगवान शंकर का निवास माना गया है तो पीपल पर विष्णु एवं वट वृक्ष पर ब्रह्मा का। इस प्रकार प्रमुख त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश का पंचवटी में निवास है एवं एक ही स्थल पर तीनो के पूजन का लाभ मेलता है।
4 जैव विविधता संरक्षण
पंचवटी में निरन्तर फल उपलब्ध होने से पक्षियों एवं अन्य जीव जन्तुऒं के लिए सदैव भोजन उपलब्ध रहता है एवं वे इस पर स्थाई निवास करते हैं। पीपल व बरगद कोमल काष्टीय वृक्ष है जो पक्षियॊं के घोसला बनाने के उपयुक्त है
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